Wednesday, 6 May 2015

8 . ।।महाशक्ति कुन्डलिनी।। --।।कुन्डलिनी का स्वरूप।।

।।महाशक्ति कुन्डलिनी।।
।।कुन्डलिनी का स्वरूप।।

प्रत्येक मनुष्य में प्राण रूप से विद्यमान (प्राणशक्ति) जीवनीशक्ति को ही कुन्डलिनी शक्ति कहा जाता है जो करोड़ों विद्युतपुंजों के समान प्रकाशमान तथा परब्रह्मस्वरूपिणी है:-

''जीवशक्ति: कुन्डलाख्या-प्राणाकाराय तेजसी
महाकुन्डलिनी प्रोक्ता-परब्रह्म स्वरूपिणी''
                                                                                                (आगम)

इसी शक्ति के प्रभाव से केवल मनुष्य के मन, चित्त, प्राण तथा शरीर की समस्त क्रियाऐं वरन् समस्त ब्रह्मान्ड की गतिविधियां  भी संचालित होती हैं। शास्त्रों का अभिमत है कि जिस प्रकार महासागरों, वेगवती नदियों, भीषण घने जंगलो, विशाल पर्वतश्रखलाओं, पृथ्वी के गर्भ में स्थित खनिजभन्डारों तथा जलचर, भूचर, खेचर प्राणियों को धारण करने वाली इस पृथ्वी का आधार शेषनाग जी हैं उसी प्रकार मनुष्य की समस्त, आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा योग साधनाओं का आधार कुन्डलिनी शक्ति ही हैं। 
''कुलकुन्डलिनी शक्ति: देहिनो देहधारिणी''
.............................................................
महाशक्ति: कुन्डलिनी-बिसतन्तु तनीयसी''
(आगम)

इस महाशक्ति की महिमाओं का यशोगान वेदों, आगमशास्त्रों, उपनिषदों, सूत्रों, आरण्यकों तथा पुराणों में किया गया है। इस शक्ति का साक्षात्कार करके ऋषि, मुनि, सिद्ध गन्धर्व, महायोगी, महासाधक, महाउपासक सभी कृतकृत्य हो चुके हैं तथा नेति-नेति कहते हुए उसी के रूप में समा गए हैं। इन महायोगियों तथा शास्त्रों द्वारा इस महाशक्ति की अनन्त नामों तथा अनन्त गुणों तथा उपमाओं से विभूषित करके दिव्य स्तुतियां की गई हैं। इस शक्ति का आदिशक्ति (आद्या), पराम्बा, जगदाधारस्वरूपा, ब्रह्मान्डजननी, त्रिगुणात्मिका, एकादशरूद, द्वादशआदित्य स्वरूपा, मूलप्रकृति, नित्या, सनातनी, सर्वबीजस्वरूपा, अजा, अज्ञेया, शब्दब्रह्ममयी, ब्रह्म, बिष्णु, रूद्रस्वरूपिणी, गायत्री, सावित्री, सरस्वती, महालक्ष्मी, नवदुर्गा तथा दशमहाविद्याओं के रूप में पूजन-अर्चन-स्तवन किया गया है।

‘‘विशुद्धा परा चिन्मयी स्वप्रकाशा
चिदानन्दरूपा जगत्ब्यापिकाच
                                                                                                (आगम)

रिग्वेद में यही महाशक्ति देवताओं को अपना परिचय ब्रह्मान्ड की अधीश्वरी के रूप में देती हैं।
देवी (शक्ति) की अनन्त महिमाओं का गुणगान करने वाले उपनिषदों में श्वेताश्वतरउपनिषद, केनोपनिषद् मान्डूक्यउपनिषद, ब्रहदारण्यकउपनिषद, बहवृचोपनिषद का नाम उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त गायत्री सहस्रनाम, दुर्गा सहस्रनाम तथा महाविधाओं के सहस्रनामों में इनके परमदिव्य नाम तथा उपमाऐं हैं। श्री दुर्गासप्तशती के चतुर्थ तथा एकादश अध्याय में देवताओं द्वारा की गई स्तुतियों में भी इस शक्ति का परिचय मिलता है। देवी-अथर्वशीर्ष में स्वयं जगदम्बा ने देवताओं को अपना परिचय दिया है। महाभारत (भीष्मपर्व) का वह दिव्य आरव्यान भी परमस्तुत्य है जब भगवान श्री कृष्ण द्वारा महावाहु (अर्जुन) को अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए युद्ध प्रारम्भ करने से पहले इसी महाशक्ति की प्रार्थना करने का निर्देश दिया गया था। तब अर्जुन ने 78-दिव्य नामों तथा विशेषणों से श्री मॉं को अलंकृत करते हुए उनकी प्रार्थना की थी।

शक्ति उपासकों की दृष्टि में यह शक्ति त्रिगुणात्मिका, प्रकाशरूप, विद्युतपुंज स्वरूपा, अमृतस्वरूपा भी है जो सुषुम्ना विवर (ब्रह्मनाड़ी) में मूलाधारचक्र से सहस्रारचक्र तक आवागमन करती रहती है। यह प्रकाश-विमर्श सामरस्यात्मक, परब्रह्मस्वरूपिणी, सर्वसिद्धेश्वरी, सर्ववागीश्वरी, कुल-कामधेनु, शाश्वती, वर्णानाजननी, भावनामात्रगम्या, वांछितकल्पवल्लरी, बालार्कारूणतेजसा तथा वरदाननिरता महामाया के रूप में सुपूजिता हैं।

इसी शक्ति के विषय में भगवत्पाद शंकराचार्य जी ने ‘सौन्दर्यलहरी नामक ग्रन्थ में लिखा है:-
‘‘भवानि! स्तोतुत्वां प्रभवति चतुर्भिर्नवदने
.............................................
.............................................
न षड्भि सेनानी-दशशतमुखै रप्यहिपति

(हे मॉं! आपकी महिमाओं का गुणगान करने में तो चार मुख वाले ब्रह्मा जी, पांच मुखवाले शिवजी, छः मुखवाले कार्तिकेय जी तथा एक हजार मुख वाले शेषनाग जी भी सक्षम नहीं है)


।।मानव शरीर का मेरूदण्ड तथा महत्वपूर्ण नाडि़यां।।

शाक्तागम ग्रन्थों तथा योग शास्त्रों में बताया गया है कि जिस प्रकार मुनष्य शरीर का आधार मेरूदण्ड है उसी प्रकार समस्त योग सोधनाओं का आधार कुन्डलिनी शक्ति है। यह मेरूदण्ड भीतर से खोखला होता है। इसके सबसे ऊपरी भाग में सहस्रार चक्र तथा सबसे नीचे के भाग में मूलाधार चक्र की स्थिति है। इसके नीचे के भाग का आकार छोटा तथा नुकीला होता है। मनुष्य शरीर में 72-हजार नाडि़यों का जाल होता है। ‘द्विसप्तति सहस्रेषु नाड़ी भेदेसु पंजरम् इनमें से 10-नाडि़यां प्रमुख होती हैं। इनमें से भी 3-नाडि़यां यथा इड़ा (चन्द्र नाड़ी) पिंगला (सूर्य नाड़ी) तथा सुषुम्ना का योग साधनाओं में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इड़ा नाड़ी मेरूदण्ड में बांयी तरफ (वाम नासारन्ध्र) तथा पिंगला नाड़ी दांयी तरफ (दक्षिण नासारन्ध्र) से लिपटी रहती है। सुषुम्ना नाड़ी मेरूदण्ड के भीतर कन्दभाग (मूलाधार चक्र) से प्रारम्भ होकर सहस्रार चक्र तक जाती हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के भीतर 3-परतें (खोल) होती हैं। इनमें से सबसे भीतर की परत ब्रहमनाड़ी मानी गई है। कुन्डलिनी शक्ति जागृत होकर इसी ब्रह्मनाड़ी के मार्ग से मूलाधार से सहस्रारचक्र पर्यन्त आवागमन करती हैं तथा इसी नाड़ी में पिराये हुए 6-कमलों (षट्चक्रों) की भावना की गई है। यह सुषुम्ना नाड़ी समस्त योगसाधनाओं का आधार तथा साधकों की कामधेनु (कल्पलता) है।


।।मानव शरीर में कुण्डलिनी की स्थिति (निवासस्थान)।।

कुन्डलिनी नामक जिस महाशक्ति का ‘गुणगान पूर्व पृष्टों में किया गया है उसका निवास स्थान हमारे शरीर के अन्दर ही है। प्रसिद्ध शाक्तागम ग्रन्थों यथा रूद्रयामल, कुलार्णव तंत्र, गौतमीयतंत्र, शारदातिलक तंत्र, तथा योगशिखोपनिषद्, घेरन्डसंहिता, शिवसंहिता तथा हठयोगप्रदीपिका जैसे योगग्रन्थों में इस शक्ति के स्वरूप, निवासस्थान, कुन्डलिनी जागरण करने की विधियों तथा जागृत कुन्डलिनी की मोक्षदादिनी शक्ति (कृपा) का जो उल्लेख मिलता है उसका अत्यन्त संक्षिप्त उद्धरण दिया जा रहा है।

मनुष्य शरीर के मेरूदण्ड के सबसे निचले भाग के निकट मूलाधारचक्र की स्थिति मानी गई है तथा इसके आसपास स्थित गुदा तथा मेढ्र के मध्य भाग को ‘कन्द कहा जाता है। इसी कन्द भाग में आत्मशक्ति स्वरूपा कुन्डलिनी स्वयंभूलिंग को एक सर्पिणी की भॉंति साड़े तीन फेरों में लपेटे हुए अपनी पूंछ को अपने मुख में दबाकर सुषुम्ना नाड़ी के छिद्र को बन्द करके (ब्रह्मकपाट को बन्द करके) तथा समस्त नाडि़यों को वेष्टित करके निर्जीव, निष्क्रिय तथा सुषुप्त अवस्था में रहकर अपने ही प्रकाश से प्रकाशमान रहती है।

''तामिष्टदेवतारूपां-सार्द्ध त्रिवलयान्विताम्
कोटि सौदामिनीभासां-स्वयंभूलिंग वेष्टिणीम्
सुप्ता नागोपमाह्येसा-स्फुरन्ती प्रभया स्वया
अहिवत् सन्धिसंस्थानां-वाग्देवी बीजसंज्ञका।।''
(रूद्रयामल तंत्र तथा शिवसंहिता)
पुनश्चः
''संवेश्टा सकला नाड़ी-सार्द्धत्रिकुटिलाकृति
मुखे निवेश्य सा पुच्छं-सुषुम्नाविवरे स्थिता''

कुन्डलिनी की स्थिति के सम्बन्ध में योगशिखोपनिषद् में कहा गया है:-

''गुदा मेढूान्तरालस्थं-मूलाधारं त्रिकोणकम्
............................................
यत्र कुन्डलिनी नाम-पराशक्तिः प्रतिष्ठिता''

घेरण्ड संहिता भी इसी तथ्य की पुष्टि करती है:-

''मूलाधारे आत्मशक्तिः कुन्डलिनी परदेवता
शयिता भुजंगाकार सार्धत्रय वलयान्विता''

(कुन्डलिनी शक्ति मूलाधार में साड़ेतीन फेरे लगाकर सर्पिणी की तरह सोई रहती है।)


।।कुन्डलिनी जागरण की आवश्यकता।।

जन्म-जन्मान्तरों से मूलाधार में निद्रित आत्मशक्ति कुन्डलिनी को सिद्ध गुरूजनों द्वारा शक्तिपात करके जागृत करने के विषय में इसी लेख के पूर्व पृष्टों में ‘‘दीक्षा रहस्य'' नामक शीर्षक के अन्तर्गत तनिक प्रकाश डाला जा चुका है। प्रसंगवश यहॉं पर योगशास्त्रों का उद्धरण देते हुए अतिरिक्त आवश्यक जानकारी देने का प्रयास किया जा रहा है। 

समस्त योगशास्त्रों का यही अभिमत है कि जब तक कुन्डलिनी निद्रित है तब तक मनुष्य को एक सामान्य पशु के समान ही माना जाता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति साधना सम्बन्धी करोड़ों उपाय करके भी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं कर सकता हैः-

''यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीवः पशुर्यथा
ज्ञानं जायते तावत् कोटि योग विधेरपि''
(घेरन्डसंहिता)
पुनश्चः
जब तक कुन्डलिनी शक्ति सोई रहती है तब तक मनुष्य द्वारा किए गए जप, तप होम, पूजा, अर्चना, अनुष्ठान तथा ध्यानादि का कोई फल नहीं मिलता है:

''मूलपद्मे कुन्डलिनी यावत् सा निद्रिता प्रमो
तावत् किंचंनसिध्येत-मंत्र यंत्रार्चनादिकम''

परन्तु जब शिष्य के अनेक जन्मों के पुण्य-संचय के फलस्वरूप श्री गुरूदेव की कृपा (शक्तिपात) से यही कुन्डलिनी जागृत हो जाती है तो समस्त योगक्रियांओं तथा साधनाओं का सुफल तत्काल प्राप्त हो जाता है-
''जागर्ति यदि सा देवि ! बहुमिःपुण्य संचये
तदा प्रसाद मायान्ति-मंत्र यंत्रार्चनादयः''
(गौतमीय तंत्र)

यही कुन्डलिनी शक्ति योगियों के लिए मोक्ष प्रदान करने वाली तथा संसार चक्र में पशुवत् आवद्ध व्यक्तियों के लिए महाबन्धन का कारण होती है:-

''कन्दोर्ध्व कुन्डली शक्ति-सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्
बन्धनाय मूढानां-यंस्तं वेत्ति योगवित्''
(हठयोग प्रदीपिका)

अतएव बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह इस शक्ति को जागृत कराने (शक्तिपात) के लिए समर्थवान् गुरू का वरण करके आत्मज्ञान प्राप्त करले -

''तस्मात्सर्वप्रयत्नेन-प्रवोधयितु मीश्वरीम्
ब्रह्मरन्ध्र मुखे सुप्तां-मुद्रान्यासंसमाचरेत्''
(शिव संहिता)

इस प्रकार अनन्त प्रकाशमय आत्मशक्ति का उत्थान (जागृत) हो जाने पर साधक समस्त पापों तथा बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों, गुरूजनों तथा सिद्ध-साधकों का स्पष्ट अभिमत है कि जिज्ञासु व्यक्तियों द्वारा कुन्डलिनी जागरण हेतु किए जाने वाले अन्यान्य सभी प्रयास (हठयोगादि साधन) सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि यह स्थूल शरीर का नहीं वरन् आत्मा का विषय है -

''असिका बन्धनं नास्ति नासिका बन्धनं नहिं
पद्मासन गतो योगी नासाग्र निरीक्षणम्''
''तस्मात् गुरूरूपायः''



विदेशी विद्वानों का कुन्डलिनी विषयक अभिमत

जिन विदेशी विद्वानों द्वारा कुन्डलिनी के सम्बन्ध में अपना अभिमत प्रस्तुत किया गया है उनमें से तीन विशेषरूप से उल्लेखनीय है -

(1) सर जौन वूड्र्फ (आर्थर एवलन):-
आप भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में महाराजा रमेश्वर सिंह जी के शिष्य रहे थे। आपके द्वारा शक्ति उपासना विषयक अनेकों सारगर्भित ग्रन्थ लिखे गए थे। इनमें से ‘शक्ति एवं शाक्ततथा ‘सर्पेन्टपावर नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध है। ‘शक्ति एन्ड शाक्तग्रन्थ में आपने लिखा है-

Shortly stated,  Energy (Shakti) polarizes itself into two forms, namely static or potential (Kundalini) and dynamic (the working force of the body as Prana.)”
(संक्षेप में कहा जा सकता है कि शक्ति दो रूपों में ब्याप्त है। प्रथम स्थिर अथवा अविकसित (कुन्डलिनी) रूप में तथा द्वितीय चलायमान (प्राणरूपी संचालिका शक्ति) रूप में।

उक्त महाशय द्वारा अपने अन्य ग्रन्थ ‘सर्पेन्ट पावर में कुन्डलिनी विषय पर लिखा गया है कि-
“It is the individual bodily representative of the great cosmic power (Shakit) which creates and sustains the universe” 
(कुन्डलिनी स्थिर शक्ति है। यह एक महानतम विश्वब्यापिनी शक्ति का ही मानव शरीर में स्थित ब्यष्टिरूप है।)

(2) मैडम ब्लैवेट्स्की :-
आपके द्वारा कुन्डलिनी शक्ति को ‘विश्वव्यापी विद्युतशक्ति (Cosmic Electricity) के नाम से सम्बोधित करते हुए अपने ग्रन्थ ‘वौइस ऑफ साइलेन्स में जो लिखा गया है उसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस प्रकार है:-
(कुन्डलिनी सर्पाकार या चक्राकार शक्ति कही जाती है क्योंकि इसकी गति सर्प की तरह होती है जो योगी-साधक के शरीर में चक्राकार चलकर उसकी शक्ति को बढ़ाती है। यह एक अग्निमय विद्युतशक्ति के समान प्रचन्डशक्ति है जो ब्रह्मान्ड के ‘समस्त पदार्थों में विद्यमान है। इस कुन्डलिनी की गति प्रकाश की गति से भी अधिक तेज है)

(3) मिस्टर हडसन  महोदय:-

साधकों को सचेत करते हुए मिस्टर हडसन लिखते हैं कि मूलाधार चक्र में कुन्डलिनी नामक सर्पाकार अग्निमयशक्ति करोड़ों जन्मों से सोई रहती है। यह ध्यान रहे कि इस प्रचन्डशक्ति  को सुरक्षापूर्वक जगाने का कार्य किसी सिद्धहस्त गुरू के द्वारा ही किया जाना चाहिए अन्यथा कुन्डलिनी का नीचे की ओर कार्यशील हो जाने पर साधक को हानि पहुँच सकती है। मिस्टर हडसन भी शाक्त उपासकों की विचारधारा के ही समर्थक हैं जो विश्वास करते हैं कि कुन्डलिनी शक्ति मूलाधार से सहस्रार चक्र की तरफ गमन करती है तो वह प्रत्येक चक्र को जगाते हुए चलती है। जिससे प्रत्येक चक्र खुल जाता है और साधक अनन्त शक्तियों का स्वामी बनकर अपने भौतिक शरीर में भी जागृत अवस्था में रहता है।  

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