Saturday, 29 March 2014

4. शक्ति उपासना की मूल अवधारणा

।।शक्ति उपासना की मूल अवधारणा।।

शक्ति-उपासना की प्रमुख विशेषताओं तथा मान्यताओं को ही मूल अवधारणाऐं कहा जाता है। मंत्र-दीक्षा (शक्तिपात) देतेसमय श्री गुरू द्वारा इन मान्यताओं तथा तथ्यों से अपने शि को परिचित करा दिया जाता है ताकि वह इनको हृदयंगम करके, इन पर पूर्ण विश्वास करते हुए तथा गुरू द्वारा बताए गए विधि-विधान का पालन करते हुए साधना पथ पर निर्भय होकर अग्रसर होते हुए अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सके। जिन सिद्धान्तों, मान्यताओं तथा विशेषताओं की सुदृढ़ नीव पर शक्ति-उपासना रूपी दिव्य प्रासाद (महल) सृष्टिरचना काल से ही अटल-अचल रूप में अवस्थित है, उनका संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।

(1)  शक्ति-उपासना हेतु गुरूशिष्य परम्परा का निर्वाह करना पड़ता है। 'संकेत विद्या-गुरू वक्त्र गम्या' श्री गुरू से दीक्षा (शक्तिपात) प्राप्त करके उन्हीं की कुल परम्परा एवं सम्प्रदाय की पद्धति के अनुसार पूजन-अर्चन करना पड़ता है। मंत्र-दीक्षा प्राप्त करने से पहले शिष्य को शास्त्रों में निर्धारित शिष्यत्व की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होना पड़ता है क्योंकि शास्त्र निर्देश देता है कि यदि अपना पुत्र भी अयोग्य तथा अभक्त होतो उसे भी दीक्षा दी जाये। इसके विपरीत चलने पर घोर नरक का प्राविधान रखा गया है। इस विषय पर विस्तार से ''जिज्ञासु साधक की योग्यता'' शीर्षक के अन्तर्गत प्रथक से प्रकाश डाला जायेगा।

(2) शाक्त-दर्शन में 'दासत्व' का भाव विद्यमान नहीं है। शक्ति का उपासक विभिन्न 'न्यासादि क्रियाऐं' करके स्वयं देवभाव में आरूढ़ हो जाता है तथा साधना के उच्च स्तर पर पहुँचकर स्वयं देवतुल्य बन जाता है। उसका जीवात्मा 'शिव' बन जाता है और शरीर 'देवालय' तब वह स्वयं 'शिवरूप' बनकर 'शिवा' की पूजा अर्चना करता है। आगम वचन है 'देवो भूत्वा-देवं यजेत्' तथा 'देहो देवालयो साक्षात्'

(3) शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'मॉं' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी मॉं तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमय है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।

(4) शक्ति का उपासक अपनी साधना को किसी भी अदीक्षित व्यक्ति के समक्ष प्रकट नहीं करता है। 'कौलोपनिषद' शक्ति-उपासक का मार्गदर्शक ग्रन्थ है जो कहता है- 'कौल प्रतिष्ठा कुर्यात्' तथा समाज में श्रीशिव तथा श्रीबिष्णु के उपासक की तरह रहो परन्तु अन्दर से शक्ति-उपासक की तरह रहकर अपनी साधना तथा वास्तविकता को छिपाए रखो।

(5) वेदान्त तथा अद्धैतवाद के साथ शक्ति-उपासना का घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण ही यह भी मान्यता है कि 'शिव' (परमेश्वर) तथा 'शक्ति' अलग नहीं है। शाक्त-दर्शन जीव तथा ब्रह्म की एकता पर विश्वास करता है।

(6) शक्ति का साधक विश्वास करता है कि समस्त ब्रह्मान्ड में 'शक्ति' ही ब्याप्त है। समस्त सांसारिक प्रपंच महाशक्ति द्वारा निर्मित है तथा उसी का क्रीड़ास्थल भी है।

(7) शाक्त-उपासक समस्त प्राणियों में अपनी आत्मा तथा अपने आत्मा में समस्त प्राणियों की आत्मा को देखता है।

(8) शक्ति-उपासना में 'पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता' पर विश्वास करते हुए अपने शरीर में ही समस्त ब्रह्मान्ड की विभूतियों का प्रत्यक्षीकरण करने का अभ्यास किया जाता है।

(9) शक्ति-उपासना में 'भावना अथवा भाव' को प्रमुखता दी गई है। शाक्त-दर्शन का उद्घोष है कि 'भावना में ही देवता का निवास है, भाव ही सिद्धि का कारण है', भाव से ही ज्ञान प्राप्त होता है तथा भाव से ही इष्ट देवी का दर्शन हो सकता है। किसी काठ तथा पत्थर की प्रतिमा अथवा मन्दिर में देवता का वास नहीं होता वरन् साधक का हृदय ही देवता का निवासस्थान होता है।

(10) शक्ति के उपासक को अपनी इष्ट देवी (महाविद्या) के साथ तादात्म्य स्थापित करना पड़ता है। इसके लिए शाक्त-दर्शन में आन्तरिक-पूजा (अन्तर्याग) की व्यवस्था की गई है। 'भावनोपनिषद् इस बिषय पर पूर्ण प्रकाश डालता है।

(11) शाक्त-दर्शन की मान्यता है कि गुरू, मंत्र तथा देवी एक ही हैं। अत: जैसी भक्ति गुरू के प्रति हो वैसी ही भक्ति-भावना मंत्र तथा इष्ट देवी के प्रति रखनी पड़ती है। 'यस्य देवे पराभक्ति-यथा देवे तथा गुरो''

(12) शाक्त-दर्शन में सभी वर्णों तथा सभी जाति की नारियों को 'त्रैलोक्य जननी' तथा 'त्रैलोक्य पूजिता' जैसी सर्वोच्च उपमाओं से अलंकृत करके उनकी पूजा करने का निर्देश दिया गया है। कुमारियों तथा सुवासिनियों की विधिवत् पूजा करके किसी भी काम्य-कर्म को सिद्ध किया जा सकता है। इस विषय पर विस्तार पूर्वक प्रथक शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाश डाला जायेगा।


श्रीविद्या उपासनारूपी अभेद्य दुर्ग (किले) में प्रवेश
(श्रीविद्या उपासना की श्रेष्टता)

जिस प्रकार किसी महाराजा अथवा महारानी द्वारा अपने बहुमूल्य हीरे-जवाहरातों, मणि-माणिक्यों, रत्नों तथा स्वर्णाभूषणों को एक सुदृढ़ तथा सुरक्षित किले के अन्दर संभालकर उसके द्वार पर ताला लगाकर उसकी चाबी अपने पास रखली जाती है तथा उस किले की अहर्निश सुरक्षा हेतु अत्यन्त बलशाली सुरक्षा कर्मियों की तैनाती करके कुशल द्वारपालों की नियुक्ति भी कर दी जाती है, उसी प्रकार शक्ति-उपासना रूपी अभेद्य किले के अन्दर देवाधिदेव महादेव (जगद्गुरू) द्वारा अनन्त आध्यात्मिक-सिद्धियों तथा दैवी-सम्पत्तियों का भन्डारण कर दिया गया है। इस आध्यात्मिक किले के द्वार पर जो सुदृढ़ तथा दिव्य ताला लगा दिया गया है उसकी चाबी श्री गुरूदेव को सौंप दी गई है। जब तक सद्गुरू द्वारा अपने योग्य शिष्य को यह चाबी नहीं सौपी जायेगी तब तक शिष्य भी इस आध्यात्मिक किले के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता है। श्रीविद्या उपासक जानता है कि इस आध्यात्मिक किले के द्वार पर कितने द्वारपाल नियुक्त रहते हैं जिनसे आज्ञा लेकर ही वह किले के अन्दर प्रवेश पा सकता हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बिनागुरू आज्ञा (बिना शिष्यत्व ग्रहण किए) कोई भी शक्ति-उपासना का अधिकारी नहीं बन सकता है।

आगम शास्त्रों का उद्घोष है कि करोड़ों वाजपेय यज्ञ, सहस्रों अश्वमेध यज्ञ, समस्त ब्रह्माण्ड की परिक्रमा, भूमन्डल के समस्त तीर्थों तथा पवित्रधामों की यात्रा से जो पुण्यलाभ मिलता है वह श्रीविद्या मंत्र के एक बार उच्चारण करने से ही प्राप्त हो जाता है।

श्री स्वामीराम हिमालयी सिद्धों-सन्तों की गौरवशाली एवं सर्वश्रेष्ट परम्परा के श्रीविद्या के उपासक ही नहीं वरन् 20वीं सदी के महान् तपस्वी, योगी, दार्शनिक तथा सन्त हुए हैं। आपके द्वारा श्रीविद्या उपासना की श्रेष्टता के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक “Living with the Himalayan Masters” esa “The wave of Bliss” शीर्षक लेख के अन्तर्गत लिखा गया है कि वह श्रीविद्या के महान् उपासक स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से मिले थे तथा उनके सान्निध्य में रहकर उन्हें श्रीविद्या के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी प्राप्त हुई थी। स्वामी राम जी लिखते हैं-
“During our conversation, he started talking to me about ‘srividya’, the highest of paths followed only by accomplished sanskrit scholars of India. It is path which joins Raja yoga, kundalini yoga, Bhakti yoga and Advaita Vedanta.”
“Later on, I found that srividya and Madhuvidya are spiritual practices  known to a very few-only ten to twelve people in all of India. I became interested in knowing this seience, and whatever little I have today is because if it.------------- My master helped me in choosing to practice the way of srividya.”   
दस महाविद्याओं में से तीन महाविद्याऐं (श्री आद्या, श्रीद्वितीया तथा श्री श्रीविद्या) ही प्रमुख रूप से पूजित एवं वन्दित रही हैं क्योंकि अन्य सात महाविद्याओं यथा श्री बगुलामुखी तथा छिन्नमस्ता आदि की समष्टि इन्हीं तीन महाविद्याओं में हो जाती है। श्री आद्या तथा श्री द्वितीया के उपासकों के लिए विशेष कारणवश श्री बगुला तथा श्री छिन्ना की भी उपासना करनी पड़ती है। कलियुग में, विशेषकर आधुनिक सामाजिक एवं भोगवादी परिवेश में, श्री आद्या तथा श्री द्वितीया की सामान्य उपासना करके आत्मलाभ करना अत्यन्त कठिन ही नहीं असम्भव भी है। इस विषय की गोपनीयता तथा शास्त्रों के निर्देश को ध्यान में रखते हुए यहॉं पर केवल इतना ही परिचय देना पर्याप्त होगा कि इन महादेवियों की साधना हेतु शाक्तागम-शास्त्रों द्वारा निर्धारित स्थान तथा सामग्री (उपकरण) यथा निर्जन प्रदेश, नदीतट, घोरवनभूमि, जागृत श्मशान, विशिष्ट माला तथा बैठने हेतु विशिष्ट आसन भी उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। इन्हीं सब बाध्यताओं के कारण वर्तमान समय में इन महाविद्याओं के उपासकों की संख्या बहुत कम रह गई है। अत: सत्गुरूओं द्वारा जिज्ञासु, संस्कारवान तथा सुयोग्य शिष्यों को श्रीविद्या उपासना हेतु प्रेरित तथा दीक्षित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं बच जाता है।

'शक्ति की महत्ता' शीर्षक के अन्तर्गत पहले भी शक्ति की सर्वव्यापकता तथा सार्वभौमिक अस्तित्व के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक प्रकाश डाल दिया गया है। अत: यहॉं पर केवल श्रीविद्या तथा उसकी उपासना की उन प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है जिनसे अन्य महाविद्याओं के सापेक्ष इसकी सर्वश्रेष्टता, युगानुकूलता तथा सार्वभौमिकता स्वत: ही प्रमाणित हो जाती है।
(1) श्रीविद्या का तंत्र स्वतंत्र है।'चतुषष्ठ्यातंत्रे.........स्वतत्रं ते तंत्रं' (पूज्यपाद शंकराचार्य-सौन्दर्यलहरी) श्रीविद्या के उपासक को मोक्ष प्राप्ति हेतु श्रीआद्या तथा श्रीतारा महाविद्या के उपासकों की तरह किसी अन्य सिद्ध-विद्या यथा श्री छिेन्नमस्ता तथा श्री बगुलामुखी की उपासना भी करने की आवश्यकता नहीं होती। तात्पर्य यह है कि श्रीविद्या सिद्धि अथवा मोक्ष प्रदान करने हेतु अकेली ही सक्षम है। 'मोक्षैक हेतु श्रीविद्या'
(2) इस विद्या की उपासना से साधक को भोग तथा मोक्ष दोनों ही प्राप्त हो जाते हैं जबकि प्रथम दो महाविद्याऐं केवल मोक्षदायिनी है।
'श्री सुन्दरी पूजन तत्पराणां-भोगश्चमोक्षश्च करस्थ एव'
(3) जिन साधकों ने पूर्वजन्म में भगवान शंकर की उपासना पूर्ण करली होती है उन्हीं को इस जन्म में श्रीविद्या की उपासना करने का सौभाग्य प्राप्त होता है-
'यस्य.............शंकर स्वयं। तैनेव.........................श्रीमत्पंचदशाक्षरी'

(4) विभिन्न आगमशास्त्रों में श्रीविद्या की श्रेष्टता तथा उसकी उपासना की महिमा का मुक्तकंठ से गुणगान किया गया है। कतिपय उदाहरण दृष्टव्य हैं जो श्रीविद्या की उपासना को अन्य महाविद्याओं की उपासना से श्रेष्ट घोषित करते हैं-
(i) 'इति तंत्रे बहुविधा-श्रीविद्या महिमोच्यते'
(तंत्रशास्त्रों ने नाना प्रकार से श्रीविद्या महिमा का बखान किया है)
(ii) 'श्रीविद्या .................. नात्र संशय:'
(जिसकी जिह्वा में श्रीविद्या विद्यमान है वह शिवरूप ही है।)
(iii) यथैव विरला.............................................वेदिन:
(इस भूमन्डल में विरले लोग ही श्रीविद्या उपासना कर सकते हैं)
(iv) 'चरमे जन्मनि.............................................श्रीविद्योपासकों भवेत्'
(अन्तिम जन्म में ही श्रीविद्या उपासक बन सकते हैं)
(v) 'अयि प्रियतमं............................................. देया षोडशाक्षरी'
(सबकुछ देदो परन्तु श्रीविद्या मत दो)


।। जिज्ञासु साधक की प्राथमिक योग्यता ।।
शास्त्रों में बताया गया है कि शास्त्रीय एवं पुस्तकीय ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति को भी जब सत्गुरू से दीक्षा प्राप्त हो जाती है तो उसकी कुन्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है। शक्तिपात होने पर वह केवल आध्यात्मिक रूप से परिपुष्ट हो जाता है वरन् उसे समस्त विषयों (विद्याओं) का स्वत: ही बोध हो जाता है। वर्तमान समय में सीधे शक्तिपात करने वाले गुरूओं की संख्या कम रह गई है। अत: शिष्य को गुरूपदिष्ट क्रम से साधना करते हुए अपनी अन्त: शक्तियों को जागृत करने हेतु कठिन प्रयास करना पड़ता है। इसलिए यदि शिष्यत्व हेतु इच्छुक व्यक्ति को दीक्षा प्राप्ति से पूर्व आघ्यात्मिक क्षेत्र का सामान्य ज्ञान होगा तो उसे दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् श्री गुरूदेव द्वारा बताई गई बाते (उपदेश) आसानी से समझ में जायेगे और वह तर्क-कुतर्क में समय नष्ट नहीं करके दृढ़ श्रद्धा-विश्वास पूर्वक अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ सकेगा। जिज्ञासु शिष्य यदि दीक्षापूर्व भी अपने अन्त:करण की पवित्रता हेतु कुछ विशेष आध्यात्मिक अभ्यास (प्रयास) कर लेगा तो उसे उपासनामार्ग में कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा। ऐसे प्रयास अनेक प्रकार से किए जा सकते हैं-
(1) दीर्घकाल तक सत्संग करना चाहिए ताकि ईश्वर के प्रति आस्था एवं विश्वास उत्पन्न हो सके।

(2) विभिन्न धर्मग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए ताकि उसे जीव, जगत, ब्रह्म, माया, आत्मा, परमात्मा, सगुण, निर्गुण, प्रकृति, पुरूष, सत, रज, तम, सृष्टि, स्थिति, संहार, स्थूल, सूक्ष्म का ज्ञान प्राप्त हो सके।

(3) अष्टांग योग में वर्णित साधनों का अभ्यास करना चाहिए ताकि शरीर स्वस्थ तथा मन अचंचल हो सके। यम के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह आते हैं जबकि नियमो के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान का समावेश किया गया है।

(4) मनुष्य जीवन को अनित्य समझना चाहिए ताकि सुत, वित्त, नारि, भवन तथा परिवार का मोह ग्रसित कर सके एवं व्यक्ति इस संसार में निष्काम भावना से कार्य कर सके।

(5) अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए दीर्घकाल तक अन्यान्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चन करने के बावजूद भी मन की संतुष्टि न होने पर अन्तिम रूप से श्री भगवती की उपासना तथा उसकी कृपा-प्राप्ति हेतु रात-दिन बेचैन रहकर श्री गुरू की खोज में लगे रहना चाहिए।

(6) जब जिज्ञासु व्यक्ति नित्य ऐसे अभ्यास करता रहेगा तो उसके हृदय में वह दिव्य जिज्ञासा उत्पन्न होगी जिसे धर्म शास्त्रों ने 'अथातौ ब्रह्म जिज्ञासा' कह कर लक्षित किया है। जिसका तात्पर्य है 'अब ब्रह्म-प्राप्ति की जिज्ञासा (अभिलाषा) आरम्भ होती है'।

(7) इस मानसिक स्थिति में आरूढ़ व्यक्ति को यदि भाग्यवशात् श्री गुरूदेव की प्राप्ति हो जाये तो उसे किस प्रकार श्री गुरूदेव के पास पहुँचकर अपना प्रयोजन बताना चाहिए, के बारे में शास्त्र निर्देश देते हैं-
'स गुरूमेवाभिगच्छेत्-समित्पाणि: श्रोत्रिय:, ब्रह्मनिष्ठ:'
यह स्वत: स्पष्ट है कि जिस आध्यात्मिक साम्राज्य की सीमा में प्रवेश मात्र के लिए इतनी उच्चतम पात्रता चाहिए तो उस दिव्य साम्राज्य में स्वयं को समायोजित (साधना करते हुए) करते हुए श्री मॉं की कृपा प्राप्त करना कितना श्रमसाध्य होता होगा, इसकी कल्पना भी बिना प्रज्ञावान तथा मेधावान बने नहीं की जा सकती है।


।। ब्रह्म विद्योपासना तथा तत्व ज्ञान प्राप्ति हेतु उपयुक्त शिष्य के लक्षण।।
श्री सत्गुरू से दीक्षा प्राप्त करने के उपरान्त शक्ति-उपासना रूपी दिव्य एवं द्रुतगामी वायुयान पर आरूढ़ होकर ब्रह्मज्ञान रूपी आकाश की अनन्त ऊचॉंइयों तक उड़कर आत्मलाभ प्राप्त करने का अधिकार शास्त्रों द्वारा उसी भाग्यवान् शिष्य को प्रदान किया गया है जिसे परमेश्वर द्वारा भी विभिन्न शुभलक्षणों से अलंकृत किया गया हो। अर्थात् ऐसा शिष्य:
1 जो यम-नियमादि साधनों का सतत अभ्यास करता रहता है।
2 जो उत्तम शील-स्वभाव वाला, विनम्र तथा उदारचित्त है।
3 जो मानसिक तथा शारीरिक रूप से स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त है।
4 जो अहंकार शून्य, मितहारी  तथा प्रमाद रहित है।
5 जो ईश्वर, गुरू तथा धर्मग्रन्थों पर विश्वास रखता है।
6 जो सांसारिक दुख-सुखों से विचलित न होकर निरन्तर ब्रह्म चिन्तन करता है।
7 जो अपने गुरू के प्रत्येक वाक्य को प्रामाणिक तथा अन्तिम मानते हुए उनपर पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास रखते हुए उनके निर्देशानुसार पूजन- अर्चन में तत्पर रहता है।
8 जो अपना तन, मन तथा धन समर्पित करके अपने गुरू की सेवा में तत्पर रहता है तथा जो भी न्यूनाधिक प्राप्त हो जावे उसी पर संतोष कर लेता है।
9 जो दूसरों की निन्दा तथा अपनी प्रसंशा सुनना पसन्द नही करता है।
10 जो गुरू, इष्टदेवी तथा मंत्र को एक समान समझकर नित्य उपासना करता है।
11 जो अपनी धन-सम्पत्ति, जाति, पद तथा सम्मान का अहंकार नहीं करके सदैव गुरू-भक्ति तथा आत्मचिन्तन में व्यस्त रहता है।
12 जो प्राणिमात्र तथा वृक्ष-लताओं में भी अपने इष्ट को ही देखता है तथा अपनी कामना पूर्ति के लिए एक तृण को भी नहीं तोड़ता है।
13 जो समस्त सांसारिक क्रिया-कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए भी जल में कमल की भांति सासांरिक माया-मोह से निर्लिप्त रहकर जीवन व्यतीत करता है।