Saturday, 8 January 2022

! आत्म-निवेदन !

 

! आत्म-निवेदन !

 

यह आत्म-निवेदन मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय ही नहीं वरन महानसन्तों के दिव्य-सानिन्ध्य में बिताये गए बहुमूल्य क्षणों से जुड़ी हुई मधुर-स्मृतियों तथा प्रेरक प्रसंगों का संक्षिप्त संकलन भी है जो आज तक मेरे स्मृति-पटल पर पूर्ववत् अंकित है तथा मुझे कर्तव्य-मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देते रहते हैं।

 

मैं एक मध्यम-वर्गीय कुमाऊॅंनी ब्रांह्मण परिवार में पैदा हुआ था। सुविधाओं तथा मार्गदर्शन के अभाव के बावजूद मैंने विद्याध्ययन पूर्ण किया तथा ‘तकनीकी प्रशिक्षणप्राप्त किया। मैंने विभिन्न शासकीय तथा अशासकीय विभागों में ससम्मान सेवा प्रदान की। जीवन के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचकर आज जब मैं आत्म-विश्लेषण करता हूं तो यह संतुष्टि होती है कि मुझे इस जन्म में श्री गुरूदेव की प्राप्ति हुई तथा अपने वास्तविक स्वरूप का आभास हुआ। मैंने मोक्षधाम तक पहुंचने वाले आध्यात्मिक महापथ पर कुछ कदम चलने का प्रयास किया है। विश्वास है कि आगामी जन्मों में अवशेष यात्रा पूर्ण करके मैं महाप्रकाश में विलीन हो जाऊॅंगा।

 

मेरा जन्म उत्तराखण्ड प्रदेशान्तर्गत कुमायॅं मण्डल के अल्मोड़ा शहर से 15 कि0मी0 पैदल दूरी पर स्थित ‘सैजनामक गॉंव में सन् 1941 में हुआ था। मेरे पूज्य पिता श्री गायत्री के उपासक, पुराणों के कथावाचक, धार्मिक कर्मकाण्डों में निष्णात तथा ज्योतिषी भी थे। मेरी मॉं निर्भीक, कर्मठ तथा त्याग-तपस्या की प्रतिमूर्ति थी। पूज्य ताऊ तथा तई जी ने भी अत्यन्त प्यार-दुलार के साथ हमारा पालन-पोषण किया था। दोनों ही हम भाई-बहिनों को श्रेष्ट आचार-व्यवहार करने तथा अनुशासित जीवन बिताने के लिए प्रेरित किया करते थे। मेरा एक पैतृक मक्कान सेलातोक में भी था जो गांव से लगभग 04 कि0मी0 पैदल दूरी पर सघन बन-क्षेत्र में स्थित था। इस मक्कान के पूर्व में लोकदेवता ‘ऐड़ीतथा पश्चिम में ‘गोलूदेवता का मन्दिर है। दोनों ही मन्दिर लकड़ी तथा पत्थर से निर्मित थे जिनकी ऊॅंचाई बहुत कम थी। दीवारों को मिट्टी के गारे (प्लास्टर) से पोत दिया गया था एवं फर्श में मिट्टी फैला, दी गई थी। इनमें कोई दरवाजा भी नहीं था। इन मन्दिरों के अन्दर देवी-देवताओं की कोई मूर्ति स्थापित नहीं की गई थी। मूर्तियों के स्थान पर लगभग 1-2 किलोग्राम के तीन ठोस पत्थर (डांसी पत्थर) लोहे के त्रिशूल, फावड़े, दीपक तथा चिमटे भूमि में गाढ़कर इन्हीं को देवी-देवताओं का नाम दे दिया गया था। अरूप होते हुए भी मेरे लिए ये सभी कुलदेवता, श्री हनुमान, मॉं दुर्गा तथा शिव जी के ही प्रतीक तथा प्रतिरूप थे तथा इनका पूजन-अर्चन करते समय मन में यही भावना विद्यमान रहती थी।

 

मुझे याद है कि विभिन्न पर्वों तथा त्यौहारों के दिनों में मेरी मॉं एक डलिया में अनेक प्रकार के फूलों को भरकर मुझे देती थी तथा एक सफेद धोती पहनाकर इन मन्दिरों में पूजा के लिए भेज देती थी। मुझे पूजा-पाठ का कोई विधि-विधान पता नहीं था। अतः मॉं के बताए अनुसार ही मन्दिर के कच्चे फर्श में पत्थर का आसन बनाकर तथा कोने में तेल का दीपक जलाकर मैं इन पत्थरों तथा छोटे हथियारों के ऊपर ‘हरेले के पौधेदीपावली के चावल (च्यूडे़) तथा मकर संक्रान्ति के पकवान चढ़ा दिया करता था। अन्त में श्री हनुमान चालीसा का पाठ करके आरती कर देता था। जीवन के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचकर आज भी मेरे स्मृति-पटल पर बचपन के ऐसे सभी क्रिया-कलाप चमकते अक्षरों से अंकित है। आज मुझे यह भी विश्वास हो गया है कि इस प्रकार की श्रद्धायुक्त भावना-प्रधान उपासना का महत्व आगम शास्त्रों द्वारा भी प्रतिपादित किया गया है-

‘‘न काष्ठे विद्यते देवो-न पाषाणे न मृण्मयी

भावो हि विद्यते देवो-तस्मात् भावस्तु कारणम्’’

(भाव चूड़ामणि)

(देवी-देवताओं का निवास लकड़ी, पत्थर तथा मूर्तियों में नहीं होता। मनुष्य की भावना में ही देवता विद्यमान रहते हैं।)

 

वर्तमान में सेतालोक स्थित मक्कान क्षतिग्रस्त हो चुका है तथा उपजाऊ खेतों में विभिन्न प्रजातियों (बाज, चीड़, काफल) के बृक्ष उग गए हैं। आने वाली पीढ़ियों के लिए तो इस  ‘सैलातोकको खोजना भी कठिन हो जायेगा। जब उस क्षेत्र का कोई चरवाहा ‘सिलंगहोतु हुए ‘जुकाणीएवं ‘नौलीधारपहुंचकर पूर्व की तरफ देखेगा तो उसे गघेरे के उस पार घाटी में ‘सेलातोक वाला क्षेत्र दिखाई देगा जिसके चारों तरफ पत्थरों की सीमा-दीवार निर्मित है।

 

बचपन की ऐसी घटनाऐं तथा प्रसंग मेरे स्मृतिपटल पर आज भी स्पष्ट रूप से अंकित है जिन्होंने मुझे भक्ति-मार्ग तथा मंत्र-विद्या की तरफ प्रेरित किया था। जब मैं 11-12 वर्ष  का था तो गांव की प्राइमरी पाठशाला में पढ़ता था। उन दिनों सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की जनता हेतु डाक, तार एवं दूरभाष सम्बन्धी त्वरित व्यवस्थाऐं नहीं थी। लगभग 20-25 ग्रामों की जनता के पत्र, मनीआर्डर तथा अन्य डाक-सामग्रियों के वितरण हेतु एक ‘पोस्टमैननियुक्त रहता था जो दिनभर गावों में डाक-सामग्रियों का वितरण करके रात्रि-विश्राम किसी गांव में ही किया करता था। उन दिनों हमारे क्षेत्र का ‘पोस्टमैनरात्रि-विश्राम हमारे घर में करता था। उनके भारी-भरकम ‘वाटरप्रूफझोले में विभिन्न डाक-सामग्रियों के अतिरिक्त ‘कल्याणनामक धार्मिक पत्रिका के मोटे वार्षिक-अंक भी हुआ करते थे। रात्रि में जब ‘पोस्टमैनसो जाता था तो मैं चोरी-छुपे उनके झोले में से ‘कल्याणपत्रिका निकालकर कमरे के किसी अंधेरे कोने में मिट्टी तेल से जलने वाले छोटे से लैम्प की रोशनी में उसमें लिखे गए लेखों को पढ़ने तथा विभिन्न देवी-देवताओं के अत्यन्त सूक्ष्म, सजीव तथा सुन्दर चित्रों को निहारते हुए आधीरात तक बिता देता था। ऐसे लेखों को पढ़कर तथा सुन्दर-आकर्षक चित्रों को देखकर अनायास ही मेरा मन श्री भगवान की साकार उपासना की तरफ आकर्षित हो गया था।

 

बचपन में एक बार मैं बहुत बीमार हो गया था। ‘ऐलोपैथी इलाज की व्यवस्था नहीं होने के कारण गांव के वैद्य जी ने ही मेरा इलाज किया और पैंतीस दिन के बाद मुझे आहार के रूप में ‘लौकी का जूसदिया गया था। इस बीच मुझे बचाने के लिए अनेकों ग्रामीण इलाज यथा देवी-देवताओं का अवतार कराना, भूत, प्रेत तथा नजर झाड़ना एवं मारक-ग्रहों के जप-अनुष्ठान  आदि कार्य भी सम्पादित कराये गए थे। मैं इस घटना को इसलिए भी याद कर रहा हॅूं कि श्री मॉं ने अपनी भक्ति कराने के लिए ही मुझे रोग-मुक्त कराया था। तत्कालीन ग्रामीण समाज में प्रचलित विभिन्न रीति-रिवाजों, मान्यताओं तथा धार्मिक विधि-विधानों से प्रभावित होकर बचपन से ही मेरा रूझान मंत्र-विद्या की तरफ हो गया था। उन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में शल्य-चिकित्सा को छोड़कर अन्य सभी शारीरिक एवं मानसिक रोगों तथा व्याधियों का उपचार शाबर-मंत्रों द्वारा ही किया जाता था। ऐसे शाबर -मंत्र चमत्कारिक रूप से प्रभावशाली हुआ करते थे।

 

उन प्रातः-स्मरणीय महानसिद्धों तथा सन्तों का स्मरण किए बिना यह आत्म-निवेदन अपूर्ण ही रह जायेगा जिनके दर्शन एवं चरण स्पर्श करने का सौभाग्य मुझे बचपन से ही प्राप्त होता रहा था। मॉं आनन्दमई, श्री नीमकरौली महाराज, श्री नानतिन बाबा तथा श्री मुक्तेश्वर  महाराज के परमदिव्य एवं साकार रूप मेरे हृदय-पटल पर सदैव के लिए चिन्हित हो गये हैं। इन्हीं के समकालीन श्री सोमवारी महाराज, श्री हैड़ा खान महाराज, श्री गुदड़ी बाबा तथा श्री अघोरी बाबा जैसे महान सन्तों ने भी उत्तराखण्ड की धरती को पवित्र किया है। कतिपय भक्तजनों द्वारा लिखी गई पुस्तकों में इन सन्तों का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया गया है। ये महानसन्त त्रिकालज्ञ, अन्तर्यामी, आकाशगामी तथा सर्वव्यापी थे। एक ही तिथि तथा समय पर पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर स-शरीर उपस्थित हो सकते थे। इन्हें इच्छामृत्यु तथा कायाकल्प का वरदान प्राप्त था। यहां पर एक अन्य सन्त श्री स्वामी राम का उल्लेख करना भी प्रासंगिक है जिनका जन्म उत्तराखण्ड प्रदेशान्तर्गत गढ़वाल क्षेत्र में हुआ था। स्वामी जी हिमालय के रिषियों की प्राचीनतम एवं महान आध्यात्मिक परम्परा के ध्वजवाहक भी रहे थे। इनके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘हिमालय के सन्तों के संग निवासमें भारत के तत्कालीन सन्तों के आध्यात्मिक जीवन-दर्शन का दिग्दर्शन किया गया है।

 

सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया था। मेरे एक बड़े भाई (कैप्टन आई0सी0 11534) मार्च 1963 में लेह में शहीद हो गए थे। उनका पार्थिव शरीर हेलीकोप्टर से उनके रेजीमेन्टल सेन्टर (20-लान्सर्स) फिरोजपुर (पंजाब) लाया गया था। वहीं पर मेरी तथा मेरे बड़े भाई की उपस्थिति में ही पूर्ण सैनिक-सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया था। इस अप्रत्याशित घटना ने मेरा जीवन-दर्शन ही बदल दिया था। अपने भाई की आत्म-शान्ति तथा उद्धार के लिए मैने दीर्घकाल तक अनेक तीर्थों तथा धामों का भ्रमण किया था। मृत्यु के कुछ दिन पश्चात ‘रेजीमेन्ट द्वारा जो सामान हमें वापस किया गया था उसके साथ भाई द्वारा युद्ध-भूमि में जाने से पहले लिखा गया एक छोटा सा पत्र भी था। उस पत्र की पंक्तियां कुछ इस प्रकार थी-

आज समय आ ही गया सा लगता है जब कर्तव्य की बलि-वेदी पर जीवन-पुष्प अर्पित किया जा सके। बड़ी-बड़ी कहानियां हैं त्याग तथा बलिदान की। बड़े से बड़ा त्याग भी कम है तथा बड़े से बड़ा बलिदान भी छोटा है। रावण की तरह शिरों का बलिदान भी कर दिया जाये तो वह भी कम ही है। भगवान आशुतोष की कृपा से कटे हुए शिरों की जगह पुनः नए शिर अब नहीं मिल पाते हैं और न इसकी चाहत ही है मुझे। मैं तो सोच रहा हूं आने वाले कल की और सोच रहा हूं कि कहीं मैं सोचूंगा तो नहीं जब अपनी अजुंली पर जीवन- पुष्प लेकर कर्तव्य की बलि-वेदी के निकट पहुंच चुका हूंगा।

भाई की असमय मृत्यु ने परिवार के सदस्यों को मानसिक रूप से इतना झकझोर दिया था कि अनेक वर्षों तक भी हम सामान्य स्थिति में नही आ पाये थे। कुछ वर्ष पश्चात एक अन्य दुखद घटना ने हमारे परिवार को पुनः असहनीय वेदना से त्रस्त कर दिया था। मेरे ताऊ जी के सुपुत्र (नायबसूबेदार जे0सी0-63916) बांगलादेश युद्ध (कैक्टस लिली औपरेशन) में 08 दिसम्बर 1971 को शहीद हो गए थे। उन्हें मरणोपरान्त ‘बीरचक्रसे सम्मानित किया गया था। इनके अदम्य साहस और बीरता को देखते हुए सरकार द्वारा इन्हें ‘विदेश सेवा मैडल(ईजिप्ट) तथा ‘सैन्य सेवा मेडल(जम्मू-कश्मीर) से भी अलंकृत किया गया था।

 

स्कूल तथा कॉलेज की पाठ्यक्रम की पुस्तकों का अध्ययन करने के साथ ही मैंने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था। शिव-पुराण में श्री शिव तथा विष्णु-पुराण में श्री विष्णु की सर्वक्षेष्ठता पढ़कर सदैव संशय बना रहता था कि इन दोनों में से बड़ा देवता कौन होगा। मैं चाहता था कि मैं उसी देवता की उपासना करूगां जो सबसे बड़ा होगा। इसी अवधि में मैने श्री हनुमान, श्रीराम, श्री विष्णु तथा श्री शिव के मंत्रों का लाखों की संख्या में जप कर लिया था परन्तु कोई चमत्कार नहीं हुआ। एक रात्रि को ऐसा स्वप्न देखा जिसने स्पष्ट कर दिया कि सभी देवता मॉं जगदम्बा (महाशक्ति) से ही शक्ति प्राप्त करते हैं। अतः मुझे भी महाशक्ति की उपासना करनी चाहिए।

 

सन् 1967 में ‘सिविल इन्जीनियरिंगका प्रशिक्षण पूर्ण करके मैं अल्मोड़ा शहर आ गया था जहां बाजार में मेरे एक बड़े भाई की ‘बुकसेलरकी दूकान थी। यहां मुझे 3-4 माह बिना नौकरी के बिताने पड़े। इस अवधि में मेरा परिचय अनेक वैष्णवाचारी व्यक्तियों से हुआ जबकि मैं ऐसे शक्ति-उपासक से मिलना चाहता था जो मेरा मार्गदर्शन कर सके।  संयोगवश एक दिन एक सज्जन (पंडित जी) मेरे भाई की दूकान पर आये थे। देवी मॉं की भक्ति की चर्चा होते ही उन्होंने बताया कि इस शहर में श्री काली मॉं का सच्चा उपासक एक व्यक्ति है जिनके घर में वह शारदीय नवरात्र में नौ दिनों तक लगातार श्री दुर्गा सप्तसती का पाठ करते हैं। उस व्यक्ति की विशेषताऐं गिनाते हुए पंडित जी ने हमें बताया कि वह अत्यन्त गोपनीय रूप से निशीथकाल में श्री मॉं का पूजन-अर्चन करते है ताकि सामान्य जनता तथा पड़ोसियों के बीच उनकी कोई विशेष छवि न बन सके। यह सब सुनकर मैंने मन ही मन उस महान उपासक के चरणों में नतमस्तक होकर उन्हें अपना ‘प्रेरक गुरूमान लिया था। मेरे बहुत आग्रह करने पर पंडित जी ने कहा कि वह मुझे उनके घर ले जायेंगे।

 

अगली साम को पण्डित जी मुझे प्रेरक गुरू के घर ले गए। हमने उनसे ‘नमस्कारकहा। एक बार मेरी तरफ देखकर वे दोनों बात-चीत में व्यस्त हो गए। इस बीच पण्डित जी मेरे बारे में उनसे कुछ भी कहने का साहस नहीं जुटा पाये। जब हम वापस लौटने लगे तो उन्होंने मेरे बारे में पूछा। पण्डित जी ने बताया कि यह ‘जोशीहै। मेरा परिचित है। आपसे श्री देवी मॉं की पूजा के बारे में पूछना चाहता है। यह सुनकर वह मुस्कराते हुए कहने लगे ‘‘मैं श्री मॉं की पूजा के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूं। मैं तो ‘हनुमानचालीसा’ पढ़ता हॅूं और कभी ‘सुन्दरकाण्डका पाठ कर लेता हूं।इस प्रकार मुख्य विषय का चतुरता के साथ पटाक्षेप करने के बावजूद भी उस अन्तर्यामी साधक ने मेरी आन्तरिक इच्छा को जान लिया था। उनके घर से बाहर निकलते ही उन्होंने मेरी तरफ देखकर कहा ‘कभी अपनी जन्म कुण्डली लेकर आना। इस मिलन के पश्चात मेरे जीवन-परिवर्तन हेतु सभी परिस्थितियां अनुकूल होती चली गई। तुरन्त ही मुझे तत्कालीन जिला-परिषद अल्मोड़ा में जिला-अभियन्ता के पद पर नौकरी मिल गई थी तथा मैं उनके मक्कान में किरायेदार के रूप में रहने लग गया था। उन दिनों मैं कार्यालय से लौटकर नित्य साम के समय प्रेरक गुरू से मिलने चला जाता था। जब वह श्री मॉं की महिमा का गुणगान करते थे तो उनका गला भर जाता था तथा आंखों से आंसू टपक पड़ते थे। यदा-कदा वह मुझे भी किसी आगमग्रन्थ का वह श्लोक पढ़ने के लिए देते थे जिसमें श्री मॉं की ‘भक्त-प्रियातथा ‘भक्ति-वश्याछवि का उल्लेख होता था। मेरे पढ़ने से पहले ही वह स्वयं गुनगुनाने लग जाते थे-                       ‘विशुद्धापरा चिन्मयी स्वप्रकाशा

चिदानन्दरूपा जगत्व्यापिका च

साधना के परमोच्च सोपान पर आरूढ़ योगी की ऐसी अवस्था देखकर मुझे अनायास रामचरित मानस की इस चैपाई का स्मरण हो जाता था-

मम गुन गावत पुलक शरीरा

गद्गद् गिरा नयन भर नीरा

नित्य की भांति उस साम को भी जब मैं उनके घर पहुंचा तो सोफे पर बैठे एक सन्त को देखा जिनके हाथ में त्रिशूल था। विशाल माथे पर सिन्दूर का तिलक, शिर में जटाऐं तथा गले में रूद्राक्ष की मालाएं सुशोभित हो रही थी। मैंने उन दोनों को सादर प्रणाम किया और चुपचाप एक कोने पर बैठ गया। कुछ समय पश्चात पता चला कि ‘‘परम पूज्य महाराज जी चण्डीधाम (नीलधारा) हरिद्वार से पधारे हैं। उसी रात्रि को श्री महाराज जी द्वारा मुझे श्री ‘कामवीजकी दीक्षा प्रदान की गई और आदेश दिया कि उनकी अनुपस्थिति में प्रेरक गुरू को ही मुझे अपना गुरू मानकर उन्हीं से आध्यात्मिक-मार्गदर्श न प्राप्त करना है। कुछ दिन पश्चात् श्री महाराज जी पुनः चण्डीधाम लौट गए थे। एक दिन समाचार मिला कि मेरे पूज्य श्री गुरूदेव अपने पांचभौतिक शरीर का परित्याग कर चुके हैं। हम लोग अत्यन्त दुखी हो गए थे। मुझे बताया गया कि मेरा साधना-क्रम पूर्ण होने के लिए मुझे अन्य गुरू की आवश्यकता पड़ेगी। शास्त्रों का भी यही अभिमत है-

‘मधुलुब्ध यथाभ्रंग-पुष्प पुष्पान्तरं ब्रजेत्

ज्ञान लुब्ध तथा शिष्य-गुरू गुर्वान्तरं ब्रजेत्।।

(जिस प्रकार मधुलोभी एक भ्रमर पराग-संचय के लिए अनेक पुष्पों पर भ्रमण करता है उसी प्रकार ज्ञानामिलाषी साधक एक गुरू के देहत्याग के पश्चात् अन्य गुरू की शरण में जाता है।)

 

कुछ समय पश्चात् मेरे प्रेरक गुरू ने मुझे बताया कि उन्हें उनके एक परममित्र तथा प्रख्यात् श्रीविद्योपासक की सपुत्री के विवाह का निमंत्रण प्राप्त हुआ है तथा मुझे उनके साथ चलना पड़ेगा। वास्तव में वह चाहते थे कि इसी बहाने मेरा दीक्षा-संस्कार भी उन गुरूदेव के हाथों सम्पन्न करा लायेंगे। हम लोग श्री गुरूदेव की पुत्री के विवाह की तिथि से एक दिन पहले ही उनके घर पहुंच गए थे। प्रातःकाल वहां मेरे प्रेरक गुरू ने श्री गुरूदेव से कहामैं इसे आपके पास इसलिये लाया हूं कि आप इसका दीक्षा-संस्कार कर देंगे क्योंकि मुझे एक सहायक चाहिए विवाह कार्य सम्पन्न हो जाने के पश्चात श्री गुरूदेव नेचक्रार्चनका आयोजन किया था जिसमें अनेक शाक्त-साधक-साधिकाऐं उपस्थित थी। इसी रात्रि को श्री गुरूदेव सेबालामंत्रकी दीक्षा ग्रहण करके मैं सहर्ष अल्मोड़ा वापस गया था।

 

दीक्षा के बाद अपने प्रेरक गुरू के साथ मैं श्री गुरूदेव से मिलने गया था। रात्रि के समय हम तीनों श्री गुरूदेव के बैठक-कक्ष में बैठे हुए थे और श्री गुरूदेव साधना-विषयक चर्चा कर रहे थे। कुछ समय तक उनकी बातें सुनकर मेरी दृष्टि उनके मुख-मंडल पर स्थिर हो गई तथा कुर्सी पर बैठे हुए मेरा शरीर तीव्रगति से घूमने लगा मैं कुर्सी से गिरकर जमीन में रेंगने लगा। मेरे मुंह से विभिन्न प्रकार की तेज आवाजें निकलने लगी। इन तेज आवाजों को सुनकर परिवार के अन्य सदस्य किसी अनहोनी की आशंका करने लगे थे। तब श्री गुरूदेव अपनी कुर्सी से उठकर मेरे पास आये। मुझे फर्श पर सर्प की भांति रेंगने से रोका। उन्होंने मेरे सहस्रारचक्रको अंगुलियों से सहलाया। मैने पूर्ण दृढ़ता के साथ श्री गुरूदेव के शरीर को अपने आलिंगन-पाश में बांधलिया था। कुछ समय पश्चात् मैं सामान्य अवस्था में पहुंच गया था। इस घटना का चमत्कारिक-पक्ष यह था कि मुझे अपने अस्तित्व तथा शरीर का पूर्ण आभास तो था परन्तु मैं उस पर नियंत्रण करने में असमर्थ था। मेरी ऐसी दशा देखकर लोगों ने अनेक अर्थ लगाए थे परन्तु श्री गुरूदेव जानते थे कि यह अत्यन्त शुभ लक्षण है। मैं प्रसन्न था कि इस घटना के बाद दोनों ही मुझ पर अधिक विश्वास करने लगे थे। दुर्भाग्यवश-मेरी यह प्रसन्नता कुछ दिनों के पश्चात ही शोक मे बदल गई क्योंकि मेरे प्रेरक गुरू मणिद्वीप वासीहो गए थे। उनके इस असमय महा-प्रयाण से मैं अत्यन्त निराश हतप्रभ असहाय तथा किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पहुंच गया था।

 

मेरे ऊपर श्री मॉं की कृपा सैदव बनी रहती थी। छोटी से छोटी समस्या का समाधान तुरन्त हो जाता था। ऐसी ही एक घटना का संक्षिप्त उल्लेख  करते हुए मैं गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूं। सन् 1973 में एक राजकीय विभाग में मेरी प्रथम नियुक्ति दूरस्थ शहर में हुई थी। प्रारंभिक महिनों में पे-स्लिपके अभाव में वेतन भी न्यूनतम मिलता था जिससे निजी व्यय-भार वहन करने में कठिनाई होने लगी थी। एक दिन मैं विभागीय कार्य हेतु मन्डलीय कार्यालय गया था। मेरे अधिकारी ने मेरा चेहरा देखकर पूछा कुछ परेशान लग रहे हो। क्या बात है? मैने उन्हें अपनी परिस्थिति से अवगत कराया तो उन्होंने उसी दिन मेरा स्थानान्तरण मेरे घर-शहर में करा दिया था। मैं प्रसन्न एवं आश्वस्त था कि मुझे अपने ही शहर में कुछ वर्षों तक सेवा करने का अवसर मिल चुका है। तदनुसार मैंने अपने जीवन-यापन हेतु समस्त व्यवस्थाऐं कर ली थी तथा अपने अधीनस्थ योजनाओं का भी नियोजन कर लिया था। लगभग 02 माह पश्चात एक साम को मेरे स्थानीय अधिकारी ने मुझे सूचित किया कि मुख्यालय द्वारा शीघ्र ही मेरा स्थानान्तरण किसी दूरस्थ शहर में किया जाना प्रस्तावित है और मुझे इसके लिये तैयार रहना है। यह सब सुनकर मैं बहुत उदास हो गया था। इस विषय पर मैंने परिवार के सदस्यों को कुछ भी नहीं बताया। रात्रि को नित्य की भांति पूजन-अर्चन हेतु बैठा परन्तु चित्त अशान्त हो गया था। उस रात्रि को भोजन की इच्छा भी समाप्त हो गई थी। अन्त में श्री मॉं से यह कह कर सोने चला गया हे मॉंयदि तुझे यही मंजूर है कि मैं जीवन-यापन के सीमित साधनों के साथ नए शहर में कष्ट भोगता रहूं तो तेरी ही इच्छा पूर्ण हो। मेरी जीवन-नौका तो तेरे ही हाथ में है। पार करादे या डुबा दे। ऐसा कहते समय मुझे तनिक भी आभास नहीं था कि मेरी यह करूण-पुकार वायु से भी तीव्र गति से भी मॉं के श्रवणों तक पहुंच जायेगी और वह मेरी इच्छानुकूल निर्णय भी कर देगी।

 

अगले दिन प्रातः काल उठकर नित्य की भांति सन्ध्या-वन्दन करके मैंने कार्यालय को प्रस्थान किया। मेरे घर से कार्यालय पैदल मार्ग पर लगभग 03 कि0मी0 दूर था। यह सर्वविदित है कि ईश्वर जैसा चाहते हैं वैसा कराने के लिये मनुष्य की वुद्धि-विवेक को तदनुसार प्रेरित कर देते हैं। तब मनुष्य वह सब करने लग जाता है जिसे करने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। यही मेरे साथ भी घटित होने जा रहा था। मैं नित्य सड़क मार्ग से ही पैदल कार्यालय जाता-आता था। आज एक तिराहे पर पहुंचकर मुझे अन्तःप्रेरणा मिली कि मुझे बाजार मार्ग से जाना चाहिए। लगभग आधा किलोमीटर बाजार में चलने के बाद चढ़ाई आरम्भ हो जाती हैउस समय बाजार में बहुत भीड़ थी और मैं चढ़ाई में धीमी गति से चल रहा था। कुछ दूरी तय करने पर मुझे एक व्यक्ति की आवाज सुनाई दी जो मार्ग के दूसरी तरफ से नीचे उतरते हुए एक स्थान पर खड़े होकर मेरा पद तथा नाम लेकर अपनी तरफ आने के लिए हाथ से इशारा भी कर रहा था। मैं उनके पास गया और पूछा क्या आपने मुझे बुलाया ? आप मेरा नाम तथा पद कैसे जानते हैं? आप कौन हैं ? ‘मैं तो आपको जानता तक नही।वह धैर्यपूर्वक और शान्त  होकर मेरी बाते सुनते रहे और कहने लगे अरे साहब मुझे भी पता नहीं था कि इस शहर में आप जैसे लोग भी रहते हैं। आप सौभाग्यशाली एवं धन्य हैं। आज प्रातःकाल 03.00 बजे मेरे हिमालयवासी श्री गुरूदेव ने आकाशमार्ग से अपने तीन श्वेतवस्त्रधारी शिष्यों के साथ मेरे पूजाकक्ष के फर्श से छः फीट ऊपर वायु में स्थित होकर मुझे निर्देश दिया ‘‘नवीन आज दिन के 11.00 बजे कार्यालय जाते समय अमुक बाजार में अमुक व्यक्ति की दूकान के सामने ऐसे कपड़े पहनकर और हाथ में काले रंग का चमड़े का बैग लिए हुए तुम्हें दिखाई देगा। वह कल रात से बहुत परेशान है। उसे बता देना कि हमने उसका स्थानान्तरण रोक दिया है। अब वह आने वाले अनके वर्षों तक इसी शहर में नौकरी करेगा।

यह सब सुनकर मैं रोमांचित हो गया। मैंने उस व्यक्ति को आलिंगन बद्ध कर दिया। उन्होंने मुझे छुडा़या तो मैंने पूछा ‘‘महापुरूष ! आप कौन हैं ? कहां से आये हैं ? क्या काम करते हैं? क्या आपके गुरूदेव ने किसी अन्य व्यक्ति के लिये भी आपको ऐसे सन्देश भेजे थे ? उन्होंने अपना पूर्ण परिचय दिया तथा उन अनेकों घटनाओं का उल्लेख भी किया जिनके वह साक्षी रह चुके थे। इतना सब बताकर उन्होंने मुझे कार्यालय चले जाने का निर्देश दिया जबकि मैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहता था। अतः मैने उनके घर का पता पूछा तथा भविष्य में कभी भी मिलने का वादा लेकर मैं कार्यालय को चला गया। कार्यालय पहुंचते ही एक चपरासी ने बताया कि बड़े साहब आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं सीधे ही साहब के कार्यालय कक्ष में चला गया। मुझे देखकर वह मुस्कराते हुए कहने लगे आज सुबह मुख्यालय से फोन आया था कि आपका स्थानान्तरण निरस्त हो गया है क्योंकि आपके स्थान पर किसी अन्य अभियन्ता को उस शहर में भेजा जा रहा है।यह सुनकर मैं अचंभित हो गया था। एक ही रात्रि में ऐसा परिवर्तन ? क्या ऐसा भी सम्भव हो सकता है? इतने छोटे कार्य के लिए इतने महान सन्तों का हस्तक्षेप ? ऐसी कृपा का अनुभव करते हुए अब मैं रात-दिन हिमालय स्थित ज्ञानगंजनिवासी महान आकाशगामी सन्तों के दिव्य चरण-कमलों में शीश नवाते हुए उनकी कृपा की भीख मांगता रहता हूं।

प्रसंगवश, मैं यह भी बताना चाहता हूं कि मैंने अपने गृहजनपद के उस शहर में लगभग 10 वर्ष तक निर्वाध रूप से नौकरी की। इन वर्षों में जब भी समय मिलता था मैं अपने संदेशवाहक महापुरूष से मिलने चला जाता था जहां दीर्घकाल तक रहस्यपूर्ण आध्यात्मिक चर्चाएं होती रहती थी। कुछ वर्ष पश्चात एक दिन उन्होंने बताया कि उनके गुरूदेव चाहते हैं कि उनका अगला जन्म अमुक शहर में उन माता-पिता के पुत्र रूप में होगा जो उनके परमशिष्य हैं। उनके गुरूदेव ने उन्हें अगले जन्म में होने वाले माता-पिता से भी मिला दिया है तथा उस दो मंजिले मक्कान को भी दिखा दिया है जो अमुक शहर के एक तिराहे के कोने में स्थित है। 

सन् 1975 मे श्री गुरूदेव ने मेरा शाक्ताभिषेककिया तथा तीर्थराज प्रयाग के परमपावन संगमस्थल पर श्री पंचदशी(श्री ललिता) की दीक्षा प्रदान की। इस दीक्षा के लगभग 05 वर्ष पश्चात सन् 1980 की अक्षय तृतीयातिथि को उसी संगमस्थल पर मुझे श्रीमहाशोडशी(श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी) की दीक्षा प्रदान की गई। उसी दिन श्री गुरूदेव  ने  मुझे श्री ललिता शक्ति-पीठके दर्शन भी कराये। संगमस्थल पर पंहुचने से पूर्व तीर्थराज के विस्तृत रेतीले मैदान पर मैने जो देखा उसका स्मरण होते ही मुझे आज भी रोमांच हो जाता है। मैं श्री गुरूदेव तथा परिवारजनों के पीछे चल रहा था। मैंने देखा कि मेरे आगे एक युवक तथा सुन्दर युवती भी चल रही थी। उस सुन्दरी को अधिक समय तक देखने की लालसा के कारण मैं उनके पीछे चलता ही जा रहा था और बहुत दूरतक उनका पीछा करता रहा। एकाएक मैने देखा कि वे दोनों धरती से उठकर हवा में चलने लगे थे। मैं अभी भी उनको आकाश में चलते हुए देखता जा रहा था। कुछ समय पश्चात् वे अनन्त आकाश में विलीन होकर मेरी दृष्टि से पूर्णतया ओझल हो गए थे। उनके अदृष्य होते ही मुझे ध्यान आगया कि मैं तो उसी स्थान पर खड़ा हूं जहां से मैने श्री गुरूदेव को छोड़कर इनका पीछा करना आरम्भ किया था। वास्तविकता तो यह थी कि उक्त अवधि में मेरा शरीर स्तम्भित हो चुका था तथा किसी अन्य स्तर पर उनका पीछा करने का कार्यचल रहा था। इतने समय में श्री गुरूदेव बहुत आगे निकल चुके थे और मुझे अपनी तरफ आने का निर्देश दे रहे थे। मैं दौड़कर उनके निकट पहुंचा और इस घटना का उल्लेख किया। उन्होंने केवल इतना ही कहा कि इस दिव्यक्षेत्र में इस प्रकार की घटनाऐं होती ही रहती हैं क्योंकि यहां पर दिव्यात्माऐं विचरण करती रहती हैं।

सच्चिदानन्द स्वरूपिणी दिव्य- शक्ति की कृपा से मेरे जीवन का वह शुभ दिन भी आया जब श्री गुरूदेव ने मेरा पूर्णाभिषेकसंस्कार सम्पन्न कराया। मैंने समस्त आम्नायों के मंत्रों को श्रीमुख से सुना और स्वयं भी उनका उच्चारण किया। समस्त औपचारिकताओं को पूर्ण कराते हुए श्री गुरूदेव ने मुझे परप्रकाशानन्द नाथनामक दीक्षानामप्रदान किया था।

शास्त्रों में परमात्मा के साक्षात्कार हेतु जिन विभिन्न योगमार्गों का आश्रय ग्रहण करने हेतु निर्देश दिया गया है उनमें से शक्तियोगनामक महायोग सर्वोच्च है। बीसवीं सदी तक हमारे देश में इस महायोग का आश्रय ग्रहण करके विभिन्न महाविद्याओं की उपासना करने वाले उच्चकोटि के साधकों की संख्या कम नहीं थी। वर्तमान समय मे शक्तिउपासना कुछ गिने-चुने साधकों तक ही सीमित रह गई है। प्रसंगवश यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि सदियों पूर्व से ही शाक्तधर्म के उत्थान में प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली परिस्थितियां उत्पन्न हो चुकी थी। जिनमें प्रमुख थी-

(1)       विदेशी आक्रमण:-

विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा दीर्घकाल तक हमारे देश की धार्मिक सम्पदा को नष्ट किया गया। इसी अवधि में मूल आगम-ग्रन्थों तथा तथा शाक्त-सम्पदा की अपूरणीय क्षति हुई। वर्तमान समय में कुछ मूल-आगमग्रन्थ चेन्नई (तमिलनाडु) की अड्यार लाइब्रेरी के अलावा कहीं भी उपलब्ध नहीं है। 

(2)       अंग्रजो का शासनकाल:-

ब्रिटिश शासन काल में सैकड़ों वर्ष तक हमारी आध्यात्मिक संस्कृति को आघात पहुंचाया गया। भारतीय जनमानस पाश्चात्य सभ्यता की चकाचैंध तथा भौतिकवादी दृष्टिकोण से प्रभावित होकर बिना परिश्रम किये ही तुरन्त लक्ष्य-प्राप्ति के सपने देखने लगा। प्रत्येक मनुष्य अपना बहुमूल्य समय केवल धनोपार्जन तथा भौतिक सुखों की प्राप्ति में ही नष्ट  करने लगा था। उसकी सोच-समझ केवल कंचन-कामिनीतक ही सीमित रह गई थी।

(3)       भाषा की दुरूहता :-

शाक्तागम ग्रन्थ भगवान शिव तथा मॉं पार्वती के मध्य हुए प्रश्नोत्तरों तथा वार्तालापो में निहित परमोच्च आध्यात्मिक ज्ञान तथा उपासना विधियों के अक्षय भण्डार हैं। इन ग्रन्थों में महाविद्याओं की पूजोपासना का सांगोपाग वर्णन किया गया है। समस्त ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं। इनमें यत्र-तत्र सांकेतिक भाषा तथा शब्दों का प्रयोग किया गया है तथा अधूरे श्लोक लिखकर उनका पूर्णज्ञान प्राप्त करने हेतु श्री गुरूदेव की आवश्यकता बताई गई है। अतः संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ तथा सामान्य स्तर के (अदीक्षित) व्यक्ति के लिए इन ग्रन्थों की उपयोगिता बहुत कम रह जाती है।

(4)       उपासना की गोपनियता :-

शाक्तागम ग्रन्थों में उपासकों/साधकों के अनुपालन के लिए अनेक कर्तव्यों तथा नियमों का निर्धारण किया गया है। इनमें से साधना की गोपनीयता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। इस रहस्यमयी महाविद्या का प्रकटीकरण करने वाले साधक को सिद्धिहानिनरकप्राप्ति अशुभ होने तथा श्री मॉं के क्रुद्ध होने तक की  चेतावनी दी गई है। यथा-

दत्ते सिद्धिहानिस्यात्रौरवं नरकं ब्रजेत्

अशुभं भवेत्तस्य तथा क्रुद्धाभवति सुन्दरी

कौलोपनिषद तो यहां तक कहता है कि साधक को अपने ऊपर लगे अन्यायपूर्ण लांछनों को सहते हुए भी अपनी साधना का प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहिए।

अन्यायो न्यायो गणेत्कमपि

कौल प्रतिष्ठा कुर्यात्

कुलार्णव तंत्र में श्री शिव मॉं पार्वती से कहते हैं कि साधक अपना सर्वस्व (पुत्र, पत्नी धन, राज्य तथा शिव) अर्पित करदे परन्तु श्रीविद्या को किसी को बताये-

अयि प्रियतमं देयं-सुत ,दारा धनादिकम्

राज्य देयं शिरोदेयं- देया शोडशाक्षरी

यह भी स्मरणीय है कि योग्य शिष्यों के उपलब्ध नहीं होने के कारण हमारे पूज्य गुरूजनों तथा सिद्ध उपासकों की साधना के गूढ़ रहस्य उनके जीवन काल की समाप्ति के पश्चात् विलुप्त होते चले गए।

उपरोक्त वर्णित विडम्बनाओं को ध्यान में रखते हुए मैने श्री मॉं की उपासना के इच्छुक व्यक्ति की त्वरित शंकाओं तथा सामान्य जिज्ञासाओं के समाधान के लिए इस लेख को हिन्दी भाषा में लिखा है ताकि कोई भी हिन्दी भाषी व्यक्ति इस लेख को पढ़कर शक्ति उपासना के मूल सिद्धान्तों की जानकारी प्राप्त करके अपनी जिज्ञासा शान्त कर सके। मेरे इस प्रयास से जिज्ञासु पाठक को एक स्थान पर एक ही लेख में श्रीविद्योपासना के महत्वपूर्ण अंगो तथा क्रिया-विधियों की जानकारी प्राप्त हो सकेगी। यदि मेरे लेख को पढ़कर किसी भी व्यक्ति का तनिक भी हित हो सका तो मैं अपने प्रयास को सफल मानूंगा।

समय परिवर्तनशील है। वह समय पुनः आयेगा जब भारत में ऐसी दिव्यात्माओं का अवतरण होगा जो शाश्वत, अनादि, अनन्त, अखण्ड तथा भोग-मोक्षदायिनी पराशक्ति की पूजोपासना करके मनुष्य जन्म को सफल बनायेंगे।

मेरा समस्त जीवन घटना प्रधान रहा है। मैं अपने जीवन-सागर की सुख-दुख रूपी विशाल  तरंगों की उठा-पटक को सहता रहा हूं। आध्यात्मिक पथ का पथिक होने तथा श्री मॉं की असीम कृपा का अनुभव करते हुए मैं कभी हताश नहीं हुआ। मेरे जीवात्मा ने उस सुख और शान्ति का भी अनुभव किया जिसका वर्णन वाणी द्वारा नहीं किया जा सकता है।

मेरी कामना है कि हमारे देश में महान सन्तों का आविर्भाव सदैव होता रहे ताकि उनके जीवन-दर्शन से प्रेरणा प्राप्त करके हम भारत को विश्वगुरू बनाने हेतु अपना योगदान दे सकें। मेरी यह भी कामना है कि प्रत्येक मनुष्य परमेश्वर की कृपा का अनुभव प्राप्त करके अक्षय सुख और शान्ति का अनुभव करे। शास्त्र वचनानुसार-

(1) ‘आत्मलाभान्न परं विद्यते

(आत्म-लाभ से अधिक कुछ भी नहीं है।)

(2) ‘तरति शोक आत्मवित्

                                                (आत्मज्ञानी शोकरहित हो जाता है।)

(3) ‘लोकासमस्ता सुखिनो भवन्तु

                                                (समस्त संसारवासी सुख प्राप्त करें।)

(4) ‘देशस्य राष्ट्रस्य, कुलस्य राज्ञां

   करोतु शान्ति भगवान कुलेशः

(हे परमेश्वर ! हमारे  देश और राष्ट्र का कल्याण कीजिए ताकि समस्त देशवासी सुख और शान्ति प्राप्त कर सकें।)

 

 

दिनांक 09 जनवरी-2022

अनुसूया शक्तिपुरम्

नवाबी रोड-हल्द्वानी

नैनीताल (उत्तराखण्ड)

 

श्री चरणों का लघु सेवक

नवीन चन्द्र जोशी-“प्रज्ञान”

दीक्षानाम-परप्रकाशानन्दनाथ।