।।श्री श्रीयंत्र।।
।।श्रीयंत्र का स्वरूप (रचना), नवचक्रों
का विवरण तथा श्रीयंत्र दर्शन की महिमा।।
श्रीयंत्र का विषय अत्यन्त
जटिल तथा परमगहन है। जिस प्रकार एक नया तैराक जो सीमित आकार के तरणताल में तैरने
का अभ्यस्त नहीं है वह किसी महासागर में तैरने का दुःस्साहस नहीं कर सकता उसी
प्रकार मुझ जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति के लिए इस विषय पर कुछ भी लिखना आकाशकुसुम तोड़ने
के समान ही है। जितना भी लिखा जा रहा है वह इस विषय के वास्तविक ज्ञान का करोड़वां
अंश भी नहीं है।
श्रीयंत्र की उपासना श्रीविद्या
उपासना की परमगोपनीय तथा सांकेतिक विधा (क्रिया) है। इसकी उपासना केवल
उत्तमाधिकारी एवं सत्व-प्रधान मन वाला साधक ही कर सकता है। ऐसे गोपनीय विषयों का
सर्वसाधारण के समक्ष प्रकटीकरण करना भी ‘‘कौलोपनिषद्’’ के अनुसार वर्जित है-
‘प्राकट्यं न कुर्यात्’
‘कौल प्रतिष्ठा न कुर्यात्’
‘शिष्याय वदेत्’
प्रकाशात् सिद्धिहानिस्यात्’
(उपासना
सम्बन्धी गंभीर रहस्यों को सबके समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिए)
श्रीयंत्र में निहित अनेक
रहस्यमय सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त ‘पिन्डान्ड के अन्दर ब्रह्मान्ड’
तथा ‘ब्रह्मान्ड के अन्दर पिन्डान्ड’ अर्थात् पिन्ड-ब्रहमान्ड की ऐक्यता से सम्बन्धित भी है। इस रहस्य को
ब्रह्मनिष्ट गुरू से ही समझा जा सकता है। सामान्य व्यक्ति जो इस विषय को समझने में
प्रयोग होने वाली शब्दावली से ही अपरिचित है वह कितने ही ग्रन्थ पढ़ले तब भी इसके
तत्व को स्पर्श तक नहीं कर सकेगा। पिन्ड-ब्रह्मान्ड, आत्मतत्व-विद्यातत्व,
शिवतत्व, वाम-दक्षिण मार्ग, त्रिपुटी, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, माता-मान-मेय, मेरू-कैलाश-भू-प्रस्तार, नाद-बिन्दु-कला, प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय, पंचभूत-पंचतन्मात्रा-पंचप्राण, परा-पश्यन्ती-मध्यमा-बैरवरी,
शब्द सृष्टि, अर्थसृष्टि जैसे शब्दों में
निहित अर्थों का ज्ञान होना श्रीयंत्र के विषय को समझने के लिए आवश्यक है।
श्रीयंत्र का विषय
सैद्धान्तिक ज्ञान तथा तर्क का न होकर पूर्णतया ब्यवहारपरक, श्रमसाध्य,
वित्तसाध्य तथा समयसाध्य है। यदि दीक्षाप्राप्त साधक भी नित्य
यंत्रार्चन (चक्रार्चन) करेगा तो उसे महाराजराजेश्वरी की पूजा-उपासना के अनुकूल
तथा कुलाचार के अनुसार विभिन्न पूजन सामग्रियों की व्यवस्था के लिए पर्याप्त
धनराशि की आवश्यकता होगी तथा दीर्घकाल तक परिश्रमपूर्वक अनुष्ठान करना पड़ेगा तभी
उसे श्रीयंत्र पूजा के फलस्वरूप वास्तविक ज्ञान तथा वांछित सिद्धि प्राप्त हो
सकेगी।
।।श्रीयंत्र
का स्वरूप।।
श्रीयंत्र का तात्पर्य है
श्री विद्या (महात्रिपुरसुन्दरी) का यंत्र अथवा श्री का गृह जिसमें वह निवास करती
है। अतः उनके गृह का आश्रय लिए बिना उनसे मिलन नहीं हो सकता है। माँ भगवती की
उपासना हेतु मंत्रों तथा यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। शास्त्रों का अभिमत है
कि यदि गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र का निर्धारित संख्या में जप किया जाये तो उपासक
को उस मंत्र की अधिष्ठात्री देवी/देवता का साकार रूप दृष्टिगोचर हो जाता है।
श्रीयंत्र स्वयं में श्री महात्रिपुरसुन्दरी का विशिष्ट ज्यामितीय स्वरूप है जिसकी
रचना में बिन्दु,
त्रिकोणों, वृत्तों तथा चतुर्भुजों का प्रयोग
किया जाता है। शास्त्रों में यंत्र को देवी का शरीर तथा मंत्र को देवी की आत्मा
बताया गया है। अन्य महाविद्याओं के यंत्रों की तुलना में श्रीयंत्र को अत्यन्त
जटिल तथा सर्वश्रेष्ट माना गया है। इसीलिए श्रीयंत्र को यंत्रराज की उपमा से
विभूषित किया गया है। इस यंत्र में समस्त ब्रह्मान्ड की उत्पत्ति तथा विकास का अद्भुत
चित्रण करने के साथ ही इसका मानव शरीर तथा उसकी समस्त क्रियाओं के साथ सूक्ष्मतर
तादात्म्य स्थापित किया गया है। शास्त्र बताते हैं कि श्रीयंत्र ब्रहमान्डाकार भी
है तथा पिन्डाकार भी है। इस प्रकार समस्त ब्रह्मान्ड ही श्रीविद्या का गृह है।
श्री शिव माँ पार्वती से कहते हैं -
‘चक्रं
त्रिपुरसुन्दर्या-ब्रहमान्डाकार मीश्वरि।’
जबकि भावनोपनिषद् मानवदेह
को ही नवचक्रमय श्री यंत्र मानता है
‘नवक्रभयो देहः‘।
भगवत्पाद् शंकराचार्य जी द्वारा सौन्दर्य लहरी में श्रीयंत्र
का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है-
‘चतुर्भि श्रीकंठे शिवयुवतिभिः
पंचभिरपि
.....................................
त्रिरेखाभि सांर्ध-तव शरणकोणाः परिणताः’
श्रीयंत्र श्रीविद्या का ज्यामितीय स्वरूप है। सम्प्रदायभेद (हादि, कादि तथा
सादि), समयाचार (समयमत तथा कौलमत) पूजाक्रम तथा
गुरूपरम्पराओं के अनुसार श्री यंत्र की रचना में किंचित अन्तर पाया जाता है जिसका
संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है-
(1) सृष्टिक्रम के अनुसार
रचित श्रीयंत्र
सृष्टिक्रम के अनुसार रचित
श्रीयंत्र की उपासना समयमत के अनुयायी साधक करते है। श्री शंकराचार्य इसी मत के
अनुयायी थे। इस यंत्र में सबसे भीतरी वृत्त के अन्दर चारों तरफ 9-त्रिकोण होते
हैं। जिनमें से ऊर्ध्वमुखी 5-त्रिकोण शक्ति के द्योतक हैं जिनको ‘शिवयुवती’
कहा गया है तथा अधोमुखी 4-त्रिकोण शिव के द्योतक हैं जिनको ‘श्रीकंठ’ कहा गया है। यही 9-त्रिकोण
पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता स्थापित करते हैं तथा इन्हीं 9-त्रिकोणों को मिलाकर
वृत्त के अन्दर 43-त्रिकोण बन जाते हैं। ब्रह्मान्ड के सन्दर्भ में 5-शक्ति त्रिकोण
पंचभूत, पंचतन्मात्रा, पंचकर्मेन्द्रिय,
पंचज्ञानेन्द्रिय तथा पंचप्राण के द्योतक हैं जबकि शरीर के
सन्दर्भ में यही त्वक्, असृक, मांस,
मेद तथा अस्थि के द्योतक हैं। इसी प्रकार 4-शिवत्रिकोण ब्रह्मान्ड
के सन्दर्भ में मन, बुद्धि, चित्त तथा
अहंकार का निरूपण करते हैं तो शरीर के सन्दर्भ में मज्जा, शुक्र,
प्राण तथा जीव का निरूपण करते हैं। स्पष्ट है कि श्रीयंत्र के
सन्दर्भ में पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता का विवरण अत्यन्त दुरूह तथा विस्तृत है।
जिज्ञासु साधक को यह ज्ञान आगमग्रन्थों तथा श्रीगुरूदेव से प्राप्त कर लेना चाहिए।
इस सन्दर्भ में योगिनीहृदय तंत्र का बचन दृष्टव्य है-
‘त्रिपुरेशी महायंत्रं -पिन्डात्मक
मीश्वरि
......................................................
पिन्ड-ब्रह्मान्डयोज्ञानं-श्री चक्रस्य विशेषतः’
(2) संहारक्रम
के अनुसार रचित श्रीयंत्र
इस क्रम के अनुसार निर्मित
श्री यंत्र में 5-शक्ति त्रिकोण अधोमुखी तथा 4-शिवत्रिकोण ऊर्ध्वमुखी होते हैं। इस
यंत्र की पूजोपासना कौलमतानुयायी साधक करते हैं। जो सामान्यतया ग्रहस्थ साधक होते
हैं।
श्रीयंत्र के स्वरूप, श्रीयंत्र
की उपासना पद्धतियों तथा उसकी पूजा-उपासना से प्राप्त सुफलों का विस्तृत विवरण
त्रिपुरोपनिषद्, त्रिपुरातापिनी उपनिषद्, तंत्रराज तंत्र, रूद्रयामल तंत्र, भैरवयामल तंत्र, कामकला विलास तथा
ब्रह्मान्डपुराणान्तर्गत श्री ललितासहस्रनाम तथा त्रिशतीस्तव में दिया गया है।
।।श्रीयंत्र के 9-चक्रों का
विवरण।।
श्रीयंत्र स्थित 9-चक्रों के
विषय में ‘रूद्रयामल तंत्र’ में बताया
गया है -
‘बिन्दु-त्रिकोण, बसुकोण दशारयुग्म
मन्वस्र नागदल संयुत षोडशारम्
वृत्तत्रयंत्र धरणीसदन त्रयंच
श्री चक्रभेत दुदितं परदेवतायाः’’
इस प्रकार श्रीयंत्र में
निम्नलिखित 9-चक्र होते हैं -
(1) बिन्दु-सर्वानन्दमय
चक्र।
(2) त्रिकोण-सर्वसिद्धिप्रद
चक्र।
(3) आठत्रिकोण
(अष्टार)-सर्वरोगहर चक्र।
(4) आन्तरिक
10-त्रिकोण (अन्तर्दशार)-सर्वरक्षाकर चक्र।
(5) बाह्य 10-त्रिकोण (वहिर्दशार)-सर्वार्थसाधक चक्र।
(6) 14-त्रिकोण
(चतुर्दशार)-सर्वसौभाग्यदायक चक्र।
(7) 8-दलों
का कमल (अष्टदलपद्म)-सर्वसंक्षोभण चक्र।
(8) 16-दलों
का कमल (षोडशदल पद्म)-सर्वाशापरिपूरक चक्र।
(9) चतुरस्र
(भूपुर)-त्रैलोक्यमोहन चक्र।
श्रीयंत्र स्थित उपरोक्त 9-चक्रों के
दिव्य नामों से ही इसकी पूजोपासना से प्राप्त होने वाले सुफलों का परिचय मिल जाता
है।
आगम ग्रन्थों में
श्रीयंत्र के विषय में विस्तृत विवरण देते हुए बताया गया है-
‘चतुर्भि शिवचक्रैश्च, शक्तिचक्रैश्च पंचभिः
नवचक्रैश्च ससिद्धं-श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः’
(5-शक्तित्रिकोणों
तथा 4-शिवत्रिकोणों से युक्त श्रीयंत्र साक्षात् शिव जी का
ही शरीर है)
श्रीचक्र स्थित
शक्तिचक्रों तथा शिवचक्रों का विवरण देते हुए ब्रह्मान्डपुराण (श्री ललिता
त्रिशती) में बताया गया है कि -
‘त्रिकोण अष्टकोणं च-दशकोणद्वयं तथा
चतुर्दशारं चैतानि-शक्तिचक्राणि पंच च’
(त्रिकोण,
अष्टकोण, अन्तर्दशार, बहिर्दशार
तथा चतुर्दशार शक्तिचक्र हैं)
‘बिन्दुश्चाष्टदलं पद्मं-पद्मं
षोडशपत्रकम्
चतुरस्रं च चत्वारि-शिवचक्राण्यनुक्रमात्’
(बिन्दु,
आठदलों वाला कमल, सोलह दलोंवाला कमल तथा भूपुर
शिवचक्र हैं)
पुनश्च-
‘त्रिकोणरूपिणी शक्तिः-बिन्दुरूप
परशिवः
अविनाभाव सम्बद्धं-यो जानाति स चक्रवित्’
(वही साधक
ज्ञानी है जो यह जानता है कि श्रीयंत्र स्थित त्रिकोण ही शक्ति है तथा बिन्दु ही
शिव-स्वरूप है)
श्रीयंत्र को सृष्टि, स्थिति
तथा संहारचक्रात्मक भी माना गया है। इसके बिन्दु, त्रिकोण
तथा अष्टार को सृष्टिचक्रात्मक, अन्तर्दशार, वहिर्दशार तथा चतुर्दशार को स्थिति चक्रात्मक तथा अष्टदल, षोडशदल तथा भूपुर को संहारचक्रात्मक मानते हैं। इसीलिए जिस क्रम
(उपासनापद्धति) में श्रीयंत्र की पूजा बिन्दु से आरम्भ होकर भूपुर में समाप्त होती
है उस क्रम को सृष्टिक्रम कहते हैं तथा जिस क्रम में श्रीयंत्र की पूजा भूपुर से
आरम्भ होकर बिन्दु में समाप्त होती है उसे संहारक्रम कहा जता है। कौलमतानुयायी
ग्रहस्थ साधकों में इसी संहारक्रम से पूजा (नवावरणपूजा) करने की परम्परा है।
श्रीयंत्र के चक्रों में एक विशेष विधि तथा क्रम से विभिन्न वर्णाक्षर (स्वर तथा
व्यंजन) लिखे रहते हैं। यही मातृकाक्षर श्रीयंत्र की आत्मा तथा प्राण हैं जिनके
प्रभाव से श्रीयंत्र उपासना परमसिद्धिदायक बन जाती है।
।।श्रीयंत्र के वृत्तों तथा चतुरस्र की रचना।।
श्रीयंत्रान्तर्गत वृत्तों
की संख्या तथा चतुरस्र की रेखाओं के विषय में विभिन्न गुरूपरम्पराओं तथा
उपासनाक्रमों में मतभेद पाया जाता है। सामान्यतया चतुर्दशार के पश्चात् एक वृत्त
तथा अष्टदलकमल के पश्चात भी एक वृत्त बनाया जाता है। प्रमुख मतभेद षोडशदल कमल के
बाद बनाए जाने वाले वृत्तों की संख्या के बारे में पाया जाता है। कौलमतानुसार
षोडशदलों के शीर्ष से केवल एक ही वृत्त दिया जाता है जबकि अन्य गुरूपरम्पराओं में
इस वृत्त के बाद एक अतिरिक्त वृत्त (कुल 2-वृत्त) तो कहीं 2-अतिरिक्त वृत्त (कुल 3-वृत्त) दिए जाते हैं। इसी
प्रकार भूपुर की रेखाओं की संख्या के बारे में भी मतभेद पाया जाता है। सामान्यतया 3-रेखाओं तथा 4-द्वारों वाला चतुरस्र ही पाया जाता है।
कोई आचार्य 4-रेखाओं युक्त 4-द्वारों
वाला चतुरस्र भी बनाते हैं। कौलमतानुदायी भूपुर की बाहरी रेखा में अणिमादि 10-सिद्धियों, मध्यरेखा में ब्राह्मी आदि 8-मातृकाओं तथा अन्दर की रेखा में सर्वसंक्षोभिण्यादि 10-मुद्राशक्तियों अर्थात् कुल 28-शक्तियों की पूजा
करते हैं जबकि 4-रेखाओं वाले चतुरस्र को मानने वाले
इन्द्रादि 10-दिक्पालों का भी यहीं पर पूजन करते हैं। मतभेद
चाहे कुछ भी हो अपनी गुरूपरम्परा के अनुसार श्रीयंत्र का पूजन-अर्चन करने से साधक
को अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती ही है।
।।श्रीयंत्र उपासना में पिन्ड-व्रह्मान्ड की
ऐक्यता।।
श्रीविद्या के उपासक
श्रीयंत्र को मन का द्योतक मानते हैं। अद्वैत वेदान्ती श्रीचक्र को मन की सृष्टि
मानते हैं। श्रीचक्र को बनाने वाले बिन्दु तथा त्रिकोण आदि चक्र मन और उसकी
विभिन्न वृत्तियां ही हैं। यह अत्यन्त रहस्यमय कथन है जिसका विस्तार यहाँ पर नहीं किया जा सकता है। श्रीचक्र का प्रत्येक आवरण
(कुल-9 आवरण) मनुष्य की मानसिक दशा को निरूपण करता है तथा विभिन्न चक्रों में
पूजित शक्तियाँ भी मन की विभिन्न वृत्तियों का ही निरूपण करती हैं। मानव शरीर में
विद्यमान समस्त नाड़ी मन्डल, उनकी समस्त क्रियाओं, उनके द्वारा अनुभव किए जाने वाले सुख-दुख, मनुष्य की
समस्त आन्तरिक तथा बाह्य भावनाओं का श्रीचक्र के विभिन्न आवरणों की विभिन्न
शक्तियों के साथ विलक्षण सम्बन्ध स्थापित किया गया है। इस प्रकार की ऐक्यता का
संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है।
(1) बिन्दु चक्र
(महाबिन्दु) -
श्रीयंत्र में बिन्दुचक्र
ही प्रधानचक्र हैं। यहीं पर श्री कामेश्वर शिव के साथ श्री कामेश्वरी (माँ
त्रिपुरसुन्दरी) नित्य आनन्दमय अवस्था में विद्यमान रहती है। इनके पूजन से साधक को
परमानन्दरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है तथा सविकल्प समाधि सिद्ध हो जाती है।
इस चक्र की आवरण देवी केवल ‘परदेवता’ ही है।
(2) सर्वसिद्धिप्रद
चक्र (त्रिकोण) -
इस त्रिकोणचक्र के 3-कोणों को
कामरूप, पूर्णागिरि तथा जालन्धर पीठ माना जाता है तथा
मध्यबिन्दु में ओड्याण पीठ स्थित है। इन पीठों की अधिष्ठात्री देवियां कामेश्वरी,
बज्रेश्वरी तथा भगमालिनी हैं जो प्रकृति, महत्
तथा अहंकार की द्योतक है।
(3) सर्वरोगहर
चक्र (अष्टार) -
अष्टार के 8-त्रिकोणों
की अधिष्ठात्री देवियां वशिनी आदि 8-वाग्देवता हैं जो क्रमशः
शीत से तम तक की स्वामिनी है।
(4) सर्वरक्षाकरचक्र
(अन्तर्दशार) -
इस चक्र के 10-त्रिकोणों
की अधिष्ठात्री सर्वज्ञा आदि 10-देवियां है जो रेचक से मोहक
तक की स्वामिनी है।
(5) सर्वार्थसाधक
चक्र (वहिर्दशार) -
इस चक्र के 10-कोणों की
अधिष्ठात्री सर्वसिद्धिप्रदा आदि 10-देवियां है जो 10-प्राणों की स्वामिनी है।
(6) सर्वसौभाग्यदायक
चक्र (चतुर्दशार) -
इस चक्र के 14-त्रिकोणों
की अधिष्ठात्री सर्वसंक्षोभिणी आदि 14-देवियां हैं जो
अलम्बुषा से सुषुम्ना तक 14-नाडि़यों की स्वामिनी है।
(7) सर्वसंक्षोभण
चक्र (अष्टदल कमल) -
इस चक्र के 8-दलों की
अधिष्ठात्री अंनगकुसुमा आदि 8-शक्तियां हैं जो बचन से लेकर
उपेक्षा की बुद्धियों की स्वामिनी है।
(8) सर्वाशापरिपूरक
चक्र (16-दलों वाला कमल) -
इस चक्र के 16-कमलदलों
की अधिष्ठात्री कामाकर्षिणी आदि 16-शक्तियां हैं जो मन,
बुद्धि से लेकर सूक्ष्मशरीर तक की स्वामिनी है।
(9) चतुरस
चक्र (भुपूर) -
इस चक्र में 3 अथवा 4-रेखाऐं मानी जाती है। यदि 3-रेखाऐं मानी जायें तो इन
पर 10-मुद्राशक्तियां, 8-मातृकाऐं तथा 10-सिद्धियां स्थित हैं। यदि 4-रेखाऐं मानी जायें तो
इनमें इन्द्रादि 10-दिग्पाल भी सम्मिलित हो जाते हैं।
सर्वसंक्षोमिणी आदि 10-मुद्राशक्तियां 10-आधारों की द्योतक है। ब्राह्मी आदि 8-मातृकाऐं काम-क्रोधादि की द्योतक हैं। आणिमादि 10-सिद्धियां
9-रसों तथा भाग्य की द्योतक हैं।
इन्द्र आदि 10-दिक्पालों की पूजा का उद्देश्य साधक की रक्षा
करना तथा उसके समस्त बिघ्नों का निवारण करना होता है। श्री ललिता (पंचदशी) के
उपासक श्री यंत्र के 9-चक्रों में उपरोक्तानुसार नित्य
पूजन-अर्चन करते हैं। इसे नवावरणपूजा कहा जाता है। पूर्णाभिषेक के पश्चात्
महाषोडशी (महात्रिपुरसुन्दरी) के उपासकों के लिए नवावरण पूजा के अतिरिक्त पंचपंचिका
पूजा, षड्दर्शन विद्या, षडाधारपूजा तथा
आम्नायसमष्टि पूजा करने का भी निर्देश हैं। इस पूजा को करने से उपासक को यह ज्ञान
प्राप्त हो जाता है कि असंख्य देवी-देवता केवल एक पराशक्ति के ही बाहरीरूप हैं।
इसी प्रकार षडाम्नायों के 7-करोड़ महामंत्र भी परब्रह्म
स्वरूपिणी महाशक्ति का ही गुणगान करते हैं। वास्तव में श्रीचक्र पूजा का उद्देश्य
आत्मा का ब्रह्म के साथ एकता करने का निरंतर अभ्यास करने के साथ ही ‘तत्वमसि’ एवं ‘अहंब्रह्मास्मि’
की भावना दृढ़ करके द्वैत भावना को नष्ट करते हुए ब्रहमानन्द की
प्राप्ति करना होता है।
।।श्रीयंत्र दर्शन एवं पूजन का माहात्म्य।।
श्रीयंत्र श्री
महात्रिपुरसुन्दरी का जीता-जागता साकार स्वरूप ही है। रूद्रयामल तंत्र में
श्रीयंत्र दर्शन से प्राप्त होने वाले पुण्य तथा सुफलों का वर्णन करते हुए कहा गया
है -
‘सम्यक् शतक्रतून कृत्वा-यत्फलं
समवाप्नुयात्
तत्फलं लभते भक्त्या-कृत्वा श्रीचक्र दर्शनात्
महाषोडश दानानि .................................
सार्धत्रिकोटि तीर्थेषु-स्नात्वा यत्फल मश्नुते
तत्फलं लभते भक्त्या-कृत्वा श्रीचक्र दर्शनम्’
(महानयज्ञों
का आयोजन करके, नाना प्रकार के दान-पुण्य करके तथा करोड़ों
तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य तथा सुफल प्राप्त होते हैं वह केवल श्रीयंत्र
के दर्शन करने से ही प्राप्त हो जाते हैं।)
श्रीयंत्र का चरणामृत
(श्रीयंत्र के ऊपर अर्पितजल) पान करने से प्राप्त सुफलों का वर्णन करते हुए
शास्त्र कहते हैं-
‘गंगा पुष्कर नर्मदाच यमुना-गोदावरी
गोमती
..........................................................
तीर्थस्नान सहस्रकोटि फलदं-श्रीचक्र पादोदकं’
(गंगा,
यमुना, नर्मदा, गोदावरी,
गोमती तथा सरस्वती आदि पवित्रनदियों, पुष्कर,
गया, बद्रीनाथ, प्रयागराज,
काशी, द्वारिका तथा समुद्रसंगम आदि तीर्थों
में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उससे हजारों-करोड़ अधिक पुण्य
केवलमात्र श्रीयंत्र का चरणोदक पीने से प्राप्त हो जाता है।)
पुनश्च,
‘अकालमृत्यु हरणं-सर्वव्याधिविनाशनं
देवी पादोदकं पीत्वा-शिरसा धारयाम्यहं’।
(श्रीयंत्र
का चरणोदक अकालमृत्यु का हरण करता है तथा समस्त व्याधियों का नाश करता है। अतः इसे
पीना चाहिए तथा शिर में भी धारण करना चाहिए)
शास्त्र यह भी बताते हैं-
‘प्रथमं काय शुद्यंर्थ-द्वितीयं धर्मसंग्रहं
तृतीयं मोक्षप्राप्त्यर्थ एवं तीर्थं त्रिधापिवेत्’
(प्रत्येक
साधक को अपनी कायाशुद्धि के लिए, धर्मसंग्रह के लिए तथा
मोक्षप्राप्ति के लिए इस चरणामृत को 3-बार पीना चाहिए।)
शास्त्रों तथा
श्रीगुरूजनों द्वारा निर्देश दिया गया है कि श्री सत्गुरूओं द्वारा सुप्रतिष्ठित
तथा साधक द्वारा कुलद्रव्यों द्वारा कुलक्रमानुसार सुपूजित श्रीयंत्र श्री माँ का
नित्यजागृत शरीर की भांति हो जाता है। अतः कोई भी अदीक्षित व्यक्ति (शक्तिपात
रहित) जिसने विभिन्न न्यासों के अतिरिक्त ‘महाषोढा’ तथा ‘महाशक्ति’ न्यास का अभ्यास न किया हुआ हो, यदि अत्यन्त विनम्रभाव से तथा परमभक्तिपूर्वक भी, श्रीयंत्र
का दर्शन करता है तो उसकी आयु (उम्र) का हरण हो जाता है। यह भी श्रीपराम्वा की
इच्छा ही है कि वर्तमान समय में ऐसे सिद्ध श्रीयंत्रों के दर्शन प्राप्त हो पाना
स्वतः ही कठिन हो गया है।