।।श्री गुरू की महिमा।।
तंत्रशास्त्रों में
‘गुरू‘ शब्द की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि ‘गु‘ का तात्पर्य ‘अंधकार‘ तथा ‘रू‘ का तात्पर्य ‘निरोधक (नष्ट करने वाला)‘ होता है। अर्थात् शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करने वाला ही ‘गुरू‘ है। श्री गुरू की महिमा का वर्णन करते हुए शिवजी मॉं पार्वती को बताते हैं कि-
‘शिवोहमाकृतिर्देवि-नरदृगोचरोनहि............ स्वशिष्यानुग्रहार्थाय-गूढ़ंपर्यतिक्षितौ‘
(हे पार्वती! मैं स्वयं गुरूरूप हूँ। मनुष्य की आखें मुझे नहीं देख सकती हैं। शिष्यों पर कृपा करने के लिए मैं ही धरती पर मनुष्य रूप (गुरूरूप)
में विचरण करता रहता हूँ।)
‘अत्रिनेत्र शिव: साक्षात् ............ श्री गुरू‘ कथित: प्रिये! ‘
नरवद् दृश्यते
लोके ............ भवानि पुण्य
कर्मणा‘
(मनुष्य रूपी गुरू बिना 3-नेत्र वाले शिव, बिना 4-भुजाओं वाले विष्णु तथा बिना 4-मुखवाले ब्रह्मा जी के समान ही हैं। पापियों को गुरू मनुष्य रूप में दिखाई देते हैं जबकि पुण्यात्मा व्यक्ति अपने मनुष्य रूप वाले गुरू में शिव जी के दर्शन पाते हैं।)
‘गुरू: सदाशिव: साक्षात् ............
भुक्ति-मुक्ति ददाति
क: ‘
(श्री गुरू साक्षात भगवान शिव ही हैं। ऐसे गुरू के अलावा भोग-मोक्ष कौन दे सकता है।)
‘शिवरूपं समास्थाय ............ भवपाशा निकृन्तयेत्‘
(श्री गुरू शिवरूप में शिष्य की पूजा ग्रहण करते हैं तथा गुरू बनकर शिष्य को भव-पाश
मुक्त करा देते हैं।)
'यथादेव स्तथामंत्रो
..............पूजायासदृशं फलम्'
(जो देवता है वही मंत्र है। जो मंत्र है वही गुरू है। इन तीनों की पूजा का फल भी एक समान ही है।)
'यथा घटश्च कलश:
...................... गुरूश्चैकार्थ उच्यते'
(जिस प्रकार घट, कलश तथा कुम्भ एक ही पात्र का नाम है उसी प्रकार देवता, मंत्र तथा गुरू भी एकार्थवाचक है।)
समस्त भक्तों, सिद्धों, सन्तों तथा परमहंसदेवों ने भी श्री गुरू की अलौकिक महिमा का मुक्तकंठ से गुणगान किया है। बिना गुरूदेव की कृपा तथा मार्गदर्शन प्राप्त किए आध्यात्मिक महापथ पर एक कदम भी नहीं चला जा सकता है। शास्त्रों द्वारा भी श्री गुरू को ब्रह्मा, बिष्णु तथा परब्रह्म की उपमा दी गई है तथा शिष्य का सर्वस्व गुरू को ही बताया गया है।
'गुरूब्रह्मा..........तस्मै श्री गुरूवे नम:'
'अज्ञान तिमिरान्धस्य..................
तस्मै श्री गुरूवे नम:'
(उन गुरूदेव को प्रणाम करता हूँ जो ज्ञान-चक्षुओं को खोलकर अज्ञानरूपी अंधकार को विनष्ट करते हैं)
'ध्यानमूलं गुरोमूर्ति
..........मोक्षमूलं गुरोकृपा'
(एक शिष्य के ध्यान के लिए गुरूमूर्ति, पूजा के लिए गुरूचरण, मंत्र के लिए गुरूवाक्य तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरूकृपा ही पर्याप्त है।)
'भवपाश विनाशाय
.................... मुक्ति-मुक्ति प्रदायिने'
नराकृतिपरब्रह्म
.......................... तस्मै श्री गुरूवे नम:'
'उन श्री गुरूदेव को प्रणाम करता हॅूं जो संसार के माया-मोह रूपी पाश (बन्धन) का नाश करके ज्ञान रूपी दृष्टि देते हैं। श्री गुरू मनुष्य रूप में साक्षात् परब्रह्म स्वरूप हैं। एक भोला-भाला सहृदय गुरूभक्त श्री गुरू की महिमा के विषय में कहता है कि 'यदि मैं विशाल पर्वतश्रंखलाओं की लेखनी, समस्त महासागरों के जल की स्याही बनाकर इस धरती रूपी कागज पर गुरू की महिमा लिखने लगूंगा
तो यह कागज भी छोटा पड़ जायेगा।'
।।श्री गुरू के लक्षण।।
तंत्र-शास्त्रों में सत्गुरू
के लक्षण बताते हुए भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं कि ‘हे देवी‘ ब्रह्मज्ञान-प्रदाता गुरू
में जो लक्षण होने चाहिए उनको आप ध्यान से सुनें-
‘श्री गुरू‘ परमेशानि ! शुद्धवेशो मनोहर।
....................................
सर्वागमार्थ तत्वज्ञ: सर्व तंत्र विधानवित्।
....................................
अन्तर्लक्ष्यो बहि
दृष्टि सर्वज्ञो देशकालवित्।
....................................
स्वविद्यानुष्ठानरतो धर्म ज्ञानार्थ रक्षक :
....................................
चक्रसंकेतकं, पूजासंकेतकं, त्रितयं
यो विजानाति
....................................
ज्येष्ठो देवगुरू
श्रेष्ठो-वनितापूजनोत्सुक:
....................................
इत्यादि लक्षणोपेत:श्रीगुरू: कथित:
प्रिये! ‘
अर्थात् सत्गुरू को शुद्धवेशधारी, सर्वलक्षणसम्पन्न,
सुन्दर शारीरिकविन्यास वाला, शान्तचित्त, समस्त मंत्र-तंत्र शास्त्रों का ज्ञाता, आज्ञासिद्धि
प्राप्त किया हुआ, वरदान तथा श्राप देने में सक्षम, शाम्भवीमुद्रा में दक्ष (अन्तर्लक्षो-वहिदृष्टि), समस्तप्राणियों पर दया करने
वाला, इन्द्रियविजयी, गंभीरस्वभाववाला, निर्भय, निरहंकारी, निर्मम, निर्द्वंद, सदैव संतुष्ट रहने वाला, सुख-दुख से विचलित न
होने वाला, नारीजाति का सम्मान तथा पूजा करने वाला, नित्य-नैमित्तिक तथा काम्य कर्मो
को प्रमादरहित होकर करने वाला, स्त्री-पुत्रादि धन-सम्पत्ति से अनासक्त, ब्यसनों तथा
कुसंग से दूर रहने वाला, निन्दा तथा स्तुति से अविचलित रहने वाला, मंत्रसंकेत, पूजासंकेत
तथा चक्रसंकेत को जानने वाला, आणव, मायिक तथा कार्मिक मलों को शोधित करने वाला, विभिन्न
यौगिक-मुद्राओं (महामुद्रा,
नभोमुद्रा, उडि्डयान, जालन्धर आदि), पृथ्वीतत्व से लेकर शिवतत्व
तक 36-तत्वों को समझने वाला, अन्तर्यजन तथा बहिर्यजन में पारंगत, पिन्ड-ब्रह्मान्ड
की ऐक्यता पर विश्वास करने वाला, घृणा, लज्जा, अहंकार, भय, शोक तथा जुगुप्सा, कुल, शील, पद, मान, सम्मान के 8-पाशों से मुक्त, शरीरस्थित
समस्त चक्रों का तत्वज्ञ, यंत्र-मंत्र के स्वरूप का ज्ञाता, कुलधर्म, कुलाचार तथा समयाचार
का पालन करने वाला, अपनी गुरू परम्परा, तीर्थ, मठ तथा सम्प्रदाय का ज्ञाता, शिष्य की
शंकाओं, जिज्ञासाओं तथा विपरीत भावनाओं का निराकरण करने वाला, निरंतर ब्रह्मचिन्तन
में निमग्न रहने वाला, संकल्प-विकल्प से रहित, गुरू, देवता तथा अग्नि की पूजा (हवन-यज्ञ) करने वाला होना चाहिए।
।।श्री गुरू की खोज।।
भारतवर्ष की हजारों वर्ष प्राचीन गौरवशाली आध्यात्मिक
परम्परा के महान सिद्धों, सन्तों तथा योगियों से लेकर
विगत लगभग 150-200 वर्ष तक इस पवित्र भूमि में अवतरित हुए दिव्य महात्माओं की जीवन-यात्रा का स्मरण करने से पता चल जाता है कि ये सिद्ध योगी किसी
भी भाषा के वर्णाक्षरों को पढ़-लिख नहीं सकने के बावजूद भी त्रिकालज्ञ ही नहीं महान
विद्वान भी थे। ये ब्रह्मज्ञानी थे तथा ऐसी भाषा (विद्या) को जानते थे जिसे जानलेने
के पश्चात् अन्य सभी विद्याऐं स्वत: ही ज्ञात हो जाती थी। 'यस्मिन ज्ञाते सर्वं विज्ञात्
मुच्यते वेदै:'। ये सन्त-महात्मा अपनी इसी भाषा का उपयोग करके समस्त प्राणिमात्र यहॉं
तक कि पेड़-पौधों से भी वार्ताऐं करके उनके अन्दर अपने दिव्य संदेशों का संचार भी कर
देते थे। ऐसे महान गुरूओं से जो भाग्यशाली व्यक्ति शिष्यत्व ग्रहण करते थे वे भी अपने
गुरूओं के समान ही महासिद्ध बन जाते थे क्योंकि इन गुरूओं की दृष्टि तथा स्पर्श मात्र से ही इनके शिष्यों
की कुण्डलिनी- शक्ति जागृत हो जाया करती थी।
भारत भूमि में आज पर्याप्त खोज के पश्चात भी कुछ गिने-चुने
सन्तों की ही जानकारी मिल पा रही है। इन परिस्थितियों
में उपासना की जिज्ञासा रखने वाले व्यक्ति को सत्गुरू की प्राप्ति नहीं हो पा रही है।
वर्तमान में न तो शक्ति-सम्पन्न गुरू ही उपलब्ध हो पा रहे हैं और न जिज्ञासु व्यक्ति
ही शिष्यत्व की कसौटी पर सफल होने योग्य रह गए हैं।
श्रीविद्या उपासना ही ब्रह्मविद्या उपासना है। जब सामान्य
सांसारिक, पुस्तकीय एवं जीविकोपार्जन के लिए पढ़ी जाने वाली विद्याओं के लिए ही विशेष
साधन सम्पन्न संस्थानों तथा विभिन्न विषयों के पारंगत
एवं विशेष योग्यता रखने वाले प्राध्यापकों (गुरूओं) की आवश्यकता पड़ती है तो ब्रह्मविद्या
पढ़ाने वाले गुरू की क्या सामर्थ्य होनी चाहिए, यह आसानी
से समझा जा सकता है।
वर्तमान समय में श्रीकुन्डलिनी जागृत कर सकने की क्षमता
रखने वाले महासिद्धौ से सम्पर्क न हो पाने की स्थिति में जिज्ञासु व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी ऐसे उपासक
की खोज करके उसे अपना गुरू स्वीकार करले जो स्वयं किसी महाविद्या की उपासना करके 'पूर्णाभिषिक्त'
हो चुका हो, क्योंकि शास्त्रों का निर्देश है कि पूर्णाभिषेक हुए बिना कोई भी उपासक
किसी अन्य व्यक्ति को शिष्य नहीं बना सकता है। जो व्यक्ति ऐसे किसी पूर्णाभिषिक्त उपासक
को अपना गुरू मानकर उसका शिष्यत्व ग्रहण करना चाहता है तो उसे यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उसके भावी गुरू में शास्त्रों
द्वारा निर्धारित गुरू बनने योग्य सभी लक्षण विद्यमान हों। (गुरू के लक्षण प्रथक से लिखे
जा रहे हैं)
उस गुरू को अपनी गुरू-परम्परा (परौघ गुरू, दिव्यौघगुरू, सिद्धौघगुरू
तथा मानवौघ गुरू),
सम्प्रदाय, आम्नाय, तीर्थ, मठ, महापादुका, मंत्र-संकेत, पूजा-संकेत, चक्र-संकेत, नवावरणपूजा,
काम-कला, न्यास, अन्तर्याग तथा वाहिर्याग सम्बन्धी समस्त ज्ञान होना चाहिए। ऐसा उपासक
गुरू ही शिष्य का मार्गदर्शन कर सकता है।