Tuesday, 13 August 2013

1. आध्यात्मिक महापथ एवं शक्ति योग

आध्यात्मिक महापथ एवं शक्ति योग



मैं अपने श्री गुरूदेवों के उन दिव्य चरण कमलों पर अपना सिर रखकर प्रणाम करता हूॅं जिनके आशीर्वाद से मुझे अपने अन्दर विद्यमान सुषुप्त दिव्य शक्ति का आभास हुआ तथा जिनकी कृपा से मुझे स्वयं को पहचान सकने की क्षमता प्राप्त हुई। मैं उन दिव्य चरण कमलों में असीमित कृतज्ञता के सुगन्धित पुष्प भी अर्पित करता हॅूं।

मैं उन समस्त महायोगियों, परमहंसों, सिद्धों, दिव्य आत्माओं, तपस्वियों एवं महान साधकों को भी शतशः प्रणाम करता हॅूं जो पवित्र भारत भूमि के अन्तर्गत लोकालोक पर्वतों, हिमालय की गुफाओं एवं विभिन्न नदियों के पवित्र तटों पर कठोर तपस्या करके अपनी आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिए अभ्यासरत है।

मैं तिब्बत स्थित ज्ञानगंज (प्राचीन इन्द्रभवन) के दिव्य स्पन्दन युक्त क्षेत्र में स्थित आध्यात्मिक प्रशिक्षण केन्द्र में योगाभ्यासरत समस्त साधकों, साधिकाओं एवं उनके महाशक्ति सम्पन्न, मृत्युजयी एवं आकाशगामी महागुरूओं, योगेश्वरों तथा परमहंसों के श्री चरणों पर भी अपना शीश नवाता हूॅं।

मैं अल्मोड़ा शहर के मुहल्ला तिलकपुर में रहने वाले श्री आद्या (माॅं काली) तथा श्री द्वितीया (माॅं तारा) के महान उपासक तथा वीर साधक श्री कालीचरण पन्त जी के चरणों में नमन करता हूॅं जिन्होंने मुझे शक्ति उपासना हेतु प्रेरणा दी और पुत्रवत् स्नेह देकर समय-समय पर मार्ग दर्शन भी कराया। उन्होंने ही मेरे उद्धार हेतु श्री गुरूदेव की खोज की तथा मेरी दीक्षा की व्यवस्था भी की थी।

श्री पन्त जी श्री माॅं के दर्शन एवं मुक्ति प्राप्ति हेतु इस कलियुग में वीर साधनाओं को ही सर्वोत्तम एवं एकमात्र साधन मानते थे। यदा-कदा उनके द्वारा गुनगुनाए जाने वाले आगम ग्रन्थों के निम्न श्लोक वीर साधनाओं के प्रति उनके दृढ़ विश्वास का परिचय देते हैं।

कलौ पाप समाकीर्णे-कस्य वै निश्चलं मनः
..... वीर साधन माचरेत्।
(पाप, पूर्ण कलियुग में कोई भी मन को स्थिर नहीं कर सकता है। अतः साधक वीर साधना करें। )

वीर साधनकं कर्म-परम सात्विक ईरितः।
(वीर साधना परम सात्विक साधना है। )

वीर भावो दिव्य भावो-यस्य चित्ते ब्यवस्थितः
जीवन्मुक्तः स एवात्मा-भोगार्थ मठते महीम्।
(जिस साधक के मन में दिव्य वीर भाव उत्पन्न हो जाता है वह जीवन्मुक्त हो जाता है। वह पृथ्वी पर केवल भोग हेतु विचरण करता है)

न वै सिद्धि न वै सिद्धिः-वीर साधन मन्तरा।
(सिद्धि प्राप्ति हेतु वीर साधना के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है)

याम मात्रेण संसिद्धि-वीर साधन योगतः
नान्यत् सिद्धि प्रदं देवि-वीरसाधन वर्जितम्।
(वीर साधना ही सिद्धि प्रद है। वीर साधना करने से कुछ ही समय में सिद्धि प्राप्त हो जाती है)

स्व0 श्री पंत जी के सुपुत्र श्री गिरिजा पंत जी भी पूर्णाभिषिक्त साधक हैं जो माॅं आद्या एवं माॅं द्वितीया की उपासना  कुलधर्म एवं कुलाचार का निष्ठापूर्वक पालन करते हुए करते हैं।  श्री गिरिजा पंत जी श्री श्यामापीठ-पटना की मायी जी के शिष्य हैं। श्री मायी जी दरभंगा नरेश महाराजा रमेश्वर सिंह जी, जो कि माॅं आद्या के महान उपासक थे, की शिष्या थी।

महाराजा रमेश्वर सिंह जी की प्रेरणा तथा अनुग्रह प्राप्त करके ही आर्थर एवलोन (सर जाॅन उड्रफ) जोकि ब्रिटिश शासन काल में कलकत्ता हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस थे, ने आगम शास्त्र के सारगर्भित विषयों पर अंग्रेजी भाषा में ‘‘सरपेंट पावर’’ तथागारलेन्ड आॅफ लेटर्सजैसी सर्वश्रेष्ठ पुस्तकें लिखकर पाश्चात्य जगत के आध्यात्मिक विद्व्ानों को भी भारतीय आध्यात्मिक विद्याओं का सम्मान करने का सुअवसर प्रदान किया है।

अल्मोड़ा में मेरा परिचय एक ऐसे व्यक्ति से हुआ था जिन्होंनेे मुझे बताया था कि कभी-कभी हिमालय (ज्ञानगंज) से एक श्वेत वस्त्र धारी सिद्ध पुरूष अपने दो शिष्यों के साथ आकाश मार्ग से उड़कर प्रातः लगभग 3.30/4.00 बजे उनके पूजा कक्ष में पहुॅंचकर उन्हें देश-विदेश की अत्यन्त गोपनीय घटनाओं की जानकारी दे जाते थे जो बाद में सत्य साबित हो जाती थी। वह सिद्ध पुरूष पूजा कक्ष की जमीन में बैठकर हवा में ही 7-8 फीट की ऊॅंचाई से ही अपनी बाते कह जाते थे। जब वह बोलते थे तो इनकी वाणी बन्द हो जाती थी। वह केवल सुन सकते थे, बोल नहीं सकते थे। उस सिद्ध पुरूष ने इनको अगले जन्म के बारे में भी बता दिया था तथा उनके भावी माॅं-बाप एवं उस घर को भी दिखा दिया था जहाॅं उनका अगला जन्म होगा। इन बातों को मैं स्वयं सत्य समझता हूॅं क्योंकि मेरा इस व्यक्ति से परिचय ही उन सिद्ध योगी के माध्यम से ही हुआ था तथा मेरी नौकरी के सम्बन्ध में उनके द्वारा दी गई पूर्व जानकारियाॅं सत्य साबित हुई थी।

अल्मोड़ा के ही एक अन्य विशेष व्यक्ति की यादें भी मेरे स्मृति पटल पर अंकित हैं। वह आयुर्वेद शास्त्र के ज्ञाता थे। घर पर ही दवाओं का शोधन कर विभिन्न भस्म आदि तैयार करते थे। इनका व्यक्तित्व अदभुत था। वह निर्भीक तथा स्पष्टवादी थे। यद्यपि वह किसी विशेष देवी-देवता की उपासना नहीं करते थे, परन्तु उन्हें सभी धर्मों के बारे में अच्छा ज्ञान था। वह मूल हैड़ाखान बाबा पर पूर्ण श्रद्धा रखते थे तथा बाबा जी की एक सुन्दर तस्वीर उनके कमरे की दीवाल पर सदैव लगी रहती थी। उन्होंने मुझे बताया था कि वह अनेक वर्षों तक वाराणसी में गंगा जी के जल में गले-गले तक खड़े रहकर गायत्री मंत्र का जप कर चुके थे। उनके घर में एक विशाल हाॅल में विभिन्न धर्मों के अनुयायी, सूफी सन्त, मौलवी जी, पादरी जी, अनेक धर्माचार्य, सिद्ध, सन्त, ज्योतिषी, साहित्यकार ही नहीं पाश्चात्य देशों के अध्यात्म खोजी विद्धान (रिसर्च स्कोलर) एकत्र होकर अध्यात्म सम्बन्धी चर्चाऐं सुना करते थे।

मैं इन विशिष्ट व्यक्ति को इसलिए भी सदैव याद करता रहता हूॅं कि उनका मौन अनुग्रह मुझ पर सदैव बना रहा। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर आगम शास्त्र के अनेक प्राचीन ग्रन्थ, जोआउट आॅफ प्रिन्टहो चुके हैं, भैंट किए थे। ये ग्रन्थ उनको उस समय के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी तथा मंत्रशास्त्री के द्वारा इस सद्इच्छा से सौंपे गए थे कि यदि भविष्य में उनको कोई योग्य व्यक्ति मिले तो इन गं्रथों को उसको भैंट कर दिया जाये। 

मेरा शास्त्रीय ज्ञान अत्यन्त सीमित है। उपासना-योग साधनाओं के सम्बन्ध में कुछ भी लिखना मुझ जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति के लिए उतना ही दुष्कर कार्य है जितना कि किसी व्यक्ति द्वारा अपनी अंजुलियों में पानी भरकर महासागर को जलविहीन कर देना। वेद-वेदागों, उपनिषदों, पुराणों तथा ऋषि-मुनियो, ज्ञानियों, सन्तों द्वारा समय-समय पर रचित ग्रंथो का अध्ययन करने के लिए मुझे पर्याप्त समय नहीं मिल पाया। उपासना का विषय अत्यन्त गूढ़, रहस्यमय एवं उस दुर्मेद्य किले की तरह है जिसके अन्दर बिना श्री गुरू कृपा के प्रवेश कर पाना सर्वथा असम्भव है।
मैं जो भी लिख रहा हूॅं उसमें से सर्वाधिक बातें मैने श्री गुरूदेव एवं प्रेरक गुरू से सुनी हुई है। अधिंकांश श्लोक आगम ग्रन्थों से उधृत किए गये हैं जिनके नीचेआगमशब्द लिख दिया गया है। अन्य बातें अल्प अनुभव पर आधारित हैं। अतः मैं समस्त विद्वत्जनों, उपासकों तथा अध्यात्मशास्त्र के ज्ञाताओं से निवेदन करता हूॅं कि यदि कहीं पर मैने त्रुटि करदी हो तो मुझे अवश्य क्षमा करदें।

भारतीय आध्यात्मिक शास्त्रों, महान सिद्धों, सन्तों, योगियों, तपस्वियों तथा ब्रह्मज्ञानी गुरूजनों द्वारा बताया गया है कि जीवात्मा के परमात्मा से मिलने की अभिलाषा एवं आतुरता का अनुभव अत्यन्त अद्भुत, रोमांचक, रहस्यमय एवं अवर्णनीय होता है। एक जीव जब 84 लाख योनियों में भ्रमण एवं भोग करने के पश्चात् मनुष्य जन्म में पैदा होने की प्रक्रिया में अपनी माॅं के गर्भ में कष्ट भोगता हुआ लगभग 9 मास तक पलता रहता है तो वह अपने परम आराध्य, परमकृपालु तथा मुक्तिदाता परमेश्वर से अहर्निश यही प्रार्थना करता है कि ‘‘हे प्रभु! मुझे इस गर्भरूपी कारागार से शीघ्र मुक्त करादो। मैं बाहर निकलकर इस मनुष्य शरीर से आपकी भक्ति और आराधना करूॅंगा तथा जन्म-मृत्यु के महादुखमय चक्रव्यूह से सदैव के लिए मुक्त होने का प्रयास करूॅंगा।’’


                                                                                                                                                (गुरूड़ पुराण)

गर्भ से बाहर निकलते ही मुनष्य रोता है जबकि उसके माता-पिता, सगे-सम्बन्धी प्रसन्न हो जाते हैं। इस सामान्य घटना का आध्यात्मिक महत्व समझाते हुए महासन्त कबीर ने मनुष्य जाति को एक मार्गदर्शक एवं शाश्वत उपदेश दिया है -

‘‘कबिरा जब हम पैदा हुए-जग हॅंेसे हम रोये
ऐसी करनी कर चलो-हम हंॅंसे जग रोये’’

एक मनुष्य की यही विडम्बना है कि जन्म लेने के पश्चात् वह धीरे-धीरे इस संसार के माया-मोह में फंसकर सभी सामान्य मनुष्यों की तरह जीवन-यापन करने लग जाता है। वह गर्भकाल में ईश्वर से की गई अपनी प्रार्थना एवं जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाने के मूल-संकल्प को भी भूल जाता है तथा पुनः उसी जन्म-मृत्यु के अन्तहीन चक्रव्यूह में फंसता चला जाता है। इस स्थिति का वर्णन आदि शंकराचार्य द्वारा निम्न शब्दों में किया गया हैः

पुनरपि जनंन पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्-गोविन्दं भज मूढ़ मते

आध्यात्मिक इतिहास में सत्गुरू की कृपा द्वारा जीवात्मा के उद्धार सम्बन्धी अत्यन्त रोमांचक उदाहरण मिलते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्य नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को अपने पैर से स्पर्श करके उन्हें आभास करा देते हैं कि उनका आपस में अनेक जन्मों से गुरू-शिष्य का सम्बन्ध है। श्री गुरू कृपा का ही परिणाम था कि स्वामी विवेकानन्द ने भारत को विश्वगुरू के रूप में प्रतिष्ठित किया था और आज भी पाश्चात्य देश भारत को विश्व के आध्यात्मिक गुरू तथा विेवेकानन्द के देश के रूप में पहचानते हैं।

हिमालय क्षेत्र में स्थित उत्तराखण्ड राज्य के कुमायॅंू मण्डल के अन्तर्गत द्वाराहाट के निकटकुकूछीनाकी गुफा में दीर्घकाल से तपस्यारत महावतार बाबा जी अपने पूर्व जन्म के शिष्य लाहिड़ी महाशय, जो कि अपने पूर्वजन्म की बातें भूल चुके थे, को अपने पास बुलाने के लिए एक अंग्रेज अधिकारी की बुद्वि को प्रेरित करके रानीखेत में एक नया कार्यालय खुलवाकर लाहिड़ी जी का स्थानान्तरण कलकत्ता से रानीखेत कार्यालय में करा देते हैं ताकि वह अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त ज्ञात कर सकें तथा अपने गुरूदेव द्वारा निर्मित स्वर्ण महल के दर्शन एवं स्पर्श करके अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकें।
(‘‘सन्दर्भः एक योगी की आत्मकथा’’)
इस संसार में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो कठिन संघर्ष करके सफलता पा लेता है तो उसे आनन्द की प्राप्ति होती है जबकि असफल हो जाने पर वह निराश एवं दुखी हो जाता है। कोई मनुष्य दुख नहीं चाहता। वह केवल सुख और आनन्द ही चाहता है। वह सदैव आनन्द प्राप्ति हेतु प्रयासरत रहता है, चाहे वह आनन्द क्षणिक, अस्थाई और परिणाम में दुखदाई ही क्यों हो। ऐसे क्षणिक आनन्द के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:
‘‘येहि संश्पर्शजा भोगा-दुखः योनय एव ते
आद्यन्तवन्त कौन्तेय तेषु रमते बुधः’’

असंख्य मनुष्यों में जब कोई बिरला मनुष्य विभिन्न सांसारिक क्षणिक आनन्दों का दीर्घकाल तक भोग करने के पश्चात् अपने को अतृप्त तथा ठगा हुआ अनुभव करता है तो वह स्वंय से ही प्रश्न करने लगता है कि क्या इस संसार में ऐसा आनन्द भी होता हेागा जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाये तथा कभी समाप्त ही हो। ऐसी मनः स्थिति वाले व्यक्ति को जब सौभाग्यवश सत्संग एवं सद्ग्रंथोके अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हो जाता है तो उसे ज्ञात होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा विभिन्न शास्त्रों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया गया है कि अक्षय एवं अनन्त आनन्द प्राप्ति को ही ब्रह्म प्राप्ति कहते हैं क्योंकि ब्रह्म सत् चित् और आनन्द स्वरूप है।
‘‘आनन्दं ब्रह्मणोरूपं तच्च देहे ब्यवस्थितं’’
(आगम)
‘‘आनन्दो ब्रह्मेति ब्यजनात् प्रधानस्य आनन्दादयः’’
(उपनिषद)

स्पष्ट है कि ब्रह्म का स्वरूप आनन्दमय है। यदि ब्रह्म की प्राप्ति हो जायेगी तो अक्षय आनन्द स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा। इस विषय पर छान्दोग्य उपनिषद में बताया गया है कि आनन्द वह है जो अनन्त मात्रा का हो, अनन्त काल वाला हो तथा प्रतिक्षण बढ़ता ही जाये। आनन्द ही ब्रह्म है। हम सभी मनुष्य आनन्द के अंश है। हम आनन्द से ही उत्पन्न हुए हैं। अतः सदैव आनन्द की ही कामना करते रहते हैं।

अक्षय एवं अनन्त आनन्द प्राप्ति हेतु इच्छुक एवं जिज्ञासु व्यक्ति को सांसारिक आनन्दों से मुंह मोड़कर उन साधनों एवं माध्यमों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है जिनमें ब्रह्मप्राप्ति हेतु विभिन्न उपाय सुझाए गए हैं।
विद्या एवं ज्ञान प्राप्ति हेतु जिन शास्त्रों का निर्धारण हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए किया गया है उनका विवरण निम्न प्रकार है-
वेद=4, वेदांगत्=6 तथा धर्मशास्त्र, पुराण, न्याय एवं मीमांसा।

(1)     वेदः                                 वेदों की संख्या 4 है। यथा रिग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद।
वेद हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए मार्गदर्शक एवं प्रामाणिक ग्रन्थ है। वेदों में केवल इन्द्र, अग्नि, वरूण, मरूद्गण, लोकपालों एवं दिक्पालों की स्तुतियाॅं की गई हैं वरन् इनमें कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड एवं उपासनाकान्ड का भी विशद विवेचन किया गया है।

(2) वेदांगः               वेदांग 6 हैं। यथा-
                                                         I.            कल्पसूत्रः                इनमें यज्ञों के अनुष्ठान का निर्देश है।
                                                        II.            निरूक्तः                  वैदिक शब्दों के अनुशासन हेतु रचित है। 
                                                      III.            छन्दशास्त्रः      वैदिक मंत्रों के छन्द बोध हेतु।
                                                      IV.            ज्योतिष शास्त्रः       यह शास्त्र ग्रहों तथा कालगणना का बोध करता है। 
                                                       V.            शिक्षाः                      वेद मंत्रो के शुद्ध उच्चारण हेतु। 
                                                      VI.            व्याकरणः                वेद मंत्रो के अर्थबोध हेतु।
हिन्दू धर्मशास्त्रों तथा पुराणों की जानकारी प्रत्येक हिन्दू धर्मावलम्बी रखता है। महर्षि वेदव्यास जी रचित पुराणों की संख्या-18 है। जिनमें से श्री मद्भागवत् महापुराण सर्वश्रेष्ट  रचना है।

(3) न्यायः न्याय दर्शन महर्षि गौतम द्वारा रचित है। न्याय शास्त्र भी मोक्ष प्राप्ति हेतु महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित अष्टांगयोग को आवश्यक समझता है। इसके अनुसार दुखों की पूर्ण निवृत्ति हो जाने पर ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। इसमें नदी तट पर, गुफाआंे में तथा जंगलों में रहकर योगाभ्यास करने का निर्देश दिया गया है।

(4) मीमांसाः मीमांसा एक वैदिक दर्शन है जिसके अन्तर्गत शक्ति तत्व का दिग्दर्शन कराया गया है।
इसके दो भाग हैं-
                                                         I.            पूर्व मीमांसाः यह महर्षि वेदव्यास के शिष्य महर्षि जैमिनि द्वारा प्रणीत है। इसमें वेद के कर्मकाण्ड का विचार है।
                                                        II.            उत्तर मीमांसाः यह महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित है। इसमें वेद के अन्त भाग ज्ञान काण्ड (उपनिषदों) का वर्णन है।

उक्त दोनों भागों को मिलाकर सम्पूर्ण मीमांसाा दर्शन बनता है। पूर्व मीमांसा के श्रवण-अध्ययन के पश्चात् शिष्य के अन्दर ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है। ब्रह्म क्या है? कहाॅं रहता है? उसका रूप कैसा है? उसकी प्राप्ति कैसे होगी? आदि। उत्तर मीमांसा में ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति का उपदेश दिया गया है।

वेदादि अत्यन्त कठिन ग्रन्थ है। देवभाषा संस्कृत के सम्पूर्ण ज्ञान के बिना सामान्य व्यक्ति तो इनका अध्ययन कर सकता है और अर्थ ही समझ सकता है। विभिन्न पुराणों में 18 पुराणों की रचना तो महर्षि वेदव्यास जी द्वारा ही की गई है। विभिन्न पुराणों में विभिन्न देवी-देवताओं की महिमा का वर्णन किया गया है। किसी पुराण में किसी देवता को तो अन्य पुराणों में अन्यान्य देवी-देवताओं को सर्वश्रेष्ट घोषित किया गया है। ऐसी स्थिति में सामान्य मनुष्य यह निर्णय नहीं कर पाता है कि वह किस देवी-देवता को अपना आराध्य मानकर पूजा अर्चना करे।

उपनिषदों की संख्या भी सैकड़ों में है। उनमें से 11 उपनिषद तो प्रमुख हैं ही। सामान्य बुद्धि वाला मनुष्य उपनिषदों में वर्णित ज्ञान से संतुष्ट नहीं हो सकता है समझ ही सकता है। वह जीव-जगत, ब्रह्म-माया, जीवात्मा-परमात्मा सम्बन्धी विचार को नहीं समझ पाता है। साधु-सन्तों तथा विभिन्न धर्माचार्यों के प्रवचन सुनकर भी उसकी शंकायें तथा भ्रम समाप्त नहीं होते क्योंकि प्रत्येक धर्माचार्य अपने आराध्य देवताओं को ही सर्वश्रेष्ट समझकर उसी की उपासना करने का निर्देश देता है। इतना ही नहीं विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन, सन्तों, सिद्धों तथा महात्माओं के जीवन वृत्तान्त पढ़कर उसके मस्तिष्क में अध्यात्म सम्बन्धी विभिन्न धारणाऐं उत्पन्न हो जाती है जो उसके चित्त को अशान्त कर देती है। शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान व्यवहारपरक तथा भ्रमनिवारक होकर केवल पुस्तकीय एवं नीरस होता है। प्रायः ऐसे शास्त्रज्ञान सम्पन्न व्यक्ति के मन में अपनी बिद्वता का मिथ्या अहंकार उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है जो उसके आनन्द प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़े बिघ्न के रूप में उपस्थित हो जाता है।

संयोगवश शास्त्र ज्ञान से असंतुष्ट ऐसे व्यक्ति को अष्टावक्रगीता तथा योगवासिष्ठ जैसे ग्रन्थों को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हो जाता है तो इस संसार के प्रति उसकी धारणा ही बदल जाती है। उसे दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जीवात्मा के परमात्मा से मिलन (योग) हो जाने पर ही अक्षय आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। अब ऐसा व्यक्ति उन दुर्लभतम महागुरूओं, विद्याओं एवं ज्ञान की खोज में जुट जाता है जो उसकी आत्मा को परमात्मा से मिलादें। अब वह मनुष्य अपने दुर्लभतम एवं बहुमूल्य मानव जीवन रूपी अनन्त यात्रा मार्ग के उस मोड़ पर पहुॅंच जाता है जो उसे योगमार्ग रूपी उस महापथ से जोड़ देता है जिस पर चलकर वह कभी कभी आनन्द प्राप्ति (ब्रह्मप्राप्ति) के चरमलक्ष्य तक पहुॅंच ही जायेगा। योग एक रहस्यमय शास्त्र है जो सिद्धि प्राप्ति एवं मोक्षप्राप्ति हेतु विशुद्ध एवं प्रामाणिक साधन है। विभिन्न शास्त्रों में योग को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया गयाह परन्तु उद्देश्य सबका ब्रह्म प्राप्ति ही है।

                                 I.            जीवात्मा को परमात्मा से मिलाने अथवा नर को नारायण से मिलाने के लिए जो साधन अथवा साधन सामग्री आवश्यक बताई गई है उसी को योग कहते हैं। योग का अर्थमेलभी होता है औरमिलानेवालाभी।
                                II.            योग वह दर्शनशास्त्र है जिसका उद्देश्य जीवात्मा का परमात्मा से मिलन कराना अर्थात् व्यष्टि चेतना का समष्टि चेतना के साथ सम्बन्ध स्थापित कराना होता है। योग एक आध्यात्मिक विद्या है।
                              III.            योगवासिष्ठके अनुसार संसार सागर से पार होने का उपाय ही योग है।
                              IV.            वेदों के ज्ञान कान्ड के अनुसार जीव और ब्रह्म के एकीकरण को योग कहते हैं। कर्मकान्ड के अनुसार कर्म की कुशलता ही योग है जबकि वेद के उपासनाकान्ड के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा गया है।
                               V.            गीता, जो कि योग विषयक एक उत्कृष्ट एवं प्रमाणिक ग्रन्थ है, का उद्देश्य ही योग विषयक उपदेश देना है। इसीलिए श्री कृष्ण ने गीता के 18 अध्यायों में 18 विभिन्न प्रकार के योगों का उपदेश देकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को योग को सर्वश्रेष्ट बताते हुएयोगीबन जाने का उपदेश दिया है।
‘‘तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योपि मतोधिकः
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्भात् योगी भवांर्जुनः’’

           VI.     महर्षि पंतजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों को रोकने का नाम ही योग है।
           VII.     The Western Philosophers and scholars have described the characteristics of yoga as stated below  -
”Yoga is self concentration with a view to seeing the soul as it looks when it is abstracted from mind and mater”
Mr. V.G. Rele says that –


“ Yoga is the science which raised the capacity of the human mind to respond to higher vibrations, and to perceive, catch and assimilate the infinite conscious movements going on around us in this universe” 

परमात्मा के साथ मिल जाना, परमात्मा को यथार्थ में पा लेना अथवा स्वयं परमात्मारूप हो जाना एवं अखन्ड आनन्द की प्राप्ति ही एक जीव का ध्येय होता है। सभी धर्मशास्त्रों में योग का समावेश किया गया है। पतंजलि योग दर्शन में इसेयोगसाधन’, कपिलमुनि के सांख्यदर्शन में इसेसांख्ययोगपूर्वमीमांसा मेंकर्मयोगतथा उत्तर मीमांसा में इसेब्रह्मयोगकहा गया है। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों के योग को योग कहते हैं। आयुर्वेद शास्त्र में विभिन्न औषधियों की योजना को भी योग कहते हैं।

जीवात्मा का परमात्मा से एकता कराने वाले साधन (साधन सामग्री) सभी मनुष्यों के लिए एक ही होकर प्रत्येक मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं बोद्धिक क्षमता एवं आध्यात्मिक अभिरूचि के अनुसार अनेक प्रकार के होते हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने अधिकार एवं सामथ्र्य के अनुसार स्वयं ही अपने लिए अथवा श्री गुरूदेव के आदेशानुसार उपयुक्त साधन या साधन-सामग्री का उपयोग करता है।

भारत में योगाभ्यास का प्रचलन अत्यन्त प्राचीन काल से ही था। सिन्धु प्रदेश की सभ्यता का अध्ययन करते समय पुरातत्ववेत्ताओं को मिली हुई मूर्तियों को देखने से पता चला था कि इनके शिर, गर्दन तथा धड़ के भाग सीधे थे तथा आॅंखें आधी बन्द थी जो नाक के अग्रभाग पर स्थिर की हुई सी लगती थी। शास्त्रों के अनुसार इस प्रकार सीधे बैठकर ध्यान करने का तरीका पाशुपत योग करने वाले साधकों का था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत में योग विद्या ईसा से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व अर्थात् वर्तमान समय से लगभग 5100 वर्ष पूर्व से ही प्रचलित थी।

हिन्दू धर्मशास्त्रों में अनेकों योगों का विवरण दिया गया है। कुछ प्रमुख योग जिनके अनुसार सततयोगाभ्यास करते रहने से ब्रह्म प्राप्ति हो सकती है उनके नाम हैं -
1 ज्ञान योग 2 राजयोग 3 सांख्य योग 4 हठयोग 5 कर्मयोग 6 लय योग 7 मंत्र योग 8 शक्ति योग 9 ध्यान योग 10 भक्ति योग 11 क्रिया योग 12 नाद योग 13 बिहंगम योग 14 पिपीलिका योग 15 गीता में वर्णित 18 योग 16 शिव योग 17 जप योग 18 प्रेम योग 19 अस्पर्श योग 20 शून्य योग 21 राजाधिराज योग 22 महायोग 23 भृगु योग 24 तारक (दीपक ज्ञान) योग 25 पाशुपत योग।

उपरोक्त वर्णित योग पद्धतियों के अतिरिक्त अन्यान्य योग पद्धतियों का विवरण भी विभिन्न शास्त्रांे में उपलब्ध है। यदि प्रत्येक योग पद्धति के सम्बन्ध में संक्षेप में भी लिखा जाये तो एक ब्रहद् ग्रन्थ ही तैयार हो जायेगा। अतः यहाॅं पर कुछ प्रमुख-प्रचलित योग पद्धतियों का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया गया है। जिज्ञासु व्यक्ति (योगाभ्यासी) को चाहिए कि वह अनुभवी गुरू के कुशल निर्देशन में ही योगाभ्यास करे ताकि लक्ष्य प्राप्ति की जा सके।

समस्त योग साधनाओं का सार तत्व यही है कि मनुष्य के अन्दर परमात्मा की असीम शक्ति, अनन्त ज्ञान तथा अनन्त आनन्द विद्यमान है। मनुष्य की वासनाऐं, संसार के प्रति आसक्ति, मिथ्या अहंकार तथा काम-क्रोधादि बाधाऐं उसे तो ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का अनुभव करने देती है और इनको विकसित ही होने देती है। इन्हीं सब बिघ्न-बाघाओं को दूर करके ईश्वर प्राप्ति हेतु प्रयास करते रहना ही योग साधना का मूल उद्देश्य है।

कोई भी साधक ब्रह्म प्राप्ति हेतु चाहे किसी भी योगमार्ग पर अग्रसर हो उसे अष्टांग योग का पालन किए बिना सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। जो मनुष्य योग के आठ अंगों का साधन कर लेता है उसका अन्तःकरण पवित्र हो जाता है। हमारे ऋषि-महर्षियों द्वारा बताया गया है कि अष्टांग योग के आठ विभिन्न अंग उन आठ सीडि़यों की तरह हैं जिन पर चढ़कर ही ब्रह्मप्राप्ति रूपी राजमहल तक पहुॅंच सकते हैं। यह भी कह सकते हैं कि अष्टांग योग (यम-नियम) रूपी नींव पर ही समाधि रूपी महल को खड़ा किया जा सकता है।

महर्षि पतंजलि के ‘‘योग श्चित्त बृत्ति निरोधः’’ का तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार तरंगरहित जल में मनुष्य अपना मुॅंह देख सकता है उसी प्रकार चित्तवृत्तियों का निरोध होते ही मनुष्य अपने अन्तःकरण में ही ईश्वर के दर्शन कर सकता है।

योग के आठ अंग हैं-
1.       यम,
2.       नियम,
3.       आसन,
4.       प्राणायाम,
5.       प्रत्याहार,
6.       धारणा,
7.       ध्यान,
8.       समाधि 

उपरोक्त आठ अंगों में से प्रथम 5 अंगों को बाह्य अंग तथा अन्तिम 3 अंगों को आन्तरिक अंग कहते हैं क्योकि प्रथम 5 अंगों का सम्बन्ध मनुष्य की बाहरी इन्द्रियों से रहता है तथा अन्तिम 3 अंगों का सम्बन्ध उसके अन्तःकरण से होता है।

1.       यमः
यम के अन्तर्गत बाहरी इन्द्रियों का निरोध किया जाता है। यम का अभ्यास करने वाले व्यक्ति को मन-वचन-कर्म से निम्न 5 कार्यों का सम्पादन तथा अभ्यास करना होता है। ये 5 कार्य हैं-
                                             I.            अहिंसा- किसी भी प्राणी की हिंसा करना।
                 II.     सत्य- कभी झूठ न बोलना।
                III.     अस्तेय- कभी चोरी न करना। 
                IV.     ब्रह्मचर्य- मन, वचन तथा कर्म से ब्रह्मचर्य का पालन करना।
                 V.     अपरिग्रह- कभी द्रव्य संचय न करना।

2 नियम
नियमों के अन्तर्गत आन्तरिक इन्द्रियों का निरोध किया जाता है। ये निमय 5 हैं-
                                 I.            शौच- पवित्रता भी 2 प्रकार की होती है। बाह्य तथा आन्तरिक। बाह्य पवित्रता के अन्तर्गत अपने शरीर तथा आहार-व्यवहार को पवित्र रखना होता है। आन्तरिक दुर्गुणों यथा ममता, राग-द्वेष, काम-क्रोध तथा अहंकार का त्याग करने से आन्तरिक पवित्रता होती है।
                                II.            सन्तोष- सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश आदि किसी भी परिस्थिति में प्रसन्न रहने का नाम ही सन्तोष है।
                              III.            तप- कष्ट सहते हुए भी अपने धर्म का पालन करना तथा विपरीत परिस्थितियों में भी अपने साधनामार्ग में बढ़ते ही रहने का नाम तप है।
                              IV.            स्वाध्याय- सद्ग्रन्थो का अध्ययन तथा अपने देवी-देवताओं का चरित्र पाठ करना ही स्वाध्याय कहा जाता है।
                               V.            ईश्वर प्राणिधान- मन-वचन-कर्म से अपने उपास्य को प्रसन्न करना तथा बिना उसे समर्पित किये किसी वस्तु का उपभोग करना ही ईश्वर प्राणिधान कहा जाता है।

3 आसन-
शरीर को स्वस्थ्य रखने, मानसिक शान्ति एवं तनाव को दूर करने के लिए विभिन्न आसन किए जाते हैं। शास्त्रों में विभिन्न प्रकार के आसनों का विस्तृत विवरण दिया गया है।

4 प्राणायाम-
प्रणायाम करने से साधक का चित्त स्थिर होता है तथा शरीर हल्का होने लगता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य नासिका द्वारा अन्दर-बाहर होने वाली वायु की गति को नियंत्रित करता है। प्राणायाम के अन्तर्गत 3 क्रियायें होती है। पूरक, रेचक तथा कुम्भक। अन्त में जब साधक केवल कुम्भक करने में निपुण हो जाता है तो उसे सिद्धि प्राप्त हो जाती है।

5 प्रत्याहार-
बहिर्मुखी मन को अन्तर्मुखी बनाने के अभ्यास को प्रत्याहार कहते हैं। इससे साधक का मनोबल बढ़ता है तथा उसे मानसिक शान्ति मिलती है।


6 धारणा-
अपने मन की चित्त वृत्तियों को बहिर्जगत से अन्तर्जगत में ले जाकर किसी एक स्थान- बिन्दु में स्थिर कर देना ही धारणा कही जाती है। धारणा हेतु निर्धारित स्थान है- हृदय, कंठ, भ्रूमध्य एवं नासिकाग्र आदि।

7 ध्यान-
वाह्य संसार की समस्त गतिविधियों को भूलकर अपने आराध्य देवी-देवता का निरंतर चिन्तन करना ही ध्यान है।

8 समाधि-


यह ध्यान की पराकाष्टा (चरम स्थिति) है। ध्यान में तो पता चलता रहता है कि मैं ध्यान की क्रिया कर रहा हॅूं, किसका ध्यान कर रहा हूॅं तथा मेरे ध्यान का उदद्ेश्य क्या है। समाधि में ये तीनों क्रियायें समाप्त हो जाती हैं। समाधि को ही तुरीयावस्था भी कहते हैं।

1-      हठयोग

हठयोग बहुत प्राचीन योग विद्या है। इसके दो प्रारूप हैं। प्राचीन हठयोग ऋिषि मार्कन्डेय द्वारा प्रणीत है। नवीन हठयोग के प्रवर्तक नव नाथों के गुरू श्री मत्स्येन्द्र नाथ जी हैं। हठयोग का मुख्य उद्देश्य शरीर की समस्त नाडि़यों की शुद्धि करके उत्तम स्वास्थ्य लाभ करना होता है। हठयोग की सिद्धि के लिए साधक (योगी) को षट्कर्मों यथा नेति, धौति, बस्ति, नौलि, त्राटक तथ कपालभाति दश बन्धों यथा महामुद्रा, महावेध, महाबन्ध, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, खेचरी, उड्यिानबन्ध, बज्रोली, विपरीतकरणी तथा शक्तिचालिनी एवं तीन प्राणायामों पूरक, रेचक तथा कुम्भक का अभ्यास करना होता है। हठयोग की सफलता के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक होता है अन्यथा हठयोगियों के शरीर को नाना प्रकार की रोग-ब्याधियाॅं घेर लेती हैं। वर्तमान में तो हठयोग के योग्यगुरू ही उपलब्ध हैं और योगाभ्यासी ही। अतः आज के सामाजिक परिवेश में हठयोग के अभ्यास से सिद्धि प्राप्त करना आसान नहीं है। हठयोगी के समस्त अभ्यास शरीर तक ही सीमित होते हैं। अतः स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने (मृत्यु) पर जीवन भर किए गए अभ्यास का परिणाम भी नष्ट हो जाता है। हठयोग द्वारा प्राणवायु का निरोध कर भी लिया जाये तो भी मन की चंचलता समाप्त नहीं होती है।

2- राजयोग

राजयोग के अन्तर्गतयोगः चित्त वृत्ति निरोधःके सिद्धान्त का पालन किया जाता है। राजयोगी सतत प्रयास करके अपनी चित्त वृत्तियों का निरोध करता है। वह अपने चित्त रूपी शीशी में ढक्कन लगा देता है ताकि उसके अन्दर वृत्तियाॅं घुस ही सके। राजयोगी मन निरोध के लिए दो विधियों का प्रयोग करता है। प्रथम विधि में वह प्राण स्पन्दों अर्थात् श्वास-प्रश्वास की गति को नियंत्रित करता है। इसके लिए उसे अष्टांग योग की प्रक्रियाओं का पालन करना होता है। मन का निरोध होने से प्राण का निरोध स्वतः ही हो जाता है। दूसरे उपाय के अन्तर्गत वह अपने ज्ञान द्वारा अपने मन को बाहरी विषयों से हटाने का अभ्यास करता है। संसार तथा उसकी समस्त वस्तुओं की क्षणभंगुरता का आभास हो जाने पर मन स्वतः ही नियंत्रित होने लगेगा। अतः राजयोगी धारणा, ध्यान तथा समाधि प्राप्त करके ब्रह्मशाक्षात्कार कर लेता है। राजयोग की समस्त क्रियायें मानसिक स्तर पर होती हैं तथा ये उसके अन्तःकरण को प्रभावित करती है। अतः शरीर नष्ट हो जाने पर भी राजयोगी के अच्छे सस्कांर नष्ट होकर बीज रूप में विद्यमान रहते हैं। अहंकार रहित राजयोगी शुद्ध मन, बुद्धि और चित्त का सहारा लेकर जीव और ब्रह्म की एकता का अनुभव करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
3- ज्ञानयोग

इस योग में स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, महाकारण शरीर तथा अति महाकारण शरीर का आत्मा से भिन्नता सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। ब्रह्म और आत्मा की एकता ही इस योग का लक्ष्य होता है। जब तक जीव और ईश्वर में भेद का भाव बना रहेगा तब तक जीव ईश्वर से डरता ही रहेगा।मैं और मेरामिथ्या भाव ही सारे अनर्थों की जड़ एवं जीव के बन्धन का कारण होता है। ज्ञान योगी सदैव समाधि अवस्था में रहता है और कभी माया के वशीभूत नहीं रहता है। वह बलपूर्वक अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं करता वरन् उनका साक्षी बन जाता है। ज्ञान मार्ग अत्यन्त कठिन है। श्री तुलसी ने कहा है-
‘‘ज्ञान पंथ कृपाण की धारा-परत खगेश होइ नहिं बारा’’

ज्ञान योगी को ज्ञान की 7-भूमिकायें पार करके अपनी आत्मा का परमात्मा से मिलन कराना होता है।
ये 7-भूमिकायें हैं-
                                 i.            शुमेच्छा
                                ii.            विचारणा
                              iii.            तनुमानसा
                              iv.            सत्वापत्ति
                                v.            असंसक्ति
                              vi.            पदार्थाभाविनी
                             vii.            तुर्यगा।

इनका संक्ष्प्ति विवरण निम्न प्रकार है-

                                 i.            शुभेच्छा-                                 शास्त्रों का अघ्ययन एवं सत्संग करके सत्य का अन्वेषण तथा सदैव विवेक और वैराग्य की स्थिति में रहना।
                                ii.            विचारणा-                जो पढ़ा है, सुना है उस पर लगातार विचार करना चिन्तन करना, सदाचार एवं सद्भावना का विकास करना।
                              iii.            तनुमानसा-             सदैव यह विचार करना कि पंचभूतात्मक देह नाशवान है जबकि आत्मा नित्य शुद्ध-बुद्ध है। अतः सदैव इन्द्रिय विषयों से घृणा करनी चाहिए।
                              iv.            सत्वापत्ति-             अपने मन-चित्त को विषयों से हटाकर सदैव सत्य में स्थित हो जाना एवंअहं ब्रह्मास्मिकी धारणा रखना।
                                v.            असंशक्ति-              नाना प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाने पर भी उनकी तरफ ध्यान देकर केवल आत्मतत्व में ही दृढ़ स्थिति रखना।
                              vi.            पदार्था भाविनी-       ‘अहं ब्रह्मास्मिरूपी अहंकार का भी लय कर देना। संसार के समस्त नाशवान पदार्थो की असत्ता का अभ्यास।
                             vii.            तुर्यगा-     सदैव आत्म स्वरूप में स्थित रहना। इस अवस्था का अनुभव जीवनमुक्त साधकों को हो जाता है।

उपरोक्त 7-भूमिकाओं को पार करके लगातार सन्तों के सम्पर्क में रहते हुए इस संसार एवं संसार के समस्त पदार्थों से निर्लिप्त रहकर साधना करना ही इस योग की प्रमुख विशेषता है।


4- भक्तियोग

यदि भक्ति योग का विस्तृत विवेचन किया गया तो एक बृहद् ग्रन्थ ही तैयार हो जायेगा। अतः यहाॅं पर केवल दो सर्वमान्य एवं प्रचलित ग्रन्थों-गीता और रामचरित मानस के कुछ उदाहरण देकर इस योग का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। भक्ति योगी स्वयं को श्री भगवान का अत्यन्त तुच्छ, दीन-हीन सेवक समझते हुए अपने जीवन में यश-अपयश, मान-सम्मान, तिरस्कार-प्यार, हानि-लाभ तथा सिद्धि-असिद्धि की चिन्ता करते हुए द्वेष रहित होकर, इस संसार के समस्त पदार्थों को भगवान का ही समझकर, उसी को अर्पित करते हुए ‘‘तेरा तुझको अर्पण-क्या लागे मेरा’’ की भावना से, श्रद्धापूर्वक मन-वचन-कर्मों से भगवान की शरण में जाकर उसके नाम, रूप और गुणों का चिन्तन करता रहता है।
भक्तियोग का एकमात्र लक्षण उसका ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण है। वह अपने प्रभु का सेवक बनकर गर्व का अनुभव करता है।
‘‘अस अभिमान तजहुॅं जनि भोरे-मैं सेवक रघुपति प्रभु मोरे’’
‘‘सेवक सेव्य भाव विनु-भव तरिय उरगारि’’        (मानस)

भक्तियोगी का एक मात्र लक्ष्य आध्यात्मिक आकाश में उस ऊॅंचाई तक पहुॅंच जाना होता है जहाॅं पर वह स्वयं को सदैव अपने भगवान के अति निकट अनुभव कर सके। भगवान का गुण-गान-कीर्तन करते समय वह भावविभोर होकर नाचने लगता है तथा उसकी आंखों से प्रेम के आॅंसू निकलने लगते हैं (श्री चैतन्य महाप्रभु) इस स्थिति का वर्णन श्री रामचरित मानस में किया गया है-
‘‘मम गुन गावत पुलक शरीरा-गद्गद गिरा नयन बह नीरा’’

श्री कृष्ण द्वारा गीता में कहा गया है-
 कौन्तेय प्रति जानीहि- मे भक्त प्रणश्यति’’
 मन्मना भव मद्भक्तो-मद्याजी मां नमस्कुरू
 तेषामंह समुद्धर्ता-मृत्यु संसार सागरात्’’
 मय्यर्पित मनोबुद्धि-यो मद्भक्तः मे प्रियः।

श्री रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में कागभुशंडि-गरूड़ सम्वाद के अन्तर्गत ज्ञान-भक्ति का अत्यन्त ही सुन्दर एवं आनन्द दायक वर्णन किया गया है। श्री तुलसी ने वेदादि-उपनिषदों के गूढ़ज्ञान का अध्र्यदान इस संवाद में देकर सामान्य बुद्धि के व्यक्ति को भक्ति का उपहार सा दे दिया है। श्री तुलसी ने भक्ति की श्रेष्टता सिद्ध करते हुए क्या-क्या लिख डाला है देखिए-
भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी-बिनु सतसंग पावहि प्रानी।
भगति करत बिनु यतन प्रयासा-संसृति मूल अविद्या नासा।
अस विचारि हरि भगत सयाने-मुक्ति निरादर भगति लुभाने।
राम भजत सो मुक्ति गुसांई-अनइच्छित आवइ बरिआई।
पुनि रघुवीरहि भगति पियारी-माया खलु नर्तकी बिचारी।

भगवान श्री राम द्वारा शबरी को नवधाभक्ति (नौ प्रकार की भक्ति) का जो उपदेश दिया गया था उसके अनुसार-प्रथम भक्ति-सन्तों का संग। द्वितीय भक्ति-प्रभु की कथा का श्रवण। तृतीय भक्ति-गुरू चरणों की सेवा। चतुर्थ भक्ति-कपट रहित होकर श्री भगवान के गुणों का स्मरण करना। पंचम भक्ति-दृढ़ विश्वास के साथ भगवान के मंत्र का जप करना। छटी भक्ति-संयम-नियम का पालन करते हुए संसार के प्रति वैराग्य भाव रखना, सातवीं भक्ति-समस्त संसार में भगवान को ही व्याप्त देखना। आठवीं भक्ति-प्रभु कृपा से जो भी मिल जाये उसी पर संतोष करना। नवम भक्ति-समस्त प्राणिमात्र से निश्छल-निष्कपट व्यवहार करना तथा हर्ष-विशाद त्याग कर प्रभु पर विश्वास रखना।
यहाॅं पर भक्तप्रवर श्री प्रहलाद द्वारा बताई गई 9 प्रकार की भक्तियों का उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा। ये 9 प्रकार की भक्तियां हैं-


‘‘श्रवणं कीर्तन विष्णो-स्मरणम पादसेवनम्
अर्चनं बन्दनं दास्यं-सख्य आत्मनिवेदनम्’’

किन भक्तों ने किन विधियों से भगवान की भक्ति करके अपनी आत्मा का उद्धार किया देखिए-
·         राजा परीक्षित ने-श्रवण करके।
·         नारद ने-कीर्तन करके।
·         अजामिल ने-स्मरण करके।
·         हनुमान ने-पाद सेवन करके।
·         शवरी ने-अर्चन करके।
·          नलकूवर ने-वन्दन करके।
·         लक्ष्मण ने-दास बनकर।
·         अर्जुन ने-सखा बनकर।
·         द्रोपदी ने-आत्मनिवेदन करके।


5- सांख्ययोग

इस योग का नाम संख्या के आधार पर पड़ा है क्यांेकि इस शास्त्र में तत्वों की संख्या 25 मानी गई है (कोई 24 ही तत्व भी मानते हैं)
                                                                ‘‘संख्यया कृतमिति सांख्यम्’’

सांख्य शास्त्र के प्रतिपादक महर्षि कपिल हैं। सांख्य शास्त्र के सिद्धान्तों का पालन करना सामान्य योगी के लिए आसान नहीं है। यह बहुत प्राचीन शास्त्र है जो प्रकृति और पुरूष का अस्तित्व स्वीकार करता है। इसका वर्णन ऋिग्वेद तथा उपनिषदों में भी मिलता है। सांख्ययोगी संसार के समस्त कर्मों का परित्याग करके ब्रह्मज्ञान की खोज में लगा रहता है। सांख्य शास्त्र के अनुसार प्रकृति ही समस्त ब्रह्मांड के कार्यों का संचालन करती है जबकि पुरूष निश्चेष्ट पड़ा रहता हैं। सांख्य का पुरूष ही आत्मा है जो अकर्ता है तथा समस्त प्रपचों से निर्लिप्त रहता है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब प्रकृति अपने कार्य व्यापार-गतिविधियाॅं बन्द कर देती है और माया संकुचित हो जाती है तो पुरूष को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

श्री गीता में सांख्य योगी की स्थिति का वर्णन करते हुए बताया गया है कि उसके समस्त कार्य स्वाभाविक रूप से ही हुआ करते है। वह इन समस्त कार्यो में तो लिप्त ही रहता है और वह उनसे किसी फल की आशा ही करता है। चलने-फिरने, उठने-बैठने, हंसने-रोने, देखने-सुनने, सोते-जागते यहाॅं तक कि आॅंखों की पलकों के खुलने-बन्द होने तक में वह सोचता है कि ये इन्द्रियाॅं अपने-अपने कार्य स्वयं कर रही है। उसे किसी भी कार्य को करने का अहंकार भी नहीं रहता है। सांख्य योग के द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लेना अत्यन्त कठिन कार्य है। अनेक जन्मों की कठिन तपस्या तथा पुण्यलाभ करके ही वह इस मार्ग का वरण करता है। सांख्य योगी की आत्मा सदैव ब्रह्म में ही लीन रहती है और अन्त में उसे अपनी अन्तरात्मा में ही अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं।

6- कर्मयोग

जो व्यक्ति निस्वार्थ एवं निष्काम भाव से शुभ कर्म करता है उसे कर्मयोगी कहा जाता है। सच्चा कर्मयोगी अपने सत्कर्मों का फल भी श्री भगवान को ही समर्पित करके निरभिमानी बन कर रहता है तथा कर्मफलों के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान की उच्च भूमिका में पहुॅंचकर वह मृत्यु के बन्धन से अपने को मुक्त कर लेता है। श्री गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अनके स्थानों पर कर्मयोग के महत्व और महिमा का गुणगान किया है। देखिए-

  •           नियंत कुरू कर्मत्वं-कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
  •           तस्मादसक्त संततं-कार्यं कर्म समाचर।
  •    कर्मणैवहि संसिद्धि-मास्थिता जनकादयः।
  •       युक्तः कर्म फलं त्यक्त्वा-शान्ति माप्नोति नैष्ठिकीम्।
  •    कर्मण्येवाधिकारस्ते-मां फलेसु कदाचन।


7- नादयोग

यह एक अकाट्य सिद्धान्त है कि मन के स्थिर हुए बिना कोई भी योग सिद्ध नहीं हो सकता है। शिव संहिता में बताया गया है कि मन को लय करने का सर्वोत्तम साधन नाद ही है। नाद साधन का तात्पर्य है ‘‘सावधान एवं सचेत होकर एकाग्र भाव से अपने अन्दर स्वयं प्रस्फुटित होने वाले (अनहद) नादों को सुनना’’

योग शास्त्र के प्रवर्तक भगवान श्री महादेव जी ने मन को लय करने के सवालाख साधन बताए हैं। उन सब में नादयोग का साधन ही सहज एवं सर्वोत्तम है। ऐसे नादयोग को प्रणाम किया गया है-
‘‘नादानुसन्धान नमोस्तु तुम्यं-त्वां मन्महे तत्वपदं लयानाम्’’

शिव संहिता में नादयोग के सम्बन्ध में कहा गया है।
‘‘न खेचरी समामुद्रा-न नाद सदृसो लयः’’
नादयोग की सिद्धि के लिए केवल आसन और प्राणायाम का सतत अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है वरन् नाड़ीशोधन एवं जप भी आवश्यक है। जब तक समस्त नाड़ीमन्डल का शोधन नहीं होगा तब तक अनहद नाद प्रकट नहीं हो सकता है। जब सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर प्राणवायु का प्रवेश होता है तभी अनहद नाद सुनाई देने लगता है। एक अवस्था ऐसी भी आती है जब कुन्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है और ब्रह्मज्ञान सुलभ हो जाता है। ऐसा साधक (योगी) मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। नादानुसन्धान की प्रक्रिया में आसनों तथा प्राणायाम के साथ ही मुख्य रूप से मूलबन्ध, उड्यिानबन्ध तथा जालन्धरबन्ध का विशेष योगदान होता है।

श्री शंकराचार्य कहते हैं कि नाद में विचित्र शक्ति होती है। भीतर से प्रस्फुटित होने वाले इस संगीत का माधुर्य और आनन्द ऐसा प्रभावशाली होताह कि तुरन्त ही साधक का मनोलय होकर प्राण पर विजय प्राप्त होती है तथा समस्त वासनाओं का क्षय हो जाता है।
‘‘इन्द्रियाणां मनोनाथो-मनो नाथस्तु मारूतः
मारूतस्य लयोनाथ-स लयो नाद माश्रितः’’
                                                                (हठयोग प्रदीपिका)

नादयोग का सतत अभ्यास करते रहने से साधक को अपनी सामथ्र्य के अनुसार विभिन्न प्रकार के अनुभव होने लगते हैं। पहले झींगुर की झनझनाहट जैसा नाद (झिं-झिं-झिं  शब्द) भ्रमर की गंुजार (गंु-गंु-गुं शब्द) झांझ की झनकार, बंशी की तान, बादल का गर्जन, घन्टा, घडि़याल, तुरही, मृदंग जैसे बाजों की ध्वनियां सुनाई पड़ती है। ऐसी ध्वनियां सुनकर साधक के शरीर में रोमांच, शिर में हल्का चक्कर आने के साथ ही मुंह में पानी जैसा भर जाता है। ऐसी स्थिति आने पर साधक को घबराना नहीं चाहिए। लगातार अभ्यास करते रहने से हृदय के भीतर से अभूतपूर्व शब्द तथा उसकी प्रतिध्वनि भी कान में सुनाई देती है।

‘‘स्वयं उत्पद्यते नादो-नादतो मुक्ति रन्ततः’’
                                                                                                                (योग स्वरोदय)


गोरक्ष संहिता में कहा गया है-
‘‘अनाहतस्य शब्दस्य-तस्यं शब्दस्य यो ध्वनि
ध्वने अन्तर्गतं ज्योति-ज्योति अन्तर्गत मनः’’

वायवीय संहिता में कहा गया है कि पराप्रकृति आद्याशक्ति ही नादरूप होती है-

‘‘आसीद्विन्दु स्ततोनादो-नादात् शक्ति समुद्भवः
नाद रूपा महेशानि-चिद्रूपा परमा कला’’

शास्त्रों में कहा गया है कि नाभिस्थान में वायु धारण करने से स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। पूरक करने पर गुंजारव आरम्भ होेने लगता है। प्राणवायु में कम्पन होने लगता है। ऐसा अनुभव होता है कि यह गुंजारव (भ्रमर की जैसी आवाज) भू्रमध्य की तरफ अग्रसर हो रहा है। तब मस्तक में गर्मी का अनुभव भी होता है। इस नाद में साधक का मन उसी प्रकार लीन हो जाता है जैसे बीन की आवाज सुनकर सांप की दशा हो जाती है। अन्त में साधक का मन अनाहत पद्म में उत्पन्न प्रतिध्वनि के भीतर ही ज्योति का दर्शन कर उस ज्योतिर्मय ब्रह्म में लीन हो जाता है।

यह सब तर्क तथा अध्ययन का ही विषय नहीं है वरन् पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास पूर्वक सतत् अभ्यास करने से ही अनुभव किया जा सकता है। अतः नादयोग की महिमा का जितना गुणगान किया जाये उतना कम ही है। शिव संहिता में कहा गया है-
‘‘न नादेन बिना ज्ञानं-न नादेन बिना शिवः
नादरूपं परंज्योति-नादरूपी परो हरिः’’
संर्व चिन्तां परित्यज्य- सावधानेन चेतसा
नाद एवा नुसन्धेयो-योग साम्राज्य मिच्छता।

             (योग तारावली)

8- क्रियायोग 

यह एक प्राचीन योगविद्या है जो श्वास-प्रश्वास (प्राणायाम) की क्रियाओं पर आधारित हे। महाभारत काल में श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को इस योग का उपदेश देते हुए इसकी विधि बताई गई थी-
‘‘अपाने जुह्वति प्राणं-प्राणेपांन तथा परे
प्राणापान गतीरूद्ध्वा-प्राणायाम परायण’’

अर्थात् इस विचित्र प्राणायाम को जानने वाले योगी प्राणशक्ति को नियंत्रित करने के लिए प्राणवायु तथा अपानवायु की गति को रोककर प्राणों का प्राणों मंे ही हवन करते हैं।

गीता के अध्याय 4 श्लोक 1 तथा 2 में श्री कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते हैं कि उन्होंने इस योगविद्या का ज्ञान सूर्य को भी दिया था और यह योग परम्परागत रूप से मनु तथा इक्ष्वाकु को भी प्राप्त हुआ था। इसके पश्चात् यह योग पृथ्वी में लुप्तप्राय हो गया था।

क्रियायोग विज्ञान के योगियों तथा सिद्धों की गुरू परम्परा हजारों वर्ष पूर्व से चली आ रही है। माना जाता है कि महायोगेश्वर श्री शिव जी ने अमरनाथ की गुफा में श्री पार्वती जी को ‘क्रिया कुन्डलिनी प्राणायाम’ की दीक्षा दी थी। उसके पश्चात श्री शिव द्वारा ही कैलाश पर्वत पर अगस्त्य ऋषि को भी इस योग की दीक्षा दी गई थी। भारत के दक्षिणी भूभाग में प्राचीन काल से ही इस विद्या में पारंगत अनेकों सिद्ध-योगी हो चुके हैं। यहाॅं तक मान्यता है कि महर्षि अगस्त्य, महर्षि पतंजलि महर्षि बाल्मीकि, श्री मत्स्येन्द्रनाथ (नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक) श्री गोरखनाथ तथा वैद्यराज श्री धन्वंतरिमहाराज भी क्रिया योग के ही साधक थे।

जैसा कि श्री गीता में बताया गया है कि यह क्रियायोग विद्या पिछले हजारों वर्षो तक इस पृथ्वी पर लुप्तप्राय हो गई थी। इस योगविद्या को परिमार्जित करके पुनः पृथ्वी पर अवतरित कराने का श्रेय महावतार बाबाजी (दक्षिण भारत में नागराज बाबा के नाम से सुविख्यात) को जाता है जिनको दक्षिणभारत में जन्म लिए लगभग 1800 वर्ष हो चुके हैं। इसका उल्लेख श्री बाबा जी द्वारा अपने प्रिय शिष्य श्री लाहिड़ी महाशय से किया गया था। अपना पार्थिवशरीर त्यागने के पश्चात भी श्री बाबा जी द्वारा स्वयं पार्थिवशरीर में प्रकट होकर जिन महान सिद्धों-सन्तों को क्रिया योग की दीक्षा दी गई थी उनमें से आदि शंकराचार्य, सन्त कवीर, श्री लाहिणी महाशय, श्री युक्तेश्वर गिरि, श्री परमंहस योगानन्द, श्री रमैया तथा श्री नीलकन्टन के नाम प्रातः स्मरणीय है। आज के समय में भी क्रियायोग के विभिन्न स्तरों के साधक न केवल भारत वरन् अमेरिका, कनाडा, आस्टेªलिया, न्यूजीलैन्ड, मलयेशिया, श्रीलंका आदि देशों में साधनारत हैं। क्रिया योग के प्रचार-प्रसार एवं इस वैज्ञानिक योगपद्वति को विश्व की भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित एवं जीवित रखने के उद्देश्य से परमहंस योगानन्द जी द्वारा ‘योगदा सत्संग सोसायटी आफ इन्डिया’ तथा ‘सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप एवं राॅंची (भारत) में योगदाशाखा मठ एवं आश्रम की स्थापना की गई थी। योगी श्री रमैया तथा श्री नीलकन्टन द्वारा विदेशों में भी योगाचार्यों, सेमीनारों तथा प्रवचनों के माध्यम से क्रियायोग की शिक्षा के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था की गई है।

क्रियायोग की साधना अत्यन्त वैज्ञानिक साधना ही नहीं विचित्र कला भी है। क्रियायोग का साधक क्रमबद्ध रूप से निश्चित समय पर घन्टों तक ध्यान में बैठकर अपने गुरू द्वारा बताए गए विधान तथा नियमों का पालन करते हुए एक-एक सीढ़ी पर चढ़ता हुआ आगे बढ़ता जाता है। वह किसी चमत्कार एवं परिणाम की आशा नहीं करता, केवल अपना कर्तव्य करता जाता है। यहाॅं पर अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में इस विषय पर लिखा जा रहा है।

क्रियायोग को महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र 2ः1 में निम्न प्रकार परिभाषित किया हैः
‘तपः स्वाध्याय ईश्वर प्राणिधानानि क्रिया योगः’
अर्थात तप करके, स्वाध्याय करके तथा ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित होकर जो साधना की जाती है वही क्रियायोग है। क्रिया योग का साधक प्राणायाम की विभिन्न क्रियाओं से श्वास-प्रश्वास की गति को विच्छेदित करके परमानन्द की अवस्था प्राप्त कर लेता है जैसा कि महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र 2ः49 में बताया है-
‘श्वास प्रश्वासयो गति विच्छेदः प्राणायामः’
क्रियायोग की साधना पूर्णतया प्राणवायु के नियंत्रण पर आधारित है। क्रियायोग का साधक जानता है कि श्वास-प्रश्वास पर नियंत्रण करके ब्रहमानन्द की प्राप्ति की जा सकती है। साधक बाहरी-सांसारिक कार्यो में अनावश्यक रूप से व्यय की जाने वाली प्राणवायु को बचाकर उसका उपयोग आन्तरिकशक्ति एवं शान्ति प्राप्त करने के लिए करता है तथा ऐसी अवस्था प्राप्त करना चाहता है जहाॅं पर श्वास लेने की भी आवश्यकता न पड़े।

क्रियायोग की साधना में शरीर में स्थित षट्चक्रों में ध्यान को क्रेन्द्रित करके एवं विभिन्न आसनों तथा मुद्राओं का समुचित उपयोग करके ब्रहमानन्द की प्राप्ति की जाती है। साधक अपनी संकल्पशक्ति के द्वारा अपनी प्राणवायु को इन चक्रों पर केन्द्रित करता हुआ अपनी चित्तवृत्ति को अन्तर्मुखी कर देता है। ऐसा करते रहने से साधक के शरीर में आध्यात्मिक शक्ति का संचार होने लगता है। स्पष्ट है कि साधक अपनी प्राणशक्ति का समुचित प्रयोग करके अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण कर लेता है। एक क्रियायोगी अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्राणशक्ति को शरीर के एक भाग से दूसरे भाग में भी स्थानान्तरित कर सकता है। यही प्राणवायु जब सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती है तो साधक की लक्ष्य प्राप्ति हो जाती है और उसे अद्भुत एवं रोमांचक अनुभव भी होने लगते हैं और आगे का मार्ग निष्कंटक बन जाता है।

यहाॅं पर यह उल्लेख करना भी युक्ति संगत होगा कि क्रियायोग की साधना (श्वास-प्रश्वास साधना) सुनने तथा पढ़ने में जितनी सरल प्रतीत होती है उतनी है नहीं। एक जिज्ञासु साधक को ब्रह्मानन्द प्राप्ति करने में कई जन्म भी लग सकते हैं। इस मार्ग पर वही साधक धैर्यपूर्वक स्थिर रह सकता है जिसके पूर्व जन्म के कर्म-संस्कार पवित्र हों। इतना ही नहीं इस योग की सिद्धि के लिए अनुभवी गुरू के मार्गदर्शन की आवश्यकता भी होती है जो समय-समय पर साधक के सम्मुख उपस्थित होने वाले आध्यात्मिक अनुभवों का विश्लेषण करके अपने शिष्य का समुचित मार्गदर्शन करते हुए उसे साधना के उच्चतम सोपान तक पहुॅंचा सके और उसका जीवन सफल करा सके।


9- शक्ति योग

जिस शक्तियोग के अन्तर्गत 7-प्रकार के विभिन्न योगों यथा राजयोग, भक्तियोग, कुन्डलिनी योग, मंत्र योग, जपयोग, लय योग तथा ध्यान योग का अद्भुत समावेश हुआ हो उस योग की सर्वश्रेष्टता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। समस्त आगम ग्रन्थों में शक्ति योग की भूरि-भूरि प्रसंशा की गई है-
‘‘शक्ति योगः परंयोगः-शक्ति योगः परं तपः
शक्ति योगः परंधामः-शक्ति योगः परा कला’’
जिस शक्ति उपासना के सम्बन्ध में वेदों, आगम-ग्रन्थों, उपनिषदों तथा पुराणों में विस्तार से (परन्तु यत्र-तत्र सांकेतिक रूप से भी) विवेचन किया जा चुका है उसकी महिमा का वर्णन करना मुझ जैसे अल्पज्ञ एवं सामान्य बौद्धिक स्तर के व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। विभिन्न आगम ग्रन्थों में शक्ति उपासना के सम्बन्ध में जो विस्तृत विवरण दिया गया है वह प्रायः आनन्द भैरव-आनन्द भैरवी, शिव-पार्वती, ईश्वर-देवी के आपसी संवाद रूप में (प्रश्नोत्तर एवं शंका-समाधान रूप में) विद्यमान है। ये संवाद अत्यन्त मधुर है। शिव-पार्वती एक दूसरे के प्रति अपने अगाध प्रेम की सौगन्ध देते हुए एक दूसरे से आध्यात्मिक प्रश्न पूछते हैं-
‘‘वद में परमेशान! यदि चास्ति कृपा मयि’’
‘‘स्त्री स्वभावा महेशानि! पुनस्त्वं परिप्रच्छसि’’
‘‘ब्रह्म बिष्णु गुहादिभ्यो-न मया कथितं प्रिये!
कथयामि तव स्नेहात्-श्रुणु स्वैकाग्र मानसा’’
‘‘तव स्नेहाद् वदाम्यद्य-श्रुणु मत्प्राण बल्लभे’’
‘‘तव स्नेहा न्मयाख्यातं-ना ख्येया यस्य कस्य चित्’’
‘‘श्रुणु पार्वति! वक्ष्यामि-देहत्यागं कथं कुरू’’

आगम ग्रन्थों में प्रयुक्त विशेष शब्द यथा कुलेश्वरी, कुलेश, कुलांगना, कुलधर्म, कुलपूजा, कुलद्रव्य, कौलिक, कुलवधू, कुलाचार, कुल माहात्म्य जैसे सांकेतिक शब्द समूह जिज्ञासु साधक को आह्लादित एवं आनन्दित करने में सक्षम हैं। इस सन्दर्भ में कुलधर्म की आगमोक्त परिभाषा देखिए-
‘‘मथित्वा ज्ञान दन्डेन-वेदागम महार्णवम्
सारज्ञेन मयादेवि-कुल धर्म समुधृतः’’

शक्ति उपासना के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत देने का प्रयास किया जा रहा है। जिज्ञासु व्यक्ति से अनुरोध है कि वह किसी पूर्णाभ्षििक्त गुरू की शरण में जाकर अपना मनोरथ सिद्ध करलें। 
  • शक्ति का स्वरूप।
  • शक्ति की महत्ता।
    • शक्ति उपासना की प्राचीन्ता।
    • वेदों के अनुसार।
    • अथर्वशीर्ष के अनुसार।
    • आगमग्रन्थों के अनुसार।
    • पुराणों के अनुसार।
    • विभिन्न साधकों की रचनाओं के अनुसार।
    • पुरातत्ववेत्ताओं की खोजों के अनुसार।
  • शक्ति उपासना की मूल (शाश्वत) अवधारणाः
    • पिन्ड-ब्रह्माण्ड की ऐक्यता।
    • जीव-ब्रह्म की एकता।
    • अद्वैत भावना (अद्वैत वाद)
    • दासता नहीं वरन् ‘‘देवो भूत्वा-देवं यजेत्’’ या ‘‘शिवोभूत्वा-शक्तिं यजेत्’’
  • आगम शास्त्र की परिभाषाऐं।
  • सभी शक्ति के उपासक हैं।
  • पशुभाव, बीरभाव तथा दिव्यभाव।
  • समयाचार, कौलाचार तथा मिश्र आचार
  • पंच मकार-पंच तत्वों का निरूपण।
  • शाक्त धर्म (उपासना) में नारी (प्रकृति)ही शक्ति है।
  • दश महाविद्यायें और उनके उपासक प्रवर।
  • दश महाविद्याओं में श्री श्री विद्या उपासना की श्रेष्टता।
  • श्री विद्या उपासना रूपी अमेद्य दुर्ग (किला) में प्रवेश:
    • जिज्ञासु साधक की न्यूनतम अर्हता (योग्यता)
    • श्री गुरूदेव की खोज तथा उनकी शरण में जाना।
    • श्री गुरू-शिष्य के लक्षण एवं परीक्षा।
    • दीक्षा तत्व, दीक्षा का भेद तथा दीक्षा की अनिवार्यता (महत्व)
    • (ड़) श्री कुन्डलिनी जागरण-शक्ति पात।
    • श्री कुन्डलिनी जागरण के पश्चात साधक की स्थिति।
    • शरीरस्थ षट्चक्रों का विवरण।
    • कुलाचार एवं कुल धर्म।
    • शिष्य के कर्तव्य एवं अनुशासित जीवन यापन।
    • अन्तर्याग एवं बहिर्याग।
    • मंत्र जप तथा पुरश्चरण।
    • विभिन्न न्यास।
    • श्री यंत्र तथा आवरण पूजा
    • कवच, हृदय, स्तोत्र, शतनाम, त्रिशती, सहस्रनाम
    • होम तथा बलिदान
    • कुमारी पूजा एवं सुवासिनी पूजा




1 comment:

  1. यद्यपि सार भाव के रूप में आपने अनेक साधना पथों पर विहंगम दृष्टि डाला है. परञ्च और सुन्दर और विस्तृत करने की कृपा करें

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