शक्ति-उपासना चारों युगों में प्रकाशित एवं प्रतिष्ठापित।
ब्रह्मविद्या (श्री महात्रिपुरसुन्दरी) चारों युगों में वन्दित एवं पूजित रही हैं। यह विद्या सत्युग में इन्द्रादि देवताओं के समक्ष उमा-हेमावती के रूप में प्रकट हुई थी। त्रेतायुग में यही ब्रह्मविद्या महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, परशुराम तथा विदेह जनक द्वारा प्रकट हुई थी। महर्षि वशिष्ठ का महाचीन देश में जाकर चीनाचार द्वारा उपासना करना, विश्वामित्र रचित गायत्री स्तवराज, परशुराम का दशखन्डी कल्पसूत्र तथा राजा जनक की शक्ति उपासना सम्बन्धी अनेकों आख्यान उपलब्ध हैं। द्वापर युग में श्री कृष्ण द्वारा ब्रह्मविद्या प्रकाशित की गई थी। राधातंत्र, देवीभागवत तथा महाभारत में शक्ति उपासना का महत्व प्रतिपादित किया गया है। श्री कृष्ण द्वारा युद्ध-विजय हेतु अर्जुन को मॉं दुर्गा (भद्रकाली) की स्तुति करने का आदेश दिया गया था&
“शुचिर्भूत्वा महाबाहो-संग्रामाभिमुख स्थित:
पराजयाय शत्रूणां-दुर्गा स्तोत्र मुदीरय।
इस आदेश का पालन करते हुए अर्जुन रथ से उतर गए और उन्होंने 78 दिव्य नामों तथा उपाधियों से सम्बोधित करते हुए श्री दुर्गा की दिव्य स्तुति की थी। इस स्तुति का प्रथम श्लोक है –
“नमस्ते सिद्ध सेनानि–आर्ये मन्दर वासिनि
कुमारि कालि कापालि–कपिले कृष्ण पिंगले''
इस स्तुति से प्रसन्न होकर श्री दुर्गा ने अर्जुन को युद्ध में अजेय होने का वरदान दिया था।
(महाभारत-भीष्मपर्व)
हिन्दुओं के घरों में प्रचलित श्री दुर्गा-सप्तशती नामक ग्रन्थ एक पश्चिमाम्नाय का तंत्र-ग्रंथ ही है जो सभी साधकों को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करता है। वास्तव में हिन्दू समाज के वैदिक अनुष्ठान तथा तांत्रिक अनुष्ठान परस्पर इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि इनको पृथक किया ही नहीं जा सकता है। श्रीमद्भागवत् महापुराण, देवीपुराण, शिवपुराण, पार्थिवपूजा, महालक्ष्मी पूजा, सरस्वती पूजा तथा गायत्री उपासना में शक्तिमंत्र, स्तोत्र तथा न्यासादि भरे पड़े हैं। यह सब तंत्रशास्त्र की ही सम्पत्ति है जिसका उपयोग तथाकथित वेदमार्गी उपासक भी जाने-अनजाने नित्य करता ही रहता है।
हिन्दूधर्म, बौद्धधर्म तथा जैनधर्म में शक्ति उपासना।
1-वेदों में शक्तिवाद:
जितने प्राचीन वेद हैं उतनी ही प्राचीन शक्ति-उपासना भी है। वेदों में शक्ति सम्बन्धी अनेकों मंत्रों का उल्लेख मिलता है। इनमें से कुछ मंत्रों को स्पष्ट रूप से तथा अन्य मंत्रों का सांकेतिक रूप से निरूपण किया गया है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वयं वेदों ने भी शक्ति उपासना को अत्यन्त गोपनीय साधना समझा है।
आगम ग्रन्थों में वर्णित मॉं त्रिपुरा के जिस गोपनीय मंत्र का उद्धार-
“कामो योनि: कमला बज्रपाणि:
------------------------------------- विश्वमातादि विद्योम्”
से किया गया है उसी को रिग्वेद में 'चत्वार ई विभ्रति क्षेमयन्त'
से प्रतिपादित किया गया है।
रिग्वेद में वर्णित लक्ष्मीसूक्त से भी प्रमाणित हो जाता है कि वैदिक काल में भी शक्ति उपासना प्रचलित थी। रिग्वेद में वर्णित शक्ति (देवी) का नाम अदिति है जो देवतामयी है। इसी को गायत्री, सावित्री, सरस्वती तथा पृथ्वीमाता के नाम से भी सम्बोधित किया गया है।
रिग्वेद का श्लोक “प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वा जिनीवती'' भी उस काल में प्रचलित शक्ति उपासना का संकेत देता है।
यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में भी इस शक्ति को चित्” शक्ति, स्फुरणा, प्रज्ञा तथा परादेवता के रूप में वर्णित किया गया है। यजुर्वेद के द्वितीय अध्याय में 'सरस्वत्यै स्वाहा' नामक मंत्र से हवन करने का उल्लेख किया गया है। सामवेद का 'वाग्विसर्जन' स्तोत्र पूर्णतया शक्तिस्तोत्र ही है।
सर्वविदित है कि गणपति, शिव, विष्णु तथा सूर्य के उपासकों को भी बिना शक्ति उपासना किए अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती है। इन सभी संप्रदायों के उपासक सर्वप्रथम वेदमाता गायत्री की उपासना के रूप में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शक्ति की उपासना कर ही चुके होते हैं।
''सर्वे शाक्ता द्विजा प्रोक्ता-न शैवा न च बैष्णवा
आदि शक्ति उपासन्ते-गायत्री वेद मातरम्''
इतना ही नहीं यदि किसी भक्त का उपास्य देवता पुरूष
रूप का भी हो तब भी वह उपासना तो उसकी शक्ति की ही करता है क्योंकि शक्ति रहित तो कोई
देवता हो ही नहीं सकता है। रिग्वेद के श्रीसूक्त तथा अथर्ववेद के रात्रिसूक्त में भी
शक्ति की महिमा का सुन्दर गुणगान किया गया है।
2- उपनिषदों में शक्तिवाद:
विभिन्न उपनिषदों में शक्ति-उपासना सम्बन्धी विशद
विवरण उपलब्ध है। रिग्वेद के सरस्वती रहस्योपनिषद तथा सौभाग्यलक्ष्मी उपनिषद में शक्ति
के सम्बन्ध में विस्तार से बताया गया है।
'वहवृचोपनिषद' में श्री ललिता की उपासना सम्बन्धी
'कादि' तथा 'हादि' मतों का विवरण मिलता है। 'भावनोपनिषद' में शाक्त-सम्प्रदाय की मूल
अवधारणा 'पिन्ड-ब्रह्माण्ड की ऐक्यता' तथा उसमें निहित 'अद्वैतवाद' का भी दिग्दर्शन
कराया गया है। 'देवी-उपनिषद' अथर्ववेद के सौभाग्यकान्ड का ही एक भाग है जिसमें पंचदशी
(श्रीविद्या) का विवरण मिलता है। 'केनोपनिषद' में देवराज इन्द्र को भगवती उमा द्वारा
ब्रह्मरहस्य का उपदेश दिया गया है। त्रिपुरातापिनी उपनिषद' में श्रीविद्या के मंत्रोद्धार
के साथ ही शक्ति-उपासना की स्थूल तथा सूक्ष्म वि धियों का विवेचन किया गया है।
3- पुराणों तथा सूत्रसाहित्य में शक्तिउपासना:
पुराणों के अन्तर्गत ब्रह्मान्डपुराण, कूर्मपुराण,
मार्कन्डेयपुराण तथा कालिकापुराण में शक्तितत्व एवं शक्ति-उपासना सम्बन्धी विशाल साहित्य
उपलब्ध है। सूत्र-साहित्य के अन्तर्गत अगस्त्य सूत्र, परशुरामकल्पसूत्र, श्रीविद्यारत्नसूत्र, प्रत्यभिज्ञा-शक्तिसूत्र तथा दत्तसंहिता में भी शक्तिवाद
प्रचुरमात्रा में विद्यमान है।
4-आगमशास्त्रों में
शक्तिउपासना:
आगम (तंत्र) की परिभाषा
आगमशास्त्रों में तंत्र-विद्या को इस प्रकार परिभा षित किया गया है-
(अ) वह शास्त्र (विद्या) जो भगवान श्री शिव जी के मुखकमल से प्रकट होकर मॉं
पार्वती के श्रवणों में प्रविष्ट हुई तथा जिसके प्रभाव से तीनों मल (आणव, मायिक तथा
कार्मिक) विनष्ट हुए वहीं तंत्र विद्या है।
''आगतं शिव वक्त्रेभ्यो-गतं च गिरिजा
श्रुतम्
मलत्रय विनाशत्वाद-आगम: परिकीर्तित:''
(आ) जो विद्या अनेकों प्रकार से उपासक की रक्षा करती
है तथा जिस विद्या में ब्रह्मतत्व का पूर्ण समावेश हुआ है वही तंत्र है-
''तनोति विपुला अर्थान्-तत्व मंत्र समन्विताम्
त्राणं य: कुरूते यस्मात्-तंत्र मित्यमिधीयते''
(इ) जो विद्या साधक की रक्षा करती है तथा उसके ज्ञान
का विस्तार करती है वही तंत्र है-
''तन्यते बिस्तार्यते ज्ञानमनेन इति तंत्रम्''
(ई) तंत्र वह मंत्र विद्या है जिसे श्री गुरू द्वारा
योग्य शिष्य के ही कानों में सुनाया जाता है-
''कर्णात्कर्णोपदेशेन-संप्राप्य अवनीतले''
तथा जिस विद्या के बारे में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि इसका ज्ञान केवल
श्री गुरूमुख से सुनकर ही सम्भव होता है न कि करोड़ों शास्त्रों का अध्ययन करके।
''गुरूमुख विजानीयात्-न तु शास्त्रात् कोटि भि:''
तथा ''संकेत विद्या-गुरूवक्त्र गम्या''
यह समझ लेना प्रासंगिक होगा कि वेदों के 'कर्मकान्ड'
के अन्तर्गत केवल स्वर्गादि सुख-भोग के साधन तथा 'ज्ञानकान्ड' के अन्तर्गत केवल मोक्षप्राप्ति
के साधन बताये गए हैं जबकि तंत्र-शास्त्रों में भोग तथा मोक्ष दोनों को एक साथ ही प्राप्त
कर लेने के उपाय बताये गए हैं।
''यत्रास्ति भोगो न च तत्र भोक्ष:
यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोग:
श्रीसुन्दरी पूजन तत्पराणां''
भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव''
यह जान लेना भी आवश्यक है कि वेदविद्या (वेदमार्ग
की साधना) प्रकट विद्या है जबकि आगम (तंत्र) विद्या अत्यन्त गोपनीय बताई गई है।
''अन्याच सकला विद्या-प्रकटा गणिकाइव
इयंतु शाम्भवी विद्या-गुप्ताकुलवधूरिव''
अर्थात् अन्यान्य सभी विद्याऐं गणिकाओं के समान प्रकट
रहती है जबकि आगम (शाम्भवी) विद्या कुलवधू की तरह गोपनीय (पर्दे के अन्दर) रहती है।
देवाधिदेव महादेव तथा महादेवी के मुख-कमलों से प्रस्फुटित
भोग-मोक्षदायिनी इस महामंत्रविद्या को जो व्यक्ति केवल षट्कर्मों (मारण, मोहन, वशीकरण,
उच्चाटन, स्तम्भन, तथा विद्वेषण) तक सीमित मानके इसे मात्र झाड़-फूंक तथा जादू-टोने
वाली विद्या समझते हैं उनकी सद्बुद्धि हेतु श्री भगवान से प्रार्थना ही की जा सकती
है।
प्रमुख आगम ग्रन्थ-आगमसाहित्य:
प्रख्यात् आगमग्रन्थ 'महाकाल संहिता' में उल्लेख किया
गया है कि शाक्तागम (शक्ति उपासना सम्बन्धी) तंत्रो
की संख्या 64, उपतंत्रो की संख्या 321, संहिताऐं 30, चूड़ामणि 100, अर्णव 9, डामर
4 तथा यामल ग्रन्थों की संख्या 8 है। इसके अतिरिक्त पुराण 6, उपवेद 15, सूक्त 2, कक्षपुटी
3, कल्पाष्टक 8, विमर्शिनी 3, कल्पलता 2, चिन्तामणि 3, तथा कल्पसूक्त 3 हैं। उपरोक्त
ग्रन्थों को पुन: 3 ब्यूहों यथा तंत्र-ब्यूह, यामल-व्यूह तथा डामर- ब्यूह में विभाजित किया गया है।
प्रत्येक ब्यूह में 64 ग्रन्थों को समावेशित करके शाक्त-आगम
ग्रन्थों की संख्या 192 हो जाती है। इसके अतिरिक्त इन 3 ब्यूहों को पृथ्वी के 3 विभागों
(खण्डो) की कल्पना करके 3 खण्डों में विभाजित कर दिया गया है। ये 3 खण्ड अश्वक्रान्त,
रथक्रान्त तथा विष्णुक्रान्त के नाम से प्रचलित है। उपरोक्त 64 तंत्रो में से मोक्षार्थी
शक्ति-उपासकों के लिए परम-उपयोगी एवं प्रमुख तंत्रों (तंत्र-ग्रन्थों) के नाम इस प्रकार
है-
महाकालसंहिता, शक्तिसंगमतंत्र, गंधर्वतन्त्र,
कुलार्णवतंत्र, वाराहीतंत्र, मेरुतन्त्र, महानिर्वाणतन्त्र, तंत्रसार, कुब्जिकातंत्र,
शाक्तप्रमोद, कात्यायनीतंत्र, शारदातिलक, बिश्वसारतंत्र, बड़वानलतंत्र, कुलालिकाम्नायतंत्र,
परातंत्र, वामकेश्वरतंत्र, योगिनीतंत्र, प्राणतोषिणीतंत्र, कामाक्षातंत्र, ब्रहन्नीलतंत्र,
सम्मोहनतंत्र, निरुत्तरतंत्र, ज्ञानसंकलिनीतंत्र, कुमारीतंत्र, सर्वोल्लासतन्त्र, कुलचूड़ामणितंत्र,
शक्तिकागमतंत्र, तन्त्रालोक, स्वच्छंदतन्त्र, भावाचूड़ामणितंत्र, तथा ज्ञानार्णवतंत्र।
8-यामलों के नाम हैं- रूद्रयामल, विष्णुयामल, ब्रह्मयामल, लक्ष्मीयामल,
उमायामल, स्कन्दयामल, ग्रहयामल तथा गणेशयामल।
समस्त आगमसाहित्य एक अगाध महासागर की तरह है। विभिन्न आगमशास्त्रों में कहीं पर प्रकट रूप में तो कहीं पर सांकेतिक
रूप से शक्ति उपासना के सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। तंत्रशास्त्रों
में दश महाविद्याओं (देवियों) तथा उनसे सम्बद्ध उपविद्याओं, षडाम्नाय की देवियों, नवदुर्गाओं,
गायत्री, सावित्री, सरस्वती प्रभृति देवियों के साथ ही शक्ति के अन्यान्य रूपों की
उपासना-पद्धतियों का सविस्तार वर्णन किया गया है। विभिन्न देवियों के यंत्र-निर्माण
तथा उनकी सम्बन्धित मंत्रों से आवरण पूजा, मंत्रों के रिषि, छन्द, बीज, शक्ति तथा कीलक
के साथ ही विभिन्न देवियों, उपविद्याओं के ध्यान, न्यास, कवच, हृदय, पटल, स्तोत्र,
शतनाम, सहस्रनाम, स्तवराज के साथ ही अन्तर्यजन तथा बहिर्यजन का सांगोपांग विवरण भी
इन तंत्रग्रन्थों में उपलब्ध होता है। शैवों, वैष्णवों, सौरों, गाणपत्यों के ही नहीं
वरन् जैनों, तथा बौद्धों के
भी तंत्र-शास्त्र उपलब्ध हैं। ऐसे सभी ग्रन्थ तंत्रशास्त्र की श्रेणी में सम्मिलित
हैं जिनमें किसी भी देवी-देवता के स्वरूप, गुण, वर्ण, स्वभाव तथा उसके आयुधों का विवरण
देते हुए उस देवी-देवता के मंत्रों तथा यंत्रों का उद्धार किया गया हो। एक ही महाविद्या
के अनेकों रूप विद्यमान हैं। इससे सम्बद्ध अनेकों उप विधायें हैं जो सम्प्रदाय-भेद
तथा आम्नाय-भेद से अनेकों शाखा-प्रशाखाओं में विभाजित हो जाती हैं। इन सबके मंत्र-ध्यानादि
भी पृथक हो जाते हैं।
तंत्र-ग्रन्थों तथा यामलों में ब्रह्म का स्वरूप,
जीवात्मा-परमात्मा, जगत की सृष्टि, स्थिति तथा संहार क्रम के विवरण के साथ ही धर्म,
अर्थ, काम तथा मोक्षदायक साधनाओं का भी उल्लेख किया गया है। इन ग्रन्थों में शक्ति
साधकों की कुलपरम्पराओं, कुल गुरूओं, संप्रदाय भेद तथा आम्नायभेद का सविस्तार वर्णन
किया गया है। साधक की दीक्षा से लेकर महापूर्णाभिषेक एवं महाविद्या के दर्शन तक की
अवधि तक उसके लिए निर्धारित अनुशासन एवं विधि-विधानों का भी विस्तार से वर्णन किया
गया है ताकि साधक इस संसार में ग्रहस्थ जीवन-यापन करते हुए भी भोग तथा मोक्ष की प्राप्ति
कर सके। यह भी सत्य है कि आगमग्रन्थों में वर्णित अनेकों विधि-विधानों अत्यन्त दुर्वोध,
गहन एवं सांकेतिक है जिनके अनेकों अर्थ निकाले जा सकते हैं तथा बिना सत्गुरू की शरण
लिए हुए इनकी वास्तविकता का आभास नहीं हो सकता है। यह भी कह सकते हैं कि शक्ति-साधना
के क्षेत्र में तो बिना गुरू की सहायता लिए प्रवेश भी नहीं हो सकता है।
2.बौद्ध धर्म में शक्ति उपासना।
यद्यपि विश्व के सभी बौद्ध-धर्मावलम्बी देशों में शक्ति-उपासना प्रचलित है परन्तु तिब्बत बौद्धधर्म का प्रमुख केन्द्र माना जाता है। बौद्ध उपासना-ग्रंथों तथा
विद्वानों के मतानुसार तिब्बत में शक्ति-उपासना का प्रवेश
7वीं शताब्दी में (आज से लगभग 1400 वर्ष पूर्व) हो चुका था। विद्वानों का अभिमत है कि तत्कालीन तिब्बत सम्राट ने नालन्दा विश्वविद्यालय के महापंडित तथा तंत्राचार्य शान्तरक्षित तथा भारत के प्रसिद्ध योगी-तांत्रिक
पद्मसंभव को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए तिब्बत में आमंत्रित
किया था। तिब्बत का 'लामा धर्म' इन्हीं पद्मसंभव के द्वारा
प्रतिष्ठापित किया गया था। तिब्बत की जनता इनको 'लामारिनपोचे' के नाम से जानती है। 10वीं सदी में विक्रमशिला के महान तांत्रिक 'दीपंकर श्रीज्ञान'
ने तिब्बत जाकर भारतीय तंत्र-ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद कराया था। स्पष्ट
है कि भारतीय तंत्राचार्यों ने तिब्बत में मंत्र-योग तथा तंत्रयोग
का प्रचार-प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी का परिणाम
है कि भारत के अलावा तिब्बत ही एकमात्र ऐसा देश है जहॉं शक्ति-उपासना प्रच्छन्न रूप
से आज भी विद्यमान है।
11वीं सदी में तिब्बत निवासी 'जे-चुन मिल-रेपा' नामक एक प्रसिद्ध तांत्रिक ने मंत्र-तंत्र साधना हेतु एक विशिष्ट विधि को प्रयोग
में लाने का निर्देश दिया था जिसके अनुसार साधक अनेकों वर्षों तक (30-40 वर्ष तक) अंधेरी गुफाओं में छिपकर एकान्त साधना करता है। कहा जाता है कि
उस तांत्रिक 'मिल-रे पा' ने स्वयं तिब्बत स्थित 'लप-ची' नामक एकान्त स्थल में कठोर
साधना की थी। आज भी तिब्बत के लामा साधक ऐसी साधना में तल्लीन रहते हैं। बौद्धों के कर्मकान्ड तथा बाह्यपूजा
पूर्णतया भारतीय तांत्रिकों की भांति ही होती है। हिन्दुओं की भांति बौद्धों में भी दशमहाविद्याओं तथा
उपविद्याओं की पूजा-अर्चना का विधान है। बौद्ध इन देवियों की मूर्तियों तथा चित्रों
का निर्माण करके गुप्त रूप से पूजन-अर्चन करते हैं। बौद्धों के 'महायान' सम्प्रदाय के
अन्तर्गत'बज्रयान' उपसम्प्रदाय तो पूर्णतया तांत्रिक सम्प्रदाय है। बज्रयान संप्रदाय
का प्रमुख मंत्र 'ओम् मणि-पद्मे हुम्' है। इसे बज्रयान सम्पद्राय की गायत्री कहा जाता
है। 'मणि-पद्म' का सांकेतिक नाम 'मणिपूरक चक्र' है। इसका आशय 'मणिभद्र' देवता तथा
'पद्मावती' देवी भी माना जाता है। आज भी लामासाधक एक चरखी को घुमाते
हुए इस मंत्र का अहर्निश जप करते रहते हैं। बौद्धों की उपास्य देवियों 'वज्रवाराही'
तथा 'मणिमेखला' के नाम भी हिन्दुओं की उपास्य देवियों से मिलते
हैं। हिन्दुओं की द्वितीय महाविद्या 'तारा' को बौद्धों द्वारा भी पूजा जाता है। 'प्रज्ञापारमिता' हिन्दुओं
की आद्याशक्ति मॉ काली की भॉंति पूजित तथा वन्दित है।
भारतीय आचार्यों की भांति तिब्बत के तंत्राचार्यों ने भी शक्ति-उपासना विषयक
श्रेष्ट ग्रन्थों की रचना की है। गुह्यसमाजतंत्र, श्रीचक्रसंवर, मंजुश्रीमूलकल्प, साधनमाला
तथा सद्धर्मपुण्डरीक नामक तंत्र-ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं।
3-जैन धर्म में शक्ति उपासना।
जैन धर्म ईश्वरवादी नहीं है। जैनधर्म में 24 तीर्थकरों
की पूजा-अर्चना की जाती है। इस धर्म में पृथ्वी के नीचे तथा ऊपर के लोकों में निवास
करने वाले देवी-देवताओं का वर्णन मिलता है जिनकी पूजा करने से सांसारिक मनोकामनाओं
की पूर्ति होती है। जैन मन्दिरों में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों तथा नई मूर्तियों
की स्थापना के समय यक्ष-यक्षिणियों, योगिनियों तथा अन्य शासन देवी-देवताओं की पूजा
की जाती है। जैन धर्मावलम्बी जिस यंत्र का पूजन-अर्चन करते हैं वह हिन्दुओं द्वारा
प्रयोग किए जाने वाले श्रीयंत्र से लगभग मिलता जुलता है तथा यंत्रपूजन में जिन मंत्रों
का प्रयोग किया जाता है वे मंत्र भी लगभग हिन्दू शक्ति-उपासकों के मंत्रों से मिलते-जुलते
होते हैं। इतना अवश्य है कि जैन उपासक प्रत्येक हिन्दू मंत्र में अपने धर्म के कुछ
शब्दों को जोड़कर मंत्र पढ़ते हैं। भारतवर्ष में अनेक शहरों में निर्मित विशाल देवी
मन्दिर जैन धर्म में विद्यमान शक्ति-उपासना का स्वत: ही परिचय देते हैं।
जैन धर्म में ध्यानयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता देते
हुए उसके प्रमुख 2 भाग 'धर्म-घ्यान' और 'शुक्ल-ध्यान' बताए गए हैं। धर्मध्यान को पुन:
4-उपभागों में बांटा गया है यथा पिन्डस्थ ध्यान, पदस्थ ध्यान, रूपस्थ ध्यान तथा रूपवर्जित
ध्यान। पिन्डस्थ ध्यान तो हिन्दू मंत्रशास्त्र में वर्णित षट्चक्रों के ध्यान से मिलता-जुलता
है। जैन धर्मावलम्बी पूजा-अर्चना में नाना प्रकार के शक्ति मंत्रों का प्रयोग करते
हैं। जैन धर्म में शाक्त-सम्प्रदाय द्वारा मान्य 'सारस्वत कल्प' के अनुसार देवी सरस्वती
तथा उसकी 16-उपविद्याओं (रोहिणी से महामानसिका पर्यन्त) की पूजा की जाती हैं। प्रत्येक
तीर्थकर से सम्बद्ध 24-शासनदेवियों (चक्रेश्वरी से सिद्धायिका पर्यन्त) का पूजन भी
विभिन्न मंत्रों द्वारा जैनियों द्वारा किया जाता है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म में भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
रूप से देवियों की उपासना करके शक्ति उपासना को स्वीकार किया गया है।
शाक्तागम साहित्य का संवर्द्धन एवं संरक्षण।
शाक्तदर्शन (शक्तिवाद) के सम्बन्ध में वेदों, आगमग्रन्थों, उननिषदों, ब्राह्मणों तथा आरण्यकों में उपलब्ध विवरण संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध होने के कारण सामान्य बौद्धिक स्तर के व्यक्ति की समझ से परे है। जिन महान् तंत्राचार्यों एवं उपासकों ने भाष्य, टीकाऐं, निबन्ध तथा सूत्र लिखकर शाक्तागम साहित्य को बोधगम्य बनाने हेतु योगदान दिया था उनका संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है। मूल आगमसाहित्य के भाष्यकारों में अप्पयदीक्षित, सायणाचार्य, भास्करराय तथा सदानन्द कौलाचार्य के नाम प्रमुख हैं।
1. लक्ष्मीधर (13वीं सदी): कुलचूड़ामणितंत्र तथा सौन्दर्यलहरी पर टीकाऐं लिखी हैं।
2. अप्पय दीक्षित (16वीं): आनन्दलहरी ग्रन्थ पर टीका लिखी है।
3. भास्करराय (18वीं सदीं): वरिवस्यारहस्य नामक ग्रन्थ लिखा तथा कौलउपनिषद, ललिता-सहस्रनाम तथा त्रैपुर-उपनिषद पर भाष्य लिखा है।
4. उमानन्दनाथ (18वीं सदीं): नित्योत्सव नामक ग्रन्थ लिखा है।
5. रामेश्वर (19वीं सदीं): परशुरामकल्पसूत्र पर वृत्ति लिखी है।
6. स्वामी विद्यारण्य: श्रीविद्यार्णव नामक प्रसिद्ध तंत्र-ग्रन्थ की रचना की।
7. नीलकंठ: शक्तितत्व विम र्शिणी पर टीकाऐं लिखी है।
8. गौडापदाचार्य: श्रीविद्यासूत्र की रचना की गई।
9. स्वामी शंकरारण्य: उक्त श्रीविद्यासूत्र पर भाष्य रचना की है।
महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ (कविराज) तथा आर्थरएवलन (सर जौन वूड्र्फ) द्वारा भी तंत्र-साहित्य के विभिन्न विषयों पर क्रमश: हिन्दी तथा अंग्रेजी में विस्तृत लेख लिखकर तंत्र-साहित्य को बोधगम्य बनाने का प्रयास किया गया था।
विद्वानों का अभिमत है कि भारतवर्ष में शक्ति-उपासना विषयक जो सहस्रों ग्रन्थ प्राचीन काल से उपलब्ध थे उनमें से अधिकांश ग्रन्थों को विदेशी आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था। प्राचीनकाल में नालन्दा के बौद्ध विद्यालय में तांत्रिक साधना की जाती थी। तिब्बत में प्रचलित शक्ति-उपासना तथा शाक्तागम ग्रन्थों की सुरक्षा का श्रेय नालन्दा के आचार्यों तथा सिद्धों को ही जाता है।
शक्ति-उपासनारूपी दिव्य ध्वजा को आध्यात्मिक-आकाश की अनन्त उॅचाई पर प्रतिष्ठापित करने के लिए जिन महान् शक्ति-उपासकों ने योगदान दिया है उनमें से महासन्त श्री वामाक्षेपा, श्री रामप्रसाद सेन, श्री सर्वानन्द ठाकुर तथा श्री रामकृष्ण परमहंस देव का नाम प्रात, स्मरणीय है। हजारों वर्ष पूर्व भगवत्पाद श्री शंकराचार्य द्वारा भारतवर्ष के 4 धामों में श्रीयंत्र को प्रतिष्ठापित करके इन धामों को महाशक्तिपीठों का स्तर दिया गया था। श्री बद्रीनाथ तथा श्री जगन्नाथ धाम में पूजा करते समय पढ़े जाने वाले विस्तृत महासंकल्प को सुनकर ही स्पष्ट हो जाता है कि ये जागृत शक्ति-पीठ हैं।
यह भी स्मरणीय है कि भारतवर्ष की रियासतों के राजा-महाराजाओं द्वारा भी अपने शासनकाल में आगमसाहित्य के संरक्षण, संकलन तथा प्रकाशन हेतु प्रयास किया गया था। उनमें से महाराजा काश्मीर, बडौदानरेश तथा दरभंगा नरेश महाराजा रमेश्वंर सिंह जी के नाम प्रात:स्मरणीय हैं। महाराजा रमेश्वर सिंह जी के सान्निध्य में रहकर ही सर जौन वूड्र्फ द्वारा अंग्रेजी भाषा में 'गार्लेन्ड औफ लेटर्स' तथा 'सर्पेन्टपावर' जैसे अत्यन्त सारगर्मित लेख लिखे गये थे।
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ReplyDeleteप्रभु आपने अपनी पहली पोस्ट में कुछ विषयों को अधूरा छोड़ दिया था जैसे कि :
ReplyDeleteश्री विद्या उपासना रूपी अमेद्य दुर्ग (किला) में प्रवेश:
जिज्ञासु साधक की न्यूनतम अर्हता (योग्यता)
श्री गुरूदेव की खोज तथा उनकी शरण में जाना।
श्री गुरू-शिष्य के लक्षण एवं परीक्षा।
दीक्षा तत्व, दीक्षा का भेद तथा दीक्षा की अनिवार्यता (महत्व)
(ड़) श्री कुन्डलिनी जागरण-शक्ति पात।
श्री कुन्डलिनी जागरण के पश्चात साधक की स्थिति।
शरीरस्थ षट्चक्रों का विवरण।
कुलाचार एवं कुल धर्म।
शिष्य के कर्तव्य एवं अनुशासित जीवन यापन।
अन्तर्याग एवं बहिर्याग।
मंत्र जप तथा पुरश्चरण।
विभिन्न न्यास।
श्री यंत्र तथा आवरण पूजा
कवच, हृदय, स्तोत्र, शतनाम, त्रिशती, सहस्रनाम
होम तथा बलिदान
कुमारी पूजा एवं सुवासिनी पूजा
कृपया इन टॉपिक्स पर भी प्रकाश डालें... आप का बहुत आभारी रहूँगा
प्रणाम
please send Sarswatirahasyopnishad pdf file to my email dsrwithganeshpatil@gmail.com
ReplyDeleteआलेख बहुत महत्वपूर्ण है।
ReplyDeleteब्रह्म यामल एवं ग्रह यामल कहाँ से प्राप्त हो सकता ?
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