Monday, 7 September 2015

10). श्री श्रीयंत्र

।।श्री श्रीयंत्र।।

।।श्रीयंत्र का स्वरूप (रचना), नवचक्रों का विवरण तथा श्रीयंत्र दर्शन की महिमा।।

श्रीयंत्र का विषय अत्यन्त जटिल तथा परमगहन है। जिस प्रकार एक नया तैराक जो सीमित आकार के तरणताल में तैरने का अभ्यस्त नहीं है वह किसी महासागर में तैरने का दुःस्साहस नहीं कर सकता उसी प्रकार मुझ जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति के लिए इस विषय पर कुछ भी लिखना आकाशकुसुम तोड़ने के समान ही है। जितना भी लिखा जा रहा है वह इस विषय के वास्तविक ज्ञान का करोड़वां अंश भी नहीं है।
श्रीयंत्र की उपासना श्रीविद्या उपासना की परमगोपनीय तथा सांकेतिक विधा (क्रिया) है। इसकी उपासना केवल उत्तमाधिकारी एवं सत्व-प्रधान मन वाला साधक ही कर सकता है। ऐसे गोपनीय विषयों का सर्वसाधारण के समक्ष प्रकटीकरण करना भी ‘‘कौलोपनिषद्’’ के अनुसार वर्जित है-
प्राकट्यं न कुर्यात्
कौल प्रतिष्ठा न कुर्यात्
शिष्याय वदेत्
प्रकाशात् सिद्धिहानिस्यात्
(उपासना सम्बन्धी गंभीर रहस्यों को सबके समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिए)
श्रीयंत्र में निहित अनेक रहस्यमय सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त पिन्डान्ड के अन्दर ब्रह्मान्डतथा ब्रह्मान्ड के अन्दर पिन्डान्डअर्थात् पिन्ड-ब्रहमान्ड की ऐक्यता से सम्बन्धित भी है। इस रहस्य को ब्रह्मनिष्ट गुरू से ही समझा जा सकता है। सामान्य व्यक्ति जो इस विषय को समझने में प्रयोग होने वाली शब्दावली से ही अपरिचित है वह कितने ही ग्रन्थ पढ़ले तब भी इसके तत्व को स्पर्श तक नहीं कर सकेगा। पिन्ड-ब्रह्मान्ड, आत्मतत्व-विद्यातत्व, शिवतत्व, वाम-दक्षिण मार्ग, त्रिपुटी, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, माता-मान-मेय, मेरू-कैलाश-भू-प्रस्तार, नाद-बिन्दु-कला, प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय, पंचभूत-पंचतन्मात्रा-पंचप्राण, परा-पश्यन्ती-मध्यमा-बैरवरी, शब्द सृष्टि, अर्थसृष्टि जैसे शब्दों में निहित अर्थों का ज्ञान होना श्रीयंत्र के विषय को समझने के लिए आवश्यक है।

श्रीयंत्र का विषय सैद्धान्तिक ज्ञान तथा तर्क का न होकर पूर्णतया ब्यवहारपरक, श्रमसाध्य, वित्तसाध्य तथा समयसाध्य है। यदि दीक्षाप्राप्त साधक भी नित्य यंत्रार्चन (चक्रार्चन) करेगा तो उसे महाराजराजेश्वरी की पूजा-उपासना के अनुकूल तथा कुलाचार के अनुसार विभिन्न पूजन सामग्रियों की व्यवस्था के लिए पर्याप्त धनराशि की आवश्यकता होगी तथा दीर्घकाल तक परिश्रमपूर्वक अनुष्ठान करना पड़ेगा तभी उसे श्रीयंत्र पूजा के फलस्वरूप वास्तविक ज्ञान तथा वांछित सिद्धि प्राप्त हो सकेगी।


।।श्रीयंत्र का स्वरूप।।

श्रीयंत्र का तात्पर्य है श्री विद्या (महात्रिपुरसुन्दरी) का यंत्र अथवा श्री का गृह जिसमें वह निवास करती है। अतः उनके गृह का आश्रय लिए बिना उनसे मिलन नहीं हो सकता है। माँ भगवती की उपासना हेतु मंत्रों तथा यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। शास्त्रों का अभिमत है कि यदि गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र का निर्धारित संख्या में जप किया जाये तो उपासक को उस मंत्र की अधिष्ठात्री देवी/देवता का साकार रूप दृष्टिगोचर हो जाता है। श्रीयंत्र स्वयं में श्री महात्रिपुरसुन्दरी का विशिष्ट ज्यामितीय स्वरूप है जिसकी रचना में बिन्दु, त्रिकोणों, वृत्तों तथा चतुर्भुजों का प्रयोग किया जाता है। शास्त्रों में यंत्र को देवी का शरीर तथा मंत्र को देवी की आत्मा बताया गया है। अन्य महाविद्याओं के यंत्रों की तुलना में श्रीयंत्र को अत्यन्त जटिल तथा सर्वश्रेष्ट माना गया है। इसीलिए श्रीयंत्र को यंत्रराज की उपमा से विभूषित किया गया है। इस यंत्र में समस्त ब्रह्मान्ड की उत्पत्ति तथा विकास का अद्भुत चित्रण करने के साथ ही इसका मानव शरीर तथा उसकी समस्त क्रियाओं के साथ सूक्ष्मतर तादात्म्य स्थापित किया गया है। शास्त्र बताते हैं कि श्रीयंत्र ब्रहमान्डाकार भी है तथा पिन्डाकार भी है। इस प्रकार समस्त ब्रह्मान्ड ही श्रीविद्या का गृह है। श्री शिव माँ पार्वती से कहते हैं -
चक्रं त्रिपुरसुन्दर्या-ब्रहमान्डाकार मीश्वरि।
जबकि भावनोपनिषद् मानवदेह को ही नवचक्रमय श्री यंत्र मानता है
नवक्रभयो देहः
भगवत्पाद्  शंकराचार्य जी द्वारा सौन्दर्य लहरी में श्रीयंत्र का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है-
चतुर्भि श्रीकंठे शिवयुवतिभिः पंचभिरपि
.....................................
त्रिरेखाभि सांर्ध-तव शरणकोणाः परिणताः
श्रीयंत्र श्रीविद्या का ज्यामितीय स्वरूप है। सम्प्रदायभेद (हादि, कादि तथा सादि), समयाचार (समयमत तथा कौलमत) पूजाक्रम तथा गुरूपरम्पराओं के अनुसार श्री यंत्र की रचना में किंचित अन्तर पाया जाता है जिसका संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है-

(1) सृष्टिक्रम के अनुसार रचित श्रीयंत्र
सृष्टिक्रम के अनुसार रचित श्रीयंत्र की उपासना समयमत के अनुयायी साधक करते है। श्री शंकराचार्य इसी मत के अनुयायी थे। इस यंत्र में सबसे भीतरी वृत्त के अन्दर चारों तरफ 9-त्रिकोण होते हैं। जिनमें से ऊर्ध्वमुखी 5-त्रिकोण शक्ति के द्योतक हैं जिनको शिवयुवतीकहा गया है तथा अधोमुखी 4-त्रिकोण शिव के द्योतक हैं जिनको श्रीकंठकहा गया है। यही 9-त्रिकोण पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता स्थापित करते हैं तथा इन्हीं 9-त्रिकोणों को मिलाकर वृत्त के अन्दर 43-त्रिकोण बन जाते हैं। ब्रह्मान्ड के सन्दर्भ में 5-शक्ति त्रिकोण पंचभूत, पंचतन्मात्रा, पंचकर्मेन्द्रिय, पंचज्ञानेन्द्रिय तथा पंचप्राण के द्योतक हैं जबकि शरीर के सन्दर्भ में यही त्वक्, असृक, मांस, मेद तथा अस्थि के द्योतक हैं। इसी प्रकार 4-शिवत्रिकोण ब्रह्मान्ड के सन्दर्भ में मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार का निरूपण करते हैं तो शरीर के सन्दर्भ में मज्जा, शुक्र, प्राण तथा जीव का निरूपण करते हैं। स्पष्ट है कि श्रीयंत्र के सन्दर्भ में पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता का विवरण अत्यन्त दुरूह तथा विस्तृत है। जिज्ञासु साधक को यह ज्ञान आगमग्रन्थों तथा श्रीगुरूदेव से प्राप्त कर लेना चाहिए। इस सन्दर्भ में योगिनीहृदय तंत्र का बचन दृष्टव्य है-
त्रिपुरेशी महायंत्रं -पिन्डात्मक मीश्वरि
......................................................
पिन्ड-ब्रह्मान्डयोज्ञानं-श्री चक्रस्य विशेषतः

(2) संहारक्रम के अनुसार रचित श्रीयंत्र
इस क्रम के अनुसार निर्मित श्री यंत्र में 5-शक्ति त्रिकोण अधोमुखी तथा 4-शिवत्रिकोण ऊर्ध्वमुखी होते हैं। इस यंत्र की पूजोपासना कौलमतानुयायी साधक करते हैं। जो सामान्यतया ग्रहस्थ साधक होते हैं।
श्रीयंत्र के स्वरूप, श्रीयंत्र की उपासना पद्धतियों तथा उसकी पूजा-उपासना से प्राप्त सुफलों का विस्तृत विवरण त्रिपुरोपनिषद्, त्रिपुरातापिनी उपनिषद्, तंत्रराज तंत्र, रूद्रयामल तंत्र, भैरवयामल तंत्र, कामकला विलास तथा ब्रह्मान्डपुराणान्तर्गत श्री ललितासहस्रनाम तथा त्रिशतीस्तव में दिया गया है।

।।श्रीयंत्र के 9-चक्रों का विवरण।।
श्रीयंत्र स्थित 9-चक्रों के विषय में रूद्रयामल तंत्रमें बताया गया है -
बिन्दु-त्रिकोण, बसुकोण दशारयुग्म
मन्वस्र नागदल संयुत षोडशारम्
वृत्तत्रयंत्र धरणीसदन त्रयंच
श्री चक्रभेत दुदितं परदेवतायाः’’

इस प्रकार श्रीयंत्र में निम्नलिखित 9-चक्र होते हैं -
(1) बिन्दु-सर्वानन्दमय चक्र।
(2) त्रिकोण-सर्वसिद्धिप्रद चक्र।
(3) आठत्रिकोण (अष्टार)-सर्वरोगहर चक्र।
(4) आन्तरिक 10-त्रिकोण (अन्तर्दशार)-सर्वरक्षाकर चक्र।
(5) बाह्य 10-त्रिकोण (वहिर्दशार)-सर्वार्थसाधक चक्र।
(6) 14-त्रिकोण (चतुर्दशार)-सर्वसौभाग्यदायक चक्र।
(7) 8-दलों का कमल (अष्टदलपद्म)-सर्वसंक्षोभण चक्र।
(8) 16-दलों का कमल (षोडशदल पद्म)-सर्वाशापरिपूरक चक्र।
(9) चतुरस्र (भूपुर)-त्रैलोक्यमोहन चक्र।
श्रीयंत्र स्थित उपरोक्त 9-चक्रों के दिव्य नामों से ही इसकी पूजोपासना से प्राप्त होने वाले सुफलों का परिचय मिल जाता है।
आगम ग्रन्थों में श्रीयंत्र के विषय में विस्तृत विवरण देते हुए बताया गया है-
चतुर्भि शिवचक्रैश्च, शक्तिचक्रैश्च पंचभिः
नवचक्रैश्च ससिद्धं-श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः
(5-शक्तित्रिकोणों तथा 4-शिवत्रिकोणों से युक्त श्रीयंत्र साक्षात् शिव जी का ही शरीर है)
श्रीचक्र स्थित शक्तिचक्रों तथा शिवचक्रों का विवरण देते हुए ब्रह्मान्डपुराण (श्री ललिता त्रिशती) में बताया गया है कि -
त्रिकोण अष्टकोणं च-दशकोणद्वयं तथा
चतुर्दशारं चैतानि-शक्तिचक्राणि पंच च
(त्रिकोण, अष्टकोण, अन्तर्दशार, बहिर्दशार तथा चतुर्दशार शक्तिचक्र हैं)
बिन्दुश्चाष्टदलं पद्मं-पद्मं षोडशपत्रकम्
चतुरस्रं च चत्वारि-शिवचक्राण्यनुक्रमात्
(बिन्दु, आठदलों वाला कमल, सोलह दलोंवाला कमल तथा भूपुर शिवचक्र हैं)
पुनश्च-
त्रिकोणरूपिणी शक्तिः-बिन्दुरूप परशिवः
अविनाभाव सम्बद्धं-यो जानाति स चक्रवित्
(वही साधक ज्ञानी है जो यह जानता है कि श्रीयंत्र स्थित त्रिकोण ही शक्ति है तथा बिन्दु ही शिव-स्वरूप है)
श्रीयंत्र को सृष्टि, स्थिति तथा संहारचक्रात्मक भी माना गया है। इसके बिन्दु, त्रिकोण तथा अष्टार को सृष्टिचक्रात्मक, अन्तर्दशार, वहिर्दशार तथा चतुर्दशार को स्थिति चक्रात्मक तथा अष्टदल, षोडशदल तथा भूपुर को संहारचक्रात्मक मानते हैं। इसीलिए जिस क्रम (उपासनापद्धति) में श्रीयंत्र की पूजा बिन्दु से आरम्भ होकर भूपुर में समाप्त होती है उस क्रम को सृष्टिक्रम कहते हैं तथा जिस क्रम में श्रीयंत्र की पूजा भूपुर से आरम्भ होकर बिन्दु में समाप्त होती है उसे संहारक्रम कहा जता है। कौलमतानुयायी ग्रहस्थ साधकों में इसी संहारक्रम से पूजा (नवावरणपूजा) करने की परम्परा है। श्रीयंत्र के चक्रों में एक विशेष विधि तथा क्रम से विभिन्न वर्णाक्षर (स्वर तथा व्यंजन) लिखे रहते हैं। यही मातृकाक्षर श्रीयंत्र की आत्मा तथा प्राण हैं जिनके प्रभाव से श्रीयंत्र उपासना परमसिद्धिदायक बन जाती है।


।।श्रीयंत्र के वृत्तों तथा चतुरस्र की रचना।।

श्रीयंत्रान्तर्गत वृत्तों की संख्या तथा चतुरस्र की रेखाओं के विषय में विभिन्न गुरूपरम्पराओं तथा उपासनाक्रमों में मतभेद पाया जाता है। सामान्यतया चतुर्दशार के पश्चात् एक वृत्त तथा अष्टदलकमल के पश्चात भी एक वृत्त बनाया जाता है। प्रमुख मतभेद षोडशदल कमल के बाद बनाए जाने वाले वृत्तों की संख्या के बारे में पाया जाता है। कौलमतानुसार षोडशदलों के शीर्ष से केवल एक ही वृत्त दिया जाता है जबकि अन्य गुरूपरम्पराओं में इस वृत्त के बाद एक अतिरिक्त वृत्त (कुल 2-वृत्त) तो कहीं 2-अतिरिक्त वृत्त (कुल 3-वृत्त) दिए जाते हैं। इसी प्रकार भूपुर की रेखाओं की संख्या के बारे में भी मतभेद पाया जाता है। सामान्यतया 3-रेखाओं तथा 4-द्वारों वाला चतुरस्र ही पाया जाता है। कोई आचार्य 4-रेखाओं युक्त 4-द्वारों वाला चतुरस्र भी बनाते हैं। कौलमतानुदायी भूपुर की बाहरी रेखा में अणिमादि 10-सिद्धियों, मध्यरेखा में ब्राह्मी आदि 8-मातृकाओं तथा अन्दर की रेखा में सर्वसंक्षोभिण्यादि 10-मुद्राशक्तियों अर्थात् कुल 28-शक्तियों की पूजा करते हैं जबकि 4-रेखाओं वाले चतुरस्र को मानने वाले इन्द्रादि 10-दिक्पालों का भी यहीं पर पूजन करते हैं। मतभेद चाहे कुछ भी हो अपनी गुरूपरम्परा के अनुसार श्रीयंत्र का पूजन-अर्चन करने से साधक को अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती ही है।


।।श्रीयंत्र उपासना में पिन्ड-व्रह्मान्ड की ऐक्यता।।

श्रीविद्या के उपासक श्रीयंत्र को मन का द्योतक मानते हैं। अद्वैत वेदान्ती श्रीचक्र को मन की सृष्टि मानते हैं। श्रीचक्र को बनाने वाले बिन्दु तथा त्रिकोण आदि चक्र मन और उसकी विभिन्न वृत्तियां ही हैं। यह अत्यन्त रहस्यमय कथन है जिसका विस्तार यहाँ पर नहीं किया जा सकता है। श्रीचक्र का प्रत्येक आवरण (कुल-9 आवरण) मनुष्य की मानसिक दशा को निरूपण करता है तथा विभिन्न चक्रों में पूजित शक्तियाँ भी मन की विभिन्न वृत्तियों का ही निरूपण करती हैं। मानव शरीर में विद्यमान समस्त नाड़ी मन्डल, उनकी समस्त क्रियाओं, उनके द्वारा अनुभव किए जाने वाले सुख-दुख, मनुष्य की समस्त आन्तरिक तथा बाह्य भावनाओं का श्रीचक्र के विभिन्न आवरणों की विभिन्न शक्तियों के साथ विलक्षण सम्बन्ध स्थापित किया गया है। इस प्रकार की ऐक्यता का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है।

(1) बिन्दु चक्र (महाबिन्दु) -
श्रीयंत्र में बिन्दुचक्र ही प्रधानचक्र हैं। यहीं पर श्री कामेश्वर शिव के साथ श्री कामेश्वरी (माँ त्रिपुरसुन्दरी) नित्य आनन्दमय अवस्था में विद्यमान रहती है। इनके पूजन से साधक को परमानन्दरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है तथा सविकल्प समाधि सिद्ध हो जाती है। इस चक्र की आवरण देवी केवल परदेवताही है।
(2) सर्वसिद्धिप्रद चक्र (त्रिकोण) -
इस त्रिकोणचक्र के 3-कोणों को कामरूप, पूर्णागिरि तथा जालन्धर पीठ माना जाता है तथा मध्यबिन्दु में ओड्याण पीठ स्थित है। इन पीठों की अधिष्ठात्री देवियां कामेश्वरी, बज्रेश्वरी तथा भगमालिनी हैं जो प्रकृति, महत् तथा अहंकार की द्योतक है।
 (3) सर्वरोगहर चक्र (अष्टार) -
अष्टार के 8-त्रिकोणों की अधिष्ठात्री देवियां वशिनी आदि 8-वाग्देवता हैं जो क्रमशः शीत से तम तक की स्वामिनी है।
 (4) सर्वरक्षाकरचक्र (अन्तर्दशार) -
इस चक्र के 10-त्रिकोणों की अधिष्ठात्री सर्वज्ञा आदि 10-देवियां है जो रेचक से मोहक तक की स्वामिनी है।
(5) सर्वार्थसाधक चक्र (वहिर्दशार) -
इस चक्र के 10-कोणों की अधिष्ठात्री सर्वसिद्धिप्रदा आदि 10-देवियां है जो 10-प्राणों की स्वामिनी है।
(6) सर्वसौभाग्यदायक चक्र (चतुर्दशार) -
इस चक्र के 14-त्रिकोणों की अधिष्ठात्री सर्वसंक्षोभिणी आदि 14-देवियां हैं जो अलम्बुषा से सुषुम्ना तक 14-नाडि़यों की स्वामिनी है।
(7) सर्वसंक्षोभण चक्र (अष्टदल कमल) -
इस चक्र के 8-दलों की अधिष्ठात्री अंनगकुसुमा आदि 8-शक्तियां हैं जो बचन से लेकर उपेक्षा की बुद्धियों की स्वामिनी है।
(8) सर्वाशापरिपूरक चक्र (16-दलों वाला कमल) -
इस चक्र के 16-कमलदलों की अधिष्ठात्री कामाकर्षिणी आदि 16-शक्तियां हैं जो मन, बुद्धि से लेकर सूक्ष्मशरीर तक की स्वामिनी है।
(9) चतुरस चक्र (भुपूर) -
इस चक्र में 3 अथवा 4-रेखाऐं मानी जाती है। यदि 3-रेखाऐं मानी जायें तो इन पर 10-मुद्राशक्तियां, 8-मातृकाऐं तथा 10-सिद्धियां स्थित हैं। यदि 4-रेखाऐं मानी जायें तो इनमें इन्द्रादि 10-दिग्पाल भी सम्मिलित हो जाते हैं। सर्वसंक्षोमिणी आदि 10-मुद्राशक्तियां 10-आधारों की द्योतक है। ब्राह्मी आदि 8-मातृकाऐं काम-क्रोधादि की द्योतक हैं। आणिमादि 10-सिद्धियां 9-रसों तथा भाग्य की द्योतक हैं। इन्द्र आदि 10-दिक्पालों की पूजा का उद्देश्य साधक की रक्षा करना तथा उसके समस्त बिघ्नों का निवारण करना होता है। श्री ललिता (पंचदशी) के उपासक श्री यंत्र के 9-चक्रों में उपरोक्तानुसार नित्य पूजन-अर्चन करते हैं। इसे नवावरणपूजा कहा जाता है। पूर्णाभिषेक के पश्चात् महाषोडशी (महात्रिपुरसुन्दरी) के उपासकों के लिए नवावरण पूजा के अतिरिक्त पंचपंचिका पूजा, षड्दर्शन विद्या, षडाधारपूजा तथा आम्नायसमष्टि पूजा करने का भी निर्देश हैं। इस पूजा को करने से उपासक को यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि असंख्य देवी-देवता केवल एक पराशक्ति के ही बाहरीरूप हैं। इसी प्रकार षडाम्नायों के 7-करोड़ महामंत्र भी परब्रह्म स्वरूपिणी महाशक्ति का ही गुणगान करते हैं। वास्तव में श्रीचक्र पूजा का उद्देश्य आत्मा का ब्रह्म के साथ एकता करने का निरंतर अभ्यास करने के साथ ही तत्वमसिएवं अहंब्रह्मास्मिकी भावना दृढ़ करके द्वैत भावना को नष्ट करते हुए ब्रहमानन्द की प्राप्ति करना होता है।


।।श्रीयंत्र दर्शन एवं पूजन का माहात्म्य।।

श्रीयंत्र श्री महात्रिपुरसुन्दरी का जीता-जागता साकार स्वरूप ही है। रूद्रयामल तंत्र में श्रीयंत्र दर्शन से प्राप्त होने वाले पुण्य तथा सुफलों का वर्णन करते हुए कहा गया है -
सम्यक् शतक्रतून कृत्वा-यत्फलं समवाप्नुयात्
तत्फलं लभते भक्त्या-कृत्वा श्रीचक्र दर्शनात्
महाषोडश दानानि .................................
सार्धत्रिकोटि तीर्थेषु-स्नात्वा यत्फल मश्नुते
तत्फलं लभते भक्त्या-कृत्वा श्रीचक्र दर्शनम्
(महानयज्ञों का आयोजन करके, नाना प्रकार के दान-पुण्य करके तथा करोड़ों तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य तथा सुफल प्राप्त होते हैं वह केवल श्रीयंत्र के दर्शन करने से ही प्राप्त हो जाते हैं।)
श्रीयंत्र का चरणामृत (श्रीयंत्र के ऊपर अर्पितजल) पान करने से प्राप्त सुफलों का वर्णन करते हुए शास्त्र कहते हैं-
गंगा पुष्कर नर्मदाच यमुना-गोदावरी गोमती
..........................................................
तीर्थस्नान सहस्रकोटि फलदं-श्रीचक्र पादोदकं
(गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, गोमती तथा सरस्वती आदि पवित्रनदियों, पुष्कर, गया, बद्रीनाथ, प्रयागराज, काशी, द्वारिका तथा समुद्रसंगम आदि तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उससे हजारों-करोड़ अधिक पुण्य केवलमात्र श्रीयंत्र का चरणोदक पीने से प्राप्त हो जाता है।)

पुनश्च,
अकालमृत्यु हरणं-सर्वव्याधिविनाशनं
देवी पादोदकं पीत्वा-शिरसा धारयाम्यहं
(श्रीयंत्र का चरणोदक अकालमृत्यु का हरण करता है तथा समस्त व्याधियों का नाश करता है। अतः इसे पीना चाहिए तथा शिर में भी धारण करना चाहिए)
शास्त्र यह भी बताते हैं-
प्रथमं काय शुद्यंर्थ-द्वितीयं धर्मसंग्रहं
तृतीयं मोक्षप्राप्त्यर्थ एवं तीर्थं त्रिधापिवेत्
(प्रत्येक साधक को अपनी कायाशुद्धि के लिए, धर्मसंग्रह के लिए तथा मोक्षप्राप्ति के लिए इस चरणामृत को 3-बार पीना चाहिए।)
शास्त्रों तथा श्रीगुरूजनों द्वारा निर्देश दिया गया है कि श्री सत्गुरूओं द्वारा सुप्रतिष्ठित तथा साधक द्वारा कुलद्रव्यों द्वारा कुलक्रमानुसार सुपूजित श्रीयंत्र श्री माँ का नित्यजागृत शरीर की भांति हो जाता है। अतः कोई भी अदीक्षित व्यक्ति (शक्तिपात रहित) जिसने विभिन्न न्यासों के अतिरिक्त महाषोढातथा महाशक्तिन्यास का अभ्यास न किया हुआ हो, यदि अत्यन्त विनम्रभाव से तथा परमभक्तिपूर्वक भी, श्रीयंत्र का दर्शन करता है तो उसकी आयु (उम्र) का हरण हो जाता है। यह भी श्रीपराम्वा की इच्छा ही है कि वर्तमान समय में ऐसे सिद्ध श्रीयंत्रों के दर्शन प्राप्त हो पाना स्वतः ही कठिन हो गया है।


Wednesday, 6 May 2015

9 . ।।षट्चक्र विज्ञान।।

।।षट्चक्र विज्ञान।।

धर्मशास्त्रों में भगवत् प्राप्ति (आत्मसाक्षात्कार) हेतु जिन विभिन्न योग पद्धतियों (उपासना विधियों) का उल्लेख किया गया है उनमें से कुन्डलिनीयोग को सर्वश्रेष्ट तथा गुरूमुखगम्य माना गया है।  इस साधना का षट्चक्र साधना के साथ अटूट सम्बन्ध है। जागृत कुन्डलिनी-शक्ति सुषुम्ना विवर में स्थित इन्हीं षट्चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार स्थित परमशिव से मिलने जाती है।

षट्चक्रों की साधना प्रत्येक साधक के आत्मसाक्षात्कार के लिए परम वरणीय है। हमारे उपनिषदों तथा पुराणों के अतिरिक्त भवगत्पाद शंकराचार्य, आगमाचार्य पूर्णानन्दनाथ तथा जौन बुडूफ द्वारा भी षट्चक्रसाधना विषय पर सारगर्भित ग्रन्थ लिखे गए हैं। योगचूड़ामणि उपनिषद्, ध्यानबिन्दु उपनिषद्, योगशिखोपनिषद्, हंसोपनिषद्, योगकुन्डली उपनिषद्, षट्चक्र-साधना विषयक परम उत्कृष्ट ग्रन्थ हैं। पुराणों में देवीभागवत् महापुराण, लिंगपुराण तथा अग्निपुराण प्रसिद्ध हैं। श्री शंकरांचार्य की सौन्दर्यलहरी तथा श्री पूर्णानन्दनाथ केषट्चक्रनिरूपणनामक ग्रन्थ में भी इस विषय पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। सर जौन वूडूफ द्वारा अपने ग्रन्थसर्पेन्टपावरमें भी षट्चक्रों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। षट्चक्र-विज्ञान को समझने के लिए उससे सम्बन्धित विभिन्न अंगों के आध्यात्मिक रहस्य को समझना आवश्यक होता है। ये अंग हैं:-

(1) मेरूदण्ड में चक्र की स्थिति (2) चक्र के कमल का रंग (3) कमलदलों की संख्या (4) दलों के वर्णाक्षर (5) चक्र के यंत्र का आकार (6) यंत्र का रंग (7) यंत्र का बीज (8) बीज का वाहन (9) यंत्र के देवी-देवता (10) यंत्र से सम्बन्धित तत्व (11) चक्र के ध्यान का फल।
प्रत्येक चक्र से सम्बन्धित विवरण दिया जा रहा है



(1) मूलाधार-चक्र
इस चक्र का स्थान लिंग और गुदा के मध्यकन्दभाग में है। चक्र का कमल रक्त वर्णी हैं इसके 4-दलों पर वं शं षं सं अक्षर हैं। चक्र के यंत्र का आकार चतुष्कोण (चतुर्भज) है। यंत्र का रंग नीला तथा बीज लं है। बीज का वाहन ऐरावत हाथी है। यंत्र के देवता तथा शक्ति ब्रह्मा और डाकिनी है। चक्र का यंत्र पृथ्वी तत्व का द्योतक है। इस चक्र के ध्यान से वाचासिद्धि, दीर्घायु तथा कार्यदक्षता प्राप्त होती है।

(2) स्वाधिष्ठान-चक्र
इस चक्र का स्थान लिंगमूल के सामने है। कमलदलों की संख्या-6 है। जिन पर बं से लं तक अक्षर हैं। इस चक्र के यंत्र का आकार अर्धचन्द्राकार है। यंत्र का रंग शुभ्र है। बीज वं है जिसका वाहन मकर है। यंत्र के देवता तथा शक्ति विष्णु और राकिनी है। यंत्र जल तत्व का घोतक है। इस चक्र के ध्यान से स्रजन एवं पालन करने की सामर्थ्य   हो जाती है। साधक में अहंकार-शून्यता के साथ ही गद्य-पद्य रचने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।

(3) मणिपूर-चक्र
चक्र का स्थान नाभि के पीछे है। कमलदलों की संख्या 10 है। जिन पर डं से फं तक अक्षर हैं। दलों का रंग नीला है। चक्र के यंत्र का आकार त्रिकोणात्मक है। यंत्र उगते हुए सूर्य के समान रक्तवर्णी है।  यंत्र का बीज रं है तथा वाहन मेष है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः रूद्र तथा लाकिनी है। यह यंत्र अग्नितत्व का घोतक है। इस चक्र के ध्यान से सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है तथा साधक में पालन एवं संहार की क्षमता उत्पन्न होती है।

(4) अनाहत-चक्र
यह चक्र हृदय के सामने स्थित है। इसके कमलदलों का रंग लाल है। कमलदलों की संख्या 12 है जिनपर कं से ठं  तक 12 अक्षर है। चक्र का यंत्र षट्कोण है तथा धूम्रवर्ण का है। यंत्र का बीज यं है जिसका वाहन मृग है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः ईशान तथा काकिनी है। यह यंत्र वायुतत्व का द्योतक है। इसके ध्यान से व्यक्ति सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। साधक में परकाया प्रवेश करने की क्षमता तथा वृहस्पति के समान विद्वता प्राप्त हो जाती हैं।

(5) विशुद्धि-चक्र
इस चक्र की स्थिति कंठ के सामने है। कमल दलों का वर्ण धूम्र तथा संख्या 16 है जिन पर अं से अः तक अक्षर अंकित है। इस चक्र का यंत्र पूर्ण चन्द्राकार है। यंत्र का बीज हं है। जिसका वाहन हाथी है। यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः सदाशिव तथा शाकिनी हैं। यह यंत्र आकाशतत्व का द्योतक है। चक्र के ध्यान से साधक नीरोग, दीर्घजीवी, त्रिकालदर्शी तथा समस्त लोकों का कल्याण कर सकता है।

(6) आज्ञा-चक्र
यह चक्र भ्रूमध्य में स्थित है। इसके कमल दल 2 है जिनका वर्ण श्वेत है। इन दलों पर हं तथा क्षं अंकित है। इस चक्र का यंत्र अर्धनारीश्वर का लिंग (इतर लिंग) है जो विद्युत की चमक के समान प्रकाशमान है। यंत्र का बीज प्रणव है जिसका वाहन नाद हैं।  यंत्र के देवता तथा शक्ति क्रमशः अर्धनारीश्वर तथा हाकिनी हैं। यह यंत्र महतत्व का द्योतक हैं। इसके ध्यान से साधक सर्वदर्शी, सर्वज्ञ तथा परोपकारी बन जाता है तथा उसमें परकाया प्रवेश करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।

(7) सहस्रार-चक्र
मेरूदण्ड के सबसे ऊपरी सिरे (स्थान) पर एक हजार कमलदलों वाला श्वेतवर्णी सहस्रारचक्र स्थित है। स्वरों तथा व्यजनों से क्ष तक (संख्या-50) को 20 बार लिखकर इसे पूर्ण किया गया है। इस चक्र में परमशिव विराजमान रहते हैं जिनसे मिलने के लिए मूलाधारस्थित कुन्डलिनी-शक्ति सदैव आतुर रहती है। मूलाधार से कुण्डलिनी का उत्थापन करके षट्चक्रों का भेदन करते हुए सहस्रार में विद्यमान परमशिव से मिलाना ही शक्ति उपासक का चरम लक्ष्य होता है। इस कमल की कर्णिका में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल विद्यमान रहता है, इस मण्डल के मध्य में त्रिकोण है जिसके मध्य में शून्य (बिन्दु) अवस्थित हैं। यहॉं पहुँचकर साधक को जीवात्मा तथा परमात्मा का अभेदज्ञान प्राप्त हो जाता है। यही शक्ति साधना का अन्तिम सोपान है।

उपरोक्त विवरणषट्चक्र निरूपणनामक ग्रन्थ पर आधारित है। प्राचीन ग्रन्थों में मूलाधार से सहस्रार तक के देवी-देवता क्रमशः, गणेश-सिद्धि, बुद्धि, ब्रह्मा-सरस्वती, विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, जीव-प्राणशक्ति तथा आज्ञा में गुरू तथा ज्ञान शक्ति है।

मेरूदण्ड में स्थित विभिन्न चक्रों के सम्बन्ध में जो विवरण दिया गया है उससे जिज्ञासु व्यक्ति के मन में सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है क्योंकि यदि मानव शरीर की चीरफाड़ तथा मेरूदण्ड की सूक्ष्म जॉंच-पड़ताल की जायेगी तो विभिन्न चक्रों के स्थानों पर कमलदल, दलों पर लिखे अक्षर तथा हाथी, मकर, भेड़ आदि पशु भी नहीं दिखाई देंगे। वास्तविकता यह है कि योग का यह विषय अत्यन्त रहस्यमय है जिसकी थाह केवल उत्कट योग-साधना से अर्जित विशुद्ध ज्ञानचक्षुओं से ही पाई जा सकती है। सामान्य व्यक्तियों के लिए जो विषय अविश्वसनीय है वही योगी-साधक के लिए योगक्षेम का कारण बन जाता है क्योंकि कुण्डलिनीशक्ति-जागरण तथा षट्चक्रों का रहस्य समझे बिना कोई भी सच्चा योगी नहीं बन सकता है।
सत्गुरूओं द्वारा बताया गया है कि षट्चक्रों के सम्बन्ध में दिया गया विवरण विभिन्न विज्ञानों यथा शरीर विज्ञान, रसायन विज्ञान, तत्वविज्ञान तथा ध्यान विज्ञान की क्रियाओं तथा प्राप्त परिणामों पर आधारित है जिनकी सत्यता पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता है। विभिन्न चक्रों के सम्बन्ध में कुछ कियाओं के परिणाम इस प्रकार है -

() चक्रों के कमलदल प्रतीकात्मक है - शरीर-विज्ञानी चक्रों को 'प्लेक्सस' कहते हैं। जिन भागों से विभिन्न नाड़ीपुंज निकलते हैं उन्ही स्थानों पर षट्चक्रों की स्थिति भी है। अतः षट्चक्रों के चित्रों में कमलदलों के अगले भाग से निकले हुए नाड़ी समूहों को दिखाया जाता है। कहा जा सकता है कि योगशास्त्र के कमल-दल ही शरीरशास्त्र के नाड़ीपुंज (प्लेक्सस) हैं।

() कमलदलों के विभिन्न रंग - मानवरक्त में विभिन्न तत्वों (पृथ्वीतत्व से आकाशतत्व तक) के मिश्रण से जो नया रंग उत्पन्न होता है वही रंग उस तत्वस्थान स्थित कमलदल का माना जाता है। जैसे रक्त में मिटृी मिलाने से उसका रंग मटमैला लगता है। मणिपूरक चक्र अग्नितत्व का द्योतक है। रक्त को आग में गरम करने पर उसका रंग, हल्का नीला हो जाता है। अतः इस चक्र के कमलदलों का रंग भी हल्कानीला माना गया है। इसी प्रकार अन्य चक्रों पर भी यही प्रक्रिया लागू होती है तथा वैसे ही रंगो के कमलदल भी मान लिए गए हैं।

() चक्रों के यंत्र (त्रिकोण, चतुष्कोण आदि) - विभिन्न यंत्रो के आकार उस चक्र से सम्बन्धित नाडि़यों पर वायु के आघात से बनते हैं। अर्थात प्रत्येक चक्र पर विद्यमान तत्व के स्थान पर हवा के दबाव से नाडि़यां जो आकार धारण कर लेती हैं वही आकार उस चक्र का यंत्र माना गया है। उदाहरणार्थ मणिपूरचक्र अग्नितत्व का द्योतक है। जलती हुई आग पर वायु का धक्का लाने से उसका रूप त्रिकोणाकार हो जाता है जिसका शीर्ष (मुख) ऊपर की तरफ होता है। इसी तरह अन्य चक्रों पर भी समझना चाहिए।

() बीजों का वाहन-  जिन चक्रों पर वायु की गति जिन पशुओं की गति के समान पाई जाती है उस चक्र पर उसी पशु को वाहन मान लिया गया हैं। उदाहरणार्थ मूलाधार में पृथ्वी तत्व के भार के कारण वायु की गति धीमी रहती है तो उसकी तुलना हाथी की गति से की गई है। अनाहत चक्र में वायु तत्व विद्यमान हैं। वायुतत्व में वायु की गति मिल जाने से वहॉं पर वायु की गति हिरन की तरह तीव्रता से उछाल मारती सी प्रतीत होती है।


इसी प्रकार कमलदलों के अक्षरों, यंत्रो के तत्वों तथा तत्वों के बीजों के सम्बन्ध में भी समझा जा सकता है। विस्तारभय से यहॉं पर उनका वर्णन नहीं किया गया है। षट्चक्रों का यह विषय अत्यन्त विस्तृत है जिसका सम्यक ज्ञान समुचित योगाभ्यास से ही प्राप्त हो सकता हैं। षट्चक्र एक योगी के लिएमील का पत्थर' (माइलस्टोन) की तरह होते हैं जहॉं पर पहुँचकर वह आश्वस्त हो जाता है कि उसने अबतक मंजिल की तरफ कितनी दूरी तय करली है तथा कितनी दूरी तय करनी शेष रह गई हैं। साधक का यह क्रम जन्म- जन्मान्तरों तक तब तक चलता रहता है जब तक वह सहस्रार मेंकुण्डलिनीका  ‘शिवके साथ संयोग नहीं करा देता।