Monday, 11 July 2016

13. ।।न्यासानुसन्धान-न्यास क्रिया।।

।।न्यासानुसन्धान-न्यास क्रिया।।

जिस प्रकार उपासना शास्त्रों में विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना के अन्तर्गत सम्बन्धित देवी-देवता के कवच पाठ को उपासक की सुरक्षा के लिए आवश्यक बताया गया है उसी प्रकार तंत्रशास्त्र में महाविद्याओं की उपासना के अन्तर्गत न्यासानुसन्धान (न्यास)को अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा परमउपयोगी उपासना अंग निर्धारित किया गया है।

न्यास का अभिप्रायः
ब्रह्मान्ड में विविध स्वरूपों में विद्यमान प्रमुख नियामक एवं नियंत्रक दैवी शक्तियों को अपने शरीर में प्रतिष्ठापित करने की क्रिया (अभ्यास) को ही न्यासक्रिया कहा जाता है। इस प्रकार यह साधक द्वारा पिन्ड-ब्रह्मान्ड की अखन्ड एकता की भावना को सुदृढ़ करने हेतु किया जाने वाला प्रयास है। यह एक मनोवैज्ञानिक एवं भावप्रधान क्रिया है जिसके निरंतर अभ्यास से उपासक की यह भावना सृदृढ़ हो जाती है कि उसके शरीर के समस्त अंगों में देवी-देवताओं का वास हो गया है। न्यास करते समय विभिन्न देवी-देवताओं के नामों तथा मंत्रों का उच्चारण करते हुए विभिन्न मुद्राओं की सहायता से अपने शरीर के विभिन्न चक्रों तथा अंगों का स्पर्श करके उन अंगों पर सम्बन्धित देवी-देवताओं को प्रतिष्ठापित (न्यस्त) किया जाता है।

न्यासानुसन्धान के उद्देश्य एवं महत्व -
न्यास क्रिया के प्रमुख उद्देश्य एवं लाभ इस प्रकार हैं-

(1) पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता तथा शिवत्व प्राप्त करना -
जब साधक अपने शिर से चरण पर्यन्त शरीर के विभिन्न अंगों (प्रमुख अंग 51 हैं) पर समस्त मातृकावर्णों, विभिन्न देवी-देवताओं, महायोगिनियों, अष्ट-भैरवों, समस्त शक्तिपीठों, महासागरों, पवित्र नदियों, विभिन्न पर्वतों, पवित्र धामों, सप्तद्वीपों, चतुर्दशभुवनों, ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों को प्रतिष्ठापित कर लेता है तो उसका शरीर ही देवता का निवास स्थान बन जाता है और साधक के मन में स्वतः ही देवत्व का भाव उत्पन्न हो जाता है। इन न्यासों से वह ब्रहमान्ड में विद्यमान समस्त नियंत्रक शक्तियों को अपने पिन्ड में ही अवस्थित देखता हुआ ‘यथा पिन्डे तथा ब्रह्मान्डे’ का आभास करता है। इन न्यासों से वह शिव बनकर शिवा की पूजा करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। ‘शिवों भूत्वा शिवां यजेत्’ तथा ‘देहों देवालयः साक्षात्’।


(2) वीर-साधना के लिए सुरक्षित देह का निर्माण करना-
तंत्र-शास्त्र में मॉं काली तथा मॉं तारा की सिद्धि हेतु वीर साधना (चिता, मुन्ड तथा शवसाधना) को त्वरित फलदाई बताया गया है। वीर साधक इस साधना की सफलता के लिए यह संकल्प लेकर चलता है-
‘मंत्रं साधयामि-शरीरं वा पातयामि’
(या तो मंत्र सिद्ध करूंगा या प्राण ही त्याग दूंगा ।)
वीर साधना अत्यन्त भयावह होती है। साधनाकाल में तनिक चूक हो जाने पर प्राण संकट में पड़ सकते हैं तथा साधक का मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है। दीर्घकाल तक न्यासों का अभ्यास करके न्यास-जाल रूपी अभेद्य कवच धारण किया हुआ साधक ही ऐसी साधना करने का साहस कर सकता है।

(3) महाशक्ति का तेज सहने की क्षमता प्राप्त करना-
साधक जिस महाशक्ति के दर्शन करना चाहता है उसका स्वरूप इस प्रकार है-
‘कोटि सूर्य प्रतीकाशां-चन्द्र कोटि सुशीतलां’
‘उद्यत्कोटि दिवाकर द्युतिनिभां’
(वह करोड़ों सूर्यो के समान प्रकाशमान तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान शीतल है)
महाशक्ति के ऐसे परमतेजोमय स्वरूप के दर्शन वही साधक कर सकता है जिसने न्यासानुसन्धान करके अपने शरीर को बज्रमय बनाया होता है क्योंकि सामान्य शरीर तो करोड़ों मील दूर स्थित सूर्य के ताप से क्षण भर में ही झुलस जाता है। इसका प्रमाण श्री भगवद्गीता के उस प्रसंग से भी मिल जाता है जब शिवोपासक, कपिध्वज तथा श्रीकृष्ण सखा अर्जुन श्रीकृष्ण के विराट् स्वरूप को देखते ही अपनी सुध-बुध गंवा बैठे थे।
(4) महाविद्याओं से सम्बन्धित न्यास-
तंत्र-शास्त्र में दश महाविद्याओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। यथा कादिविद्या, हादिविद्या तथा कहादिविद्या। कादिविद्या का अभिप्राय श्री महाकाली, हादिविद्या का तात्पर्य श्री त्रिपुरा (श्रीविद्या) तथा कहादि विद्या का तात्पर्य मॉं तारा से है। इन दशमहाविद्याओं के मंत्र यंत्र, पूजोपासना की विधियों तथा न्यास आदि का विवरण जिन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है उनमें से शाक्तप्रमोद, तंत्रसार, मंत्र-महार्णव, मंत्रमहौदधि तथा शारदातिलक प्रमुख हैं। इन ग्रन्थों में प्रत्येक महाविद्या से सम्बन्धित न्यास करने की विभिन्न विधियां तथा क्रम निर्धारित हैं परन्तु सभी  न्यासों में मातृकावर्णों (अ से अः तक तथा क से क्ष तक = 51 वर्ण) का विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है। विभिन्न मातृकावर्णो में कहीं पर विसर्ग, कहीं पर अनुस्वार तथा कहीं पर इन दोनों का एक साथ प्रयोग करके न्यास करने का विधान है। विभिन्न क्रमों से न्यास करके साधक की मनोकामनाऐं पूर्ण होती है तथा वह देवताओं के लिए भी पूजनीय बन जाता है।
प्रत्येक महाविद्या के मंत्र का रिषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा कीलक होता है जिनका उपयोग करके रिष्यादिन्यास, करन्यास तथा षडंगन्यास की क्रियाऐं सम्पादित की जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ महाविद्याओं के उपासकों के लिए अनेकों विशिष्ट न्यास भी निर्धारित किए गए हैं। इन विशिष्ट न्यासों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
(1) श्रीकाली विद्या के न्यास-
इस विद्या का उपासक मातृकान्यास, वर्णन्यास, षोढान्यास, ब्यापकन्यास तथा तत्वन्यास करता है।

(2) श्री ताराविद्या के न्यास-
इस विद्या का उपासक शिव-शक्ति न्यास, रूद्रन्यास, ग्रहन्यास, दिग्पालन्यास तथा पीठ-न्यास करता है।

(3) श्री त्रिपुरभैरवी के न्यास-
इस विद्या की उपासना में त्यादि-न्यास, नवयोनि-न्यास, भूषण-न्यास, सुभगादि-न्यास तथा बाण-न्यास किए जाते हैं।

(4) श्री मांतगी के न्यास-
भगवती मांतगी का उपासक शक्ति-न्यास, मातृका-न्यास, अप्सरा-न्यास, मंत्र-वर्ण न्यास तथा अष्टकन्या-न्यास करता है।

(5) श्री महात्रिपुरसुन्दरी के न्यास-
आगम बचन है-
‘‘न्यासप्रिया तु श्रीविद्या’’

श्रीविद्या की उपासना में न्यासों का महत्वपूर्ण स्थान है तथा अन्य महाविद्याओं के न्यासों की तुलना में सर्वाधिक न्यास इसी विद्या के उपासक द्वारा किए जाते हैं। इस विद्या के प्रमुख न्यास हैं-
मातृका-न्यास (अन्तरमातृका तथा बहिरमातृका), वशिन्यादि-न्यास, पंचदशी-न्यास, नवयोन्यात्मक-न्यास, तत्व-न्यास, मूलमंत्र-न्यास, योगिनी-न्यास, त्रिपुरा-न्यास, नित्या-न्यास, चक्र-न्यास, काम-रति न्यास तथा आयुध-न्यास।
श्री विद्या का पूर्णाभिषिक्त साधक अपनी देह को बज्रवत् बनाने (दिव्यतेज सहन करने योग्य) तथा स्वयं देवतुल्य बनने के लिए जिन अन्य विशिष्ट न्यासों का अभ्यास करता है उनके नाम हैं -
लघुषोढा-न्यास, महाषोढा-न्यास तथा महाशक्ति-न्यास।

(अ) लघुषोढ़ा न्यास-
इस न्यास के अन्तर्ग छः न्यास सम्मिलित हैं। यथा गणेश-न्यास, ग्रह-न्यास, नक्षत्र-न्यास, योगिनी-न्यास, राशि-न्यास तथा पीठ-न्यास शरीर के 51 अंगों को स्पर्श करके तथा अन्य-न्यास शरीर के उन अंगों को स्पर्श करते हुए विभिन्न मुद्राओं के साथ किए जाते हें जहां पर ग्रहों, नक्षत्रों आदि की स्थिति मानी गई है।
(आ) महाषोढ़ा-न्यास-
महाषोढ़ा-न्यास की महिमा का वर्णन करते हुए शास्त्र कहते हैं-
‘‘यः करोति महान्यांस-षोढा-न्यासादिकं विभो!
स जीवन शक्तिरूपों वै-त्रैलोक्योन्मूलनं क्षमः’’
(जो साधक इस न्यास को करता है उसे तीनों लोकों का उन्मूलन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है)
‘‘महाषोढा ह्वयं न्यासं-यः करोति दिने दिने
देवाः सर्वे नमस्यन्ति..........’’
(जो साधक प्रतिदिन षोढान्यास करता है उसे देवता भी नमन करते हैं।)

महाषोढान्यास के अन्तर्गत छः न्यास किए जाते हैं। यथा प्रपंच-न्यास, भुवन-न्यास, मूर्ति-न्यास, मंत्र-न्यास, देवता-न्यास तथा मातृ-न्यास। प्रपंच-न्यास में पृथ्वी के समस्त द्वीप, महासागर, पर्वत, शक्तिपीठ, वन, गुहाऐं, नदियां, विभिन्न योनियों के प्राणियों, काल परिमाणों, पंचभूत, पंच तन्मात्रा तथा त्रिगुणों की अधिष्ठात्री देवियों को  स्व-शरीर में प्रतिष्ठापित किया जाता हैं। इसी प्रकार भुवन न्यास में चौदह-भुवनों, मूर्ति-न्यास में त्रिदेवों, मंत्र-न्यास में प्रणवाद्य एकाक्षरात्मक से त्रिपुरादि षोडशाक्षरात्मक मंत्रों का, दैवत-न्यास में रिषिकुल से लेकर चराचर-कुल सेबित शक्तियों का, तथा मातृका-न्यास में भूचरकुल से लेकर जलचर-कुल तक की अधिष्ठात्री देवियों तथा अष्टभैरवों का स्वशरीर में प्रतिष्ठापन करके देवत्व प्राप्ति एवं पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता की स्थिति प्राप्त की जाती है।
(इ) महाशक्ति-न्यास-
महाशक्ति-न्यास की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान शिव मॉं पार्वती को बताते हैं-
‘अथातः संप्रवक्ष्यामि-शक्ति-न्यासं सुरेश्वरि
येन देहेन युक्तेन-शक्ति तुल्यो भवेन्नरः।
येनांग न्यास मात्रेण-देवी दहति तेन च
कोपं यत्कुरूते योगी- त्रैलोकस्यापि पातनम्।
शक्ति-न्यास युतो योगी-नमस्कारेण शंकरः
स्फोटनं कुरूते साक्षात्-पाषाण प्रतिमादिषु।’
(हे पार्वती! शक्ति-न्यास करने वाले साधक की देह परमशक्तिशाली हो जाती है। यह साधक यदि क्रोधित हो जाये तो तीनों लोकों का पातन कर सकता है। शक्ति-न्यास सम्पन्न महायोगी को भगवान शंकर भी नमस्कार करते हैं। ऐसा साधक पाषाण-प्रतिमाओं का भी विखन्डन कर सकता है।)
भगवान शिव पुनः कहते है-
‘न क्षान्ति परमंज्ञानं-न शान्ति परमं सुखं
नच शक्ति समों न्यासों-न विद्या त्रैपुरी समा’
(हे पार्वती! क्षान्ति के समान महाज्ञान नहीं। शान्ति के समान परमसुख नहीं। शक्ति-न्यास के समान कोई न्यास नहीं तथा त्रिपुरसुन्दरी के समान कोई महाविद्या नहीं है)

पुनश्च-
‘शक्ति न्यासे कृते जीवेत्-यः कश्चिच्छेदको भवेत्
कर्मणा मनसा वाचा-तस्य घातो भविष्यति।’
(पे पार्वती! यदि कोई शत्रु शक्ति-न्यास करने वाले साधक को क्षति पहुचांने का प्रयास करता है तो उसका विनाश हो जाता है)

महाशक्ति-न्यास का अभ्यास करते समय साधक ऐं कार का चिन्तन करते हुए महाकामकला को ब्रह्मरंध्र में लय करके अ से क्ष तक के मातृकावर्णों से अपने शरीर के 51 अंगों में न्यास करता है। विभिन्न मंत्रों का स्मरण-पाठ करके तथा महामंत्र एवं महादेवी की महिमा का गुणगान करते हुए वह अपने शरीर को बज्रमय बनाने एवं अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु महाशक्ति से प्रार्थना करता है। पुनः त्रिपुरा की त्रयोदश विद्याओं का पूजन करने के पश्चात् साधक पंचोपचारों से स्वशरीर की पूजा करके कंठ में रक्तपुष्पों की मालाधारण करके त्तराभिमुख होकर तथा महायोगी का रूप धारण कर भगवान शंकर तुल्य हो जाता है यथा-
‘देहं स्वपूजये देवि-रक्तचन्दन कुंकुमे
पूजयेन्मस्तके देवी-कृत्वा विग्रहधूपकम्
उत्तराभिमुखो भूत्वा-स्वस्थ चित्तासने स्थिंतः
महाकामकलाध्याये-दिव्याम्वर विभूषितः’
ऐसी दिव्य त्रिपुरामय देह में वह वनिताक्षोभकरी महाकामकला का ध्यान करके न्यासानुसन्धान पूर्व ‘शक्तिरूद्रमयं देंह’ से प्रारम्भ कर ‘गेहे कुर्वन्तु में वपुः’ तक के 102 श्लोकों को पढ़ता हुआ विभिन्न शक्तियों तथा योगिनियों से अपने शरीर के विभिन्न अंगों तथा मस्तक में स्थित हो जाने तथा अभीष्ट वरदान देने के लिए प्रार्थना करता है ताकि उसकी देह शक्ति-रूद्रमय बन जाये यथा।-
‘शक्ति-रूद्रमयं देंह- मदीयं त्रिपुरेकुरू
देहि मे देव देवेशि! बरंनित्य अभीप्सितम्’।।



12. ।।पूजोपासना की विधियां।।

।।पूजोपासना की विधियां।।

शास्त्रों के कथनानुसार शक्ति उपासना की सफलता के लिए सत्गुरू से दीक्षा प्राप्त करना परमावश्यक होता है। श्री गुरू द्वारा ही शिष्य को न केवल जीव-जगत, आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान दिया जाता है वरन् यह भी बोध करा दिया जाता है कि वह (जीवात्मा) स्वयं में सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापी परमात्मा ही है तथा उसमें परमात्मा के सभी लक्षण विद्यमान है। पंचकंचुकों तथा अष्टपाशों से आवद्ध होने के कारण वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर सांसारिक सुख-दुखों तथा जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। अपने खोये हुए परमेश्वरत्व की प्राप्ति हेतु शिष्य पूजोपासना की विभिन्न विधियों का अनुसरण करके साधना मार्ग में अग्रसर होता है।

शास्त्रों में पूजोपासना की विभिन्न विधियों को विभिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है। यथा अपरापूजा, परापूजा, बहिर्याग, अन्तर्याग, साधारपूजा, निराधार पूजा, पाशवकल्प की उपासना, वीरभाव तथा दिव्यभाव की उपासना। बहिर्याग को अपरापूजा कहते हैं जो उपासना की प्रारंभिक अवस्था है। अन्तर्याग को आभ्यन्तर पूजा या मानसिक पूजा भी कहते हैं। यह पूजा दो प्रकार की होती है-
पूजायाभ्यन्तरा सापि-द्विविधा परिकीर्तिता
साधारा च निराधारा-निराधारा महत्तरः
(सूतसंहिता)

(आभ्यन्तर पूजा दो प्रकार की होती है। आधार तथा निराधार इनमें से निराधारपूजा उच्चकोटि की है।)
साधार पूजा में साधक इष्टदेवता की मूर्ति अथवा यंत्र में पूजन-अर्चन करता है जबकि  निराधार पूजा में अपने हृदय में ही इष्ट अथवा उसके मंत्र का ध्यान करके मानसिक पूजन-अर्चन करता है।

।आगमशास्त्र में पूजोपासना का रहस्य।
बाह्यपूजा, स्तोत्रपाठ, जप, ध्यान, धारणा, ब्रह्मसद्भाव, ब्रह्मात्मैक्य तथा सहजावस्था के महत्व तथा इनकी पारस्परिक श्रेष्ठता के सम्बन्ध में आगमशास्त्र का उद्घोष है-
(1) ‘‘पूजाकोटि समं स्तोत्रं-स्तोत्रकोटि समो जपः
जपकोटि समो ध्यानं-ध्यानकोटि समो लयः’’
(2) ‘‘उत्तमो ब्रह्मसद्भावो-ध्यानभावस्तु मध्यम
जप-पूजा अधमांप्रोक्ता-बाह्यपूजाधमाधमा’’

(3) ‘‘उत्तमा सहजावस्था-मध्यमाध्यानधारणा
जप-स्तुति स्याअमा-वाह्यपूजा धमाधमा’’

इन श्लोकों का तात्पर्य यह है कि बाह्यपूजा से श्रेष्ट स्तोत्रपाठ है। स्तोत्रपाठ से श्रेष्ट जप है। जप से श्रेष्ट ध्यान-धारणा है। ध्यान-धारणा से श्रेष्ठ लय ब्रह्मसद्भाव तथा सहजावस्था है। सहजावस्था (ब्रह्मात्मैक्य) की उपलब्धि ही साधक का चरमलक्ष्य होता है।
साधक के आध्यात्मिक स्तर के अनुरूप पूजोपासना को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है यथा अधम उपासना, मध्यम उपासना तथा उत्तम उपासना। प्रत्येक श्रेणी की पूजोपासना का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है।

(1) अधम उपासना
यह उपासना की प्रारांभिक अवस्था है परन्तु इसे सफलतापूर्वक सम्पन्न करके ही साधक मध्यम उपासना में प्रवेश पाने का अधिकारी बन सकता है। इस विधि से उपासना करने वाला साधक द्वैभाव (स्वयं को इष्टदेवी से अलग समझकर) तथा देहाभिमान के साथ उपासना करता है। इसे भक्ति-योग या पाशवकल्य की उपासना भी कहा जाता है। साधक इष्ट देवी को अपनी माता अथवा स्वामिनी एवं स्वयं को पुत्र अथवा दास मानकर पूजन करता है। साधक अपनी इष्ट देवी की मूर्ति को पूजास्थल में प्रतिष्ठित करके विभिन्न उपचारों से पूजन-अर्चन करता है। नवधाभक्ति के अनुसार स्तोत्रादि का पाठ करता हुआ वह उसकी महिमा का गुणगान करता रहता है। अपनी इच्छा को उसकी इच्छा में मिलाकर ‘तेरा तुझको अर्पण’ की भावना के साथ उसकी कृपा पर निर्भर रहता है। निरन्तर अभ्यास करने से इष्ट के प्रति उसकी श्रद्धा तथा विश्वास में वृद्धि होती है। इन सब लक्षणों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह पड़ता है कि साधक को स्वप्न अथवा अर्द्धजागृत अवस्था में आभास होने लगता है कि इष्ट-देवी ने उसे दर्शन दिए हैं। वास्तव में यह अनुभूति उसे अपने आत्म-बल से होती है जिसका उसे पता ही नहीं रहता है। वह अपनी साधना को सफल मानकर अपने को धन्य समझता है।
इस प्रकार पूर्ण मनोयोग तथा मन, वचन, कर्म से की गई अधम उपासना के वरदान स्वरूप साधक में अनन्य इष्ट प्रेम, दृढ़ विश्वास तथा आत्मबल की वृद्धि हो जाती है जिनका सहारा लेकर वह साधना के परमोच्च् सोपान (ब्रह्मात्मैक्य) तक पहुंच जाता है।

(2) मध्यम उपासना
भक्तियोग की साकार उपासना (अधम उपासना) को सफलतापूर्वक सम्पन्न करके द्वैतभावना एवं देहाभिमान का त्याग कर चुका साधक अब ब्रह्मात्मैक्य प्राप्त करने की सर्वोच्च अभिलाषा की पूर्ति हेतु मध्यम एवं उच्चतम उपासना के प्रकाशमय क्षेत्र में प्रवेश करता है। दीर्घकाल तक की गई अधम-उपासना का वह उसी प्रकार त्याग कर देता है जिस प्रकार फल लग जाने पर बृक्ष पुष्पों का त्याग स्वतः ही कर देता है।
‘फलं प्राप्त यथा बृक्ष-पुष्पं त्यजति निस्प्रहः।’

मध्यम उपासना का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1- मध्यम उपासना हेतु मूर्ति, चित्र, कर्मकान्ड एवं बाह्यउपचारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। अधम उपासना के समय पूजा की जिन सामग्रियों तथा उपचारों (पंचोपचार, षोडशोपचार) का प्रयोग साधक करता था उनके स्थान पर उनके तत्वात्मक स्वरूपों को भावना के द्वारा इष्ट को समिर्पित करता है। यथा ‘पृथ्वीतत्वात्मकं गन्धं’ ‘बह्नि तत्वात्मकं दीपं’ आदि। साधक को यह भी आभास होने लगता है कि जो त्रिभुवन-मोहिनी है उनका श्रंगार करने तथा जिनके प्रकाश से अनेकों ब्रह्मान्ड प्रकाशित होते हैं उनको दीपक का प्रकाश दिखाने का कोई औचित्य नही है। 

2- साधक बहिर्मुखी वृत्तियों का त्याग करके अपनी दृष्टि, इन्द्रियों तथा विचारों को अन्तर्मुखी बनाकर इष्ट के मंत्र-मय तथा यंत्र-मय रूप पर ध्यान केन्द्रित करता है। अपने मेरूदन्ड में स्थित षट्चक्रों तथा मूलाधार से सहस्रार पर्यन्त प्रकाशमय सूक्ष्मदन्ड के रूप में विद्यमान उस कुन्डलिनी शक्ति का ध्यान करता है जो कमलनाल के समान अत्यन्त सूक्ष्म, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान शीतल है।
3- मध्यम उपासना के अन्तर्गत वीरभावी साधक द्वारा पिन्ड-ब्रह्मान्ड के प्रतीक श्रीयंत्र का पूजन-अर्चन किया जाता है। वह स्वयं में विद्यमान उस द्वैतभावना को नष्ट करने हेतु प्रार्थना करता है जिसके कारण वह स्वयं को परमात्मा से अलग समझता है। वह अपने निदिध्यासन से जीव, जगत तथा ब्रह्म की अखन्ड एकता के सम्पादन का प्रयास करता है।

4- शक्ति का बीरभावी उपासक एक गोपनीय तथा विशिष्ट विधि से श्रीयंत्र की पूजा करता है। इस क्रिया को ‘कुलपूजा’ अथवा ‘कुलार्चन’ कहते हैं। साधक श्रीयंत्र में अपने आत्मचैतन्य की प्रतिष्ठा करके उसका पूजन-अर्चन करके पुनः उसे अपने हृदय में स्थापित कर लेता है। इस विधि में वह आनन्दभैरव तथा आनन्दभैरवी का विधिवत अर्चन करके ब्रह्म के आनन्दमय स्वरूप का साक्षात्कार तथा आत्मा में ही परमात्मा की विद्यमानता का अनुभव कर लेता है।

5- मध्यम उपासना के अन्तर्गत वीरभावी शक्ति उपासकों द्वारा सामूहिक रूप से भी पूजन-अर्चन करने का विधान है। इस क्रिया में पुरूष साधक (वीर) तथा स्त्री-साधिका (योगिनी) भाग लेते हैं। प्रारम्भ में एक वीर तथा एक योगिनी को ‘चक्रार्चन’ का अभ्यास करके कालान्तर में वीर-चक्र तथा दिव्य-चक्र में सम्मिलित होने का अवसर मिलता है जहां अनेकों वीर तथा योगिनियां सामूहिक रूप से चक्रार्चन करते हैं। यद्यपि इन साधकों की निश्चित संख्या का उल्लेख नहीं मिलता परन्तु यह अवश्य सुनिश्चित कर लिया जाता है कि सभी साधकों का आध्यात्मिक स्तर तथा चित्त-वृत्ति एक समान होनी चाहिए। चक्रार्चन की इस क्रिया को ‘राजाधिराज योग’ भी कहा जाता है। चक्रार्चन का मुख्य उद्देश्य आत्म-तत्व, विद्या-तत्व, शिव-तत्व, सर्वतत्वादि एवं स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण देह की शुद्धि करते हुए ‘तत्वमसि’ (तुम वही हो) की भावना को सुदृढ़ करके परमानन्द की प्राप्ति करना होता है।

6- मॉं काली तथा मॉं तारा का उपासक वीराचार (वामाचार) का सहारा लेकर चिता, मुन्ड तथा शवसाधना करता है। इस विषय पर ‘भाव, आचार तथा पंचमकार‘ शीर्षक के अन्तर्गत प्रथक से लिखा गया है।
उत्तम उपासना
उत्तम उपासना के स्तर तक विरले सौभाग्यशाली साधक ही पहुंच पाते हैं। यह पूर्णतया निदिध्यासन की अवस्था है। ऐसे ही आत्मान्वेशी साधक के लिए उपनिषद कहता है-
‘आत्मा वा अरे दृष्टव्य, मन्तव्य, श्रोतव्य निदिध्यासितव्यः’। ऐसे साधक (महायोगी) की साधना प्रणाली, अध्यात्मिक भावनाऐं तथा प्रमुख विशेषताऐं इस प्रकार है-
1- उत्तम साधना करने वाला साधक अपनी आत्मा में परमात्मा, अपनी देह में देवालय, स्वयं को समस्त जगत में ब्याप्त तथा समस्त जगत को अपने में व्याप्त देखता है। उच्चतर भावनाओं से ओत-प्रोत होकर वह सुख-दुख, भय-विय, मान-अपमान, घृणा-लज्जा तथा आशा-तृष्णा रूपी अष्टपाशों से विमुक्त होकर अद्वैतावस्था में विचरण करता है जिसके लिए शास्त्र कहता है-
‘जीवन्मुक्तः स एवात्मा-भोगार्थ रमते महीम्’
(उसकी आत्मा जीवन्मुक्त रहती है। वह केवल भोग के लिए संसार में रमण करता है)
‘अंह ब्रह्मा, अहं बिष्णु, अहं देवो महेश्वरः
सर्वभूत निवासोहं-लोके श्रीशक्ति चिन्तकः’
(मैं ही त्रिदेव हूं तथा समस्त प्राणियों का निवास स्थान हूं)
‘देहो देवालय प्रोक्त-जीवो देव सदाशिव
तजेत् अज्ञान निर्माल्यं-सोभावेन पूजयेत्’
(ऐसे साधक का शरीर मन्दिर है। उसकी जीवात्मा ही श्रीशिव है। वह अज्ञान का त्याग करके ‘मैं वही हूं’ की भावना से पूजन करता है)
‘जीवःशिवः शिवो जीवः-सजीवःकेवल शिवः
तुषेण बद्धो ब्रीहिस्यात्-तुषा भावेतु तंडुलः’
(ऐसा साधक विश्वास करता है कि जीव ही शिव है तथा शिव ही जीव है। जिस प्रकार छिलका निकलने पर धान ही चावल बन जाता है उसी प्रकार पाशमुक्त होकर जीवात्मा भी परमात्मा बन जाता है)
2- ऐसा साधक मन, बचन, कर्म तथा शरीर से अहर्निश जो भी क्रिया-कलाप करता है उन सबको परमात्मा को समर्पित ही नहीं करता वरन् समस्त गतिविधियों को इष्ट की सपर्या (पूजा) ही समझता है। उसकी इस भावना का उल्लेख शास्त्र इस प्रकार करते हैं-
‘आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचरा प्राणा शरीरं गृंह
पूजा ते ........... समाधिस्थिति
संचारः पदयो ........... सर्वागिरौ
यद्यत् कर्म .............. तवाराधनम्’
(ऐसे साधक की आत्मा शिव तथा बुद्धि पार्वती है। समस्त सांसारिक विषयोपभोग पूजा है। निद्रा ही समाधि है। उसका चलना-फिरना ब्रह्म की प्रदक्षिणा है। उसका बोलना ही प्रार्थना के स्तोत्र है। वह जो भी कर्म करता है सब शिव (ब्रह्म) की राधना ही है)
यही भावनाऐं इस श्लोक में भी निहित हैं-
‘‘जपो जल्प: शिल्पं सकल मपि मुद्रा विरचना
गति प्रादक्षिण्यां ....... आहुति विधिः
प्रणांम संवेश ....... दृशा
सपर्या पर्याय ....... विलसितं’’
3- उत्तम साधक ‘भावनोपनिषद्’ के वाक्यों का पालन करता हुआ अपने मन के समस्त उद्वेगों, मन तथा इन्द्रियों के ब्यापारों तथा पाप-पुण्य को श्रीयंत्र में स्थित देवियों को पूजा के उपचारों के रूप में समर्पित करके निर्लिप्त अवस्था में विचरण करता है। ऐसी पूजोपासना के सम्बन्ध में भावनोपनिषद् के कतिपय वाक्य स्मरणीय है-
परापश्यन्ती आदि शब्दानां-स्तवीमि’
(परा, पश्यन्ती आदि शब्दों से स्तुति करता है)
‘विषयेषु धावमानानां चित्तवृत्तीनां-प्रदक्षिणा’
(विषय-भोगों की तरफ दौड़ने वाली चित्तवृत्तियों का समर्पण ही प्रदक्षिणा है)
‘अहं, त्वं, अस्ति, नास्ति, कर्तव्य, अकर्तव्य-होमः’
(मैं, तुम, है, नहीं है, कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य क्या है इन सब विचारों का समर्पण ही होम है)
4-उत्तम उपासक समस्त बाह्य उपासनाओं का त्याग करके वेदों के चार महावाक्यों का ही मनन-चिन्तन करता हुआ ब्रह्मानन्द में निमग्न रहता है- यथा ‘प्रज्ञांन ब्रह्म’-(ज्ञान ही ब्रह्म है) अहं ब्रह्मास्मि’-(मैं ही ब्रह्म हूं) ‘तत् त्वं असि’-(तुम वही हो) तथा ‘अयमात्मा ब्रह्म-(मेरी आत्मा ही ब्रह्म है)
इस प्रकार उत्तम उपासना करके साधक ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म ही बन जाता है तथा जिसे जानकर वह सर्वज्ञानी बनकर मुक्त हो जाता है-
‘ब्रह्मविद्  ब्रह्मैवभवति’ तथा ‘यस्मिन्ज्ञाते सर्वं विज्ञात् मुच्यते वेदैः’
                                                   (वरिवस्या रहस्य)

11. ।।भाव, आचार तथा पंचमकार।।

।।भाव, आचार तथा पंचमकार।।

भाव तथा आचार के सम्बन्ध में शास्त्र बचन है-
‘‘भावो हि मानसों धर्मो-क्रमः आचार उच्यते ’’

(साधक के मन में जो विचार उत्पन्न होता है उसे ‘भाव’ एवं उसी भाव विचार के अनुरूप वह जो क्रिया-कर्म करता है उसे ‘आचार’ कहते हैं)

तंत्र-शास्त्र में शक्ति-उपासना हेतु तीन भाव तथा सात आचार निर्धारित किए गए हैं। तीन भाव हैं- शुभाव, बीरभाव तथा दिव्यभाव एवं सात आचार हैं-वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार सिद्धान्ताचार, वामाचार तथा कौलाचा उपासक को इन्हीं भावों तथा आचारों के अनुरूप उपासना करके ब्रह्मप्राप्ति करनी पड़ती है।

शक्ति उपासक द्वारा पशुभाव, बीरभाव तथा दिव्य भावपूर्वक की जाने वाली उपासनाऐं क्रमशः अधम उपासना, मध्यम उपासना तथा उत्तम उपासना की श्रेणी में आती है जिनके सम्बन्ध मेंपूजोपासना की विधियांशीर्षक के अन्तर्गत लिखा जा चुका है।

शाक्तागम ग्रन्थों यथा विश्वसारतंत्र, महाचीनाचार तंत्र, कुलार्णव तंत्र, महानिर्वाण तंत्र समयाचार तंत्र तथा सर्वोल्लास तंत्र में विभिन्न भावों तथा आचारों के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार -
‘‘सर्वेम्यश्चोत्तमा वेदा-वेदेम्यो बैष्ण्ंवं परम
वैष्णवादुत्तमं शैवं-शैवादक्षिण मुत्तमंम्
दक्षिणात् उत्तमं वामं-वामात् सिद्धान्त उत्तमम्
सिद्धान्तात् उत्तमं कौलं-कौलात् परतरं नहिं।।’’
(वेदाचार से श्रेष्ट वैष्णवाचार है। वैष्णवाचार से श्रेष्ट शैवाचार है। शैवाचार से उत्तम दक्षिणाचार है। दक्षिणाचार से श्रेष्ट वामाचार है। वामाचार से उत्तम सिद्धान्ताचार तथा सिद्धान्ताचार से श्रेष्ट कौलाचार है।)
इन आचारों को तीन भावों के अन्तर्गत माना गया है। विश्वचार तंत्र के अनुसार-
‘‘चत्वारो देवि वेदाद्याः-पशुभावे प्रतिष्ठिता
वामाद्यास्रय आचारा-दिव्ये वीरे प्रकीर्तिता’’
(प्रथम चार आचार पशुभाव, वाम तथा सिद्धान्ताचार वीरभाव एवं कौलाचार को दिव्यभाव के अन्तर्गत माना गया है)
उपरोक्त सातों आचारो का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
(1) वेदाचार-
वेदाचारी उपासक वेदाध्ययन करके वेदमाता गायत्री की उपासना करता है। अष्टांगयोग तथा ‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह’ का पालन करके एक ग्रहस्थ सन्त की भांति आचरण करता हुआ श्रद्धा-विश्वासर्पूवक सदैव ब्रह्मप्राप्ति हेतु मन, वचन, कर्म से प्रयास करता है। वेदाचार का पालन करके साधक की बाह्यशुद्धि हो जाती है।

(2) बैष्णवाचार-
ईश्वरीय शक्तियों में पूर्ण विश्वास रखने वाला भक्तियोग का अनुयायी, परोपकारी, निराभिमानी तथा सात्विक वृत्ति वाला व्यक्ति जब नवधाभक्ति पूर्वक श्रीबिष्णु के विभिन्न नामों तथा उनके अवतारों (राम, कृष्ण) तथा राधा-कृष्ण का नाम जप एवं संकीर्तन करता है तो उसे बैष्णवाचारी कहते हैं। साधक हरिप्रिया तुलसी का पूजन करता है। तुलसीमाला से जप तथा उसे धारण भी करता है। बैष्णवाचार का पालन करने से साधक की चित्तशुद्धि हो जाती है तथा वह गुरूभक्त बन जाता है।

(3) शैवाचार-
शिव तथा शक्ति की ऐक्यता पर विश्वास रखने वाला, भक्ति करने की क्षमता रखने वाला, स्वधर्म पालन तथा स्वधर्म की रक्षा करने वाला विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत व्यक्ति जब शिव-शक्ति की पूजोपासना करता है तो उसे शैवाचारी कहते हैं। ऐसा साधक भस्म तथा रूद्राक्ष धारण करता है। वह सदैव विशुद्ध ज्ञानार्जन हेतु तत्पर रहता है।

(4) दक्षिणाचार-
दक्षिणाचार उपासना पद्धति में साधक न केवल पुरूष तत्व (शिव) वरन् प्रकृति तत्व (शक्ति) की महत्ता को भी स्वीकार करता है। शक्ति की इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक तीन स्वरूपों पर विश्वास रखते हुए द्वैतभावना तथा देहाभिमान पूर्वक शिव-शक्ति की पूजोपासना में तत्पर रहता है। प्रथम तीन आचारों का पालन करके उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके निदिध्यासन का अभ्यास करता रहता है।
उपरोक्त चारों आचार पशु आचार तथा अधम उपासना के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन सभी आचारों में भक्तियोग योग का दास्यभाव, साधक का द्वैतभाव तथा देहाभिमान विद्यमान रहता है। ऐसा साधक उन पंच-कंचुकों तथा अष्टपाशों से आबद्ध रहता है जिनसे मुक्त हुए बिना ब्रहमप्राप्ति सम्भव नहीं है। ऐसे साधक में उस प्रबल इच्छा शक्ति तथा आत्मबल का अभाव रहता है जिसके बल पर एक बीर साधक अपने प्राणों को घोर संकट में डालकर भी परमलक्ष्य (ब्रह्मप्राप्ति) की प्राप्ति कर लेता है।

(5) सिद्धान्ताचार-
वामाचार की समस्त साधनाओं को पूर्णकरके तथा उस साधना से अर्जित ज्ञान का सहारा लेकर साधक सिद्धान्ताचार में प्रवेश करता है। ऐसा साधक अपने मन तथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करके समस्त शंकाओं से रहित होकर उस स्थितप्रज्ञअवस्था में पहुंच जाता है जिसका विवरण भगवत् गीतामें दिया गया है। वह सदैव भैरव वेश धारण कर ब्रहमानन्द का अनुभव करता रहता है।
सम्प्रदाय भेद के कारण कहीं पर सिद्धान्ताचार को वामाचार साधना से पूर्व तथा कहीं पर वामाचार के पश्चात स्थान दिया गया है। वास्तव में वामाचार तथा सिद्धान्ताचार दोनों ही वीराचार के अन्तर्गत माने जाते हैं।

(6) वामाचार (वाममार्ग)-
विभिन्न आगम ग्रन्थों में वाममार्ग की श्रेष्टता, गोपनीयता तथा इस प्रकाशमान आध्यात्मिक महापथ पर चलकर परमेश्वरत्व प्राप्त करने वाले साधक के लक्षणों का जो वर्णन किया गया है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
भगवान श्री शिव द्वारा वाममार्ग को अत्यन्त दुर्गम तथा योगियों के लिए भी अगम्य माना गया है-
‘‘वामो मार्गः परम गहनो-योगिनामप्यगम्यः’’
पुरश्चर्यार्णव नामक तंत्र ग्रन्थ में वाममार्ग को सर्वोतम, सर्वसिद्धिप्रद तथा केवल जितेन्द्रिय व्यक्ति के लिए ही सुलभ माना गया है-
‘‘अयं सर्वोत्तमं धर्मः-शिवोक्त सर्वसिद्धिदः
जितेन्द्रियस्य सुलभो-नान्यथा नन्त जन्मभिः’’
अर्थात् इन्द्रिय-लोलुपव्यक्ति अनन्त जन्मों में भी इस साधना का अधिकारी नहीं बन सकता है।
भगवान श्री शिव मॉं पार्वती से कहते हैं कि कि हे देवि! इस उत्कृष्ट वाममार्ग की साधना को सदैव परम गोपनीय रखना चाहिए-
‘‘अतो वामपथं देवि! गोपये मातृजारवत्’’
प्रसिद्ध आगमग्रन्थ मेरूतंत्रका कथन है कि केवल वही साधक वाममार्ग की साधना का अधिकारी हो सकता है जो दूसरों के धन को दखकर अन्धा, परस्त्री को देखकर नपुंसक तथा दूसरों की निंदा करते समय गूंगा बनने की क्षमता रखता हो-
‘‘परद्रव्येषु यो अन्धः-परस्त्रीषु नपुंसकः
परापवादे यो मूकः-सर्वथा विजितेन्द्रियः
तस्यैव ब्राह्मणस्यात्र-वामस्य अधिकारिता’’
वामाचार का उल्लेख करने से पूर्व उन पंचमकारों का ज्ञान होना आवश्यक है जिनका प्रयोग वामाचारी साधक द्वारा किया जाता है। पंचमकार (पंच+मकार)= 5 मकार। अर्थात् ‘म’ से प्रारम्भ होने वाले 5-द्रव्य। इनके नामो का उल्लेख कुलार्णव तंत्र में इस प्रकार किया गया है-
‘‘मद्यं, मासं च मत्स्यं च-मुद्रा मैथुन एव च
मकार पंचकं प्रोक्तं-देवता प्रीतिकारकम्’’
(मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन नामक 5-मकार देवताओं के लिए प्रीतिकारक है)

यह सर्वविदित है कि पचंमकारों का उपयोग आदिकाल से ही होता रहा है। आदिमानव जंगलों में रहता था। वह जंगली जानवरों तथा मछली का मांस खाता था। पेड़ की छालों तथा विभिन्न जड़ी बूटियों से विशेष रसों (आसवों) को तैयार करके पीता था। वैदिक काल में यज्ञों की प्रधानता थी। अश्वमेधादि यज्ञों में पशुबलि तथा मद्य-मांस का प्रयोग होता था। समस्त कर्मकान्डों तथा यज्ञ-अनुष्ठानों के आयोजन में नारी (पत्नी) की सहभागिता तथा सहयोग अवश्यम्भावी था।

वेदों में श्रीभागवत् महापुराण में तथा मनुस्मृति में भी मद्य एवं मांस को देवी-देवताओं की पूजा, पितृकार्यो तथा विभिन्न अनुष्ठानों हेतु उपयोगी तथा यज्ञों की हवन सामग्री के रूप में भी मान्यता प्रदान की गई थी। रामायण तथा रामचरितमानस भी प्रमाणित करते हैं कि उस काल में मद्य-मांस का भरपूर प्रयोग होता था। देखिए-

(1) यजुर्वेद में बताया गया है कि जिस भूमि में यज्ञादि में मद्य का प्रयोग होता है उस भूमि में घी की नदी बहती है-
‘‘यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञों
घृतस्य धाराभिः तत्पवन्ते’’
(2) श्री भागवत् महापुराण में बताया गया है कि मांस भक्षण तथा स्त्री-संग करने में कोई दोष नहीं है-
‘‘लोके ब्यवायामिस-मद्यसेवा
नित्यास्ति जन्तो हि तत्र चोदना’’
(3) महाराज मनु ने भी मद्य, मांस तथा मैथुन को प्राकृतिक आहार-व्यवहार मानते हुए स्वीकार्य बताया है-
‘‘ मांस भक्षणे दोषो- मद्ये मैथुने’’
(4) श्री बाल्मीकि रामायण-
 रामायण काल में मद्य-मांस के प्रयोग सम्बन्धी दो विशेष प्रसंग उल्लेखनीय है। प्रथम प्रसंग उस समय का है जब मॉं  सीता पति श्री राम तथा देवर श्री लक्ष्मण के साथ गंगा पार करती हैं तथा मॉं गंगा से प्रार्थना करती है कि हे माता! जब मैं अपने पति तथा देवर के साथ वनवास की अवधि समाप्त करके सकुशल अयोध्या वापस लौटूगीं तो आपको हजारों घट सुरा तथा भरपूर मांस अर्पित करूंगी।
‘‘सुराघट सहस्रेण’’
द्वितीय प्रसंग उस समय का है जब श्री राम बन में पर्णकुटी बनाने से पूर्व वास्तु पूजा हेतु मांस की ब्यवस्था करने के लिए श्री लक्ष्मण को निर्देश देते हैं तब श्री लक्ष्मण काले मृग का वध करके मांस की व्यवस्था कर देते हैं-
‘‘ऐणेयं मांस माहृत्य-शालां वक्ष्याम्यहे वयम्
कर्तव्यं वास्तुशमनं-सौमित्रे चिरजीविभिः
(5) रामचरितमानस
इस ग्रन्थ का वह प्रसंग विशेष रूप से उल्लेखनीय है जब श्री भरत श्री राम से मिलने अयोध्या की विशालसेना, जनता तथा परिवार के साथ चित्रकू गए थे। उस विशाल भीड़ के खान-पान की ब्यवस्था हेतु मद्य तथा मांस का भरपूर प्रयोग किया गया था-
‘‘मीन पीन पाठीन पुराने-भरि भरि थार कहारन आने’’

।।शाक्तागम ग्रन्थों में पंचमकार।।

जिस प्रकार परमाणु शक्ति का उपयोग विकास तथा विनाश दोनों कार्यों के लिए हो सकता है उसी प्रकार पंचमकारों का प्रयोग भी वीर साधक के लिए उत्थान तथा पशुबुद्धि वाले ब्यक्ति के लिए घोरपतन का कारण बनता है। इस तथ्य की पुष्टि शास्त्र भी करता है-
‘‘येनै विखन्डेन-म्रियते सर्वजन्तवः
तेनैव विखन्डेन-भिषक् नाशयते रूजम्’’
(जिस विष को पीने से सभी जन्तु मर जाते हैं उसी विष से औषधि बनाकर वैद्य-चिकित्सक समस्त रोगों का उपचार करते हैं।)
इसी धारणा के अनुरूप तंत्र-शास्त्रों द्वारा भी शक्ति उपासना हेतु पंचमकारों के उपयोग की सहमति प्रदान की गई है। शाक्तागम ग्रन्थों विशेष रूप से कुलार्णव तंत्र में उपलब्ध पचंमकारों के सहस्यपूर्ण अर्थों, उपयोगिताओं, मान्यताओं, शुद्धिकरण की विधियों, प्रयोग की सीमाओं, प्रयोगकर्ता की योग्यताओं के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण इस प्रकार है-

(1) शक्ति उपासना हेतु प्रयोग किए जाने वाले पंचमकारों को शक्ति-साधक द्वारा उसी रूप में प्रयोग नहीं किया जाता है जिस रूप में वह प्राकृतिक रूप से सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध रहते हें। इन पांच मकारों में मद्य ऐसा द्रव्य है जिसमें तामसिक शक्तियों का वास होता है। यदि बिना शोधित किए हुए मद्य का प्रयोग किया जायेगा तो साधक की चित्त-वृत्ति अस्थिर हो जायेगी तथा उसका आध्यात्मिक पतन हो जायेगा। अतः उपयोग में लाने से पूर्व पंचमकारों का शास्त्रीय विधानों से शुद्धिकरण करना परमावश्यक होता है। इन द्रव्यों का शुद्धिकरण विभिन्न तांत्रिक तथा वैदिक मंत्रों से किया जाता है। शुद्धिकरण के पश्चात् सामान्य मद्य ही अमृत बन जाता है जो देवताओं को अत्यन्त प्रिय है। तंत्र शास्त्र बताते हैं-
‘‘अग्नि सूर्येन्दु ब्रह्मेन्द्रो-विष्णु रूद्र सदाशिवैः
चतुर्विशंति मंत्रै स्या-मद्यं चैव परामृतम्’’
(अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, ब्रहमा, इन्द्र, विष्णु, रूद्र तथा सदाशिव की 24 कलाओं तथा मंत्रों से मद्य को शुद्ध करके अमृत रूप प्रदान किया जाता है।)
द्वितीय पंचमकार मांस हेतु पशुबलि का विधान है। जिस पशु (विशेषकर छाग) की बलि दी जाती है उसके शिर पर विशेष मंत्रों से प्रोक्षण किया जाता है तथा उसके कान में मंत्र-उच्चरित किए जाते हैं। महाकाल संहिता का निर्देश है -
‘‘अग्नि वायु रवि चन्द्रो-यमोवरूण एव
रूद्र देव्योष्टमी मंत्रैः-प्रोक्षणं पशु मस्तकैः
प्रोक्षितं क्षयेन्मासं-ब्राह्मणानां काम्यया।’’
(आठ देवताओं यथा अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, मराज, वरूण, रूद्र तथा देवी के मंत्रों से पशुबलि के शिर पर प्रोक्षण करके बलिदान से प्राप्त शुद्ध एवं परिस्कृत मांस को देवता को अर्पित करके ब्राह्मण को प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए।)
इसी प्रकार अन्य तीन मकारों का भी विभिन्न तांत्रिक तथा वैदिक मंत्रों से शुद्धिकरण करके देवताओं के लिए परमप्रीतिकारक तथा ग्रहणीय बना लिया जाता है।

(2) तंत्र-शास्त्र पंचमकारों को ब्रह्मरूप आनन्द का अभिब्यंजक बताते हैं। यथा-
‘‘आनन्दं ब्रह्मणोरूपं-तच्च देहे ब्यवस्थितम्
तस्याभिब्यंजका-पंचमकारा परिकीर्तिता’’

(आनन्द ही ब्रह्म का स्वरूप है जो मानव की देह में विद्यमान रहता है परन्तु सामान्य व्यक्ति उसका अनुभव नहीं कर पाता। शोधित मद्य पान से उसका अनुभव किया जा सकता है।)

(3) कुलार्णवतंत्र में बताया गया है कि जो साधक असंस्कृत (बिना शोधन) सुरा का पान करता है उसकी कीर्ति, विद्या, सुख तथा धर्म का बिनाश हो जाता है तथा वह सदैव दुखी रहता है।
‘‘असंस्कृतं सुशपानं कलहं ब्याधि दुखदम्।
कीर्ति आयुश्च सौख्यं च-धर्मो विद्या च नश्यति।’’
यह भी बताया गया है कि जो वामाचारी वीर साधक निर्द्वन्दो, निर्भय, ममतारहित, शंकारहित तथा वेदागम के रहस्यपूर्ण अर्थो को समझ चुका हो वही वरदाइनी वारूणी-पान का अधिकारी है-
‘‘निर्द्वन्दो निर्भयो वीर-निर्ममो निष्कुतूहल।
निर्णीत वेद शास्त्रार्थी-वरदां वारूणी पिवेत्।’’
पुनश्चः निद्र्वन्दो
‘‘मद्यं मासं च मत्स्ंय च-मुद्रा मैथुन एव
च-इदमाचरणं देवि पशोर्नो दिव्यवीरयो।’’

(पंचमकारों के उपयोग का अधिकार केवल दिव्य तथा वीर साधक को दिया गया है न कि पशुआचारी अदीक्षित व्यक्ति को)
(4) तंत्र शास्त्र बताते हैं कि मंत्र की सिद्धि, देवी-देवताओं की तृप्ति, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति, संसार बन्धन से मुक्त होने के लिए तथा आनन्द रूप ब्रह्म की प्राप्ति के लिए साधक को केवल पूजोपासना के समय सुरापान करना चाहिए।
‘‘तृप्यर्थं सर्व देवानां-ब्रहमज्ञानं विधाय च
मंत्रार्थ स्मरंण चैव-मानसः स्थिर हेतवे।’’
(कुलार्णव)
(5) शास्त्रों में मद्यपान की अनुमति केवल दीक्षायुक्त, विद्धान, धैर्यवान, सुशील, निर्विकारी तथा मनोजयी वीर साधक को ही दी गई है। जो व्यक्ति असंस्कृत सुरा पान करके अपनी बुद्धि-विवेक गंवाकर अभद्र, अमर्यादित तथा असामाजिक आचरण करता है उसे घोर पशु माना गया है।
‘‘पशुपान विधौपीत्वा-वीरोपि नरकं ब्रजेत्।’’
(6) वामाचार के अन्तर्गत वीर साधक अपने मन-चित्त को स्थिर करने के लिए मद्यपान करता है। वह कुलाचार के अनुसार पूजन-अर्चन करके देवी को समर्पित करके प्रसाद रूप में ग्रहण करता है। महानिर्वाण तंत्र कहता है-
‘‘सम्यग् विधि विधानेन-सुसमाहित चेतसा
पिवन्ति मदिरां मत्र्या-अमत्र्या एव ते क्षितौ’’

(जो साधक विधि-विधान के साथ स्थिर चित्त होकर सुरापान करता है वह पृथ्वी पर देवतुल्य होता है)

(7) उस श्मशान भूमि में जहां दिन के प्रकाश में ही सामान्य व्यक्ति भयभीत हो जाता है वहां अमावास्या की घोर अंधेरी रात्रि में वीर साधक मॉं काली तथा मॉं तारा की साधना करता है। चिता, मुन्ड तथा शवसाधना करने से पूर्व पूर्णतया भयमुक्त होने, समस्त चेतना को चरमलक्ष्य की तरफ केन्द्रित करने तथा श्मशान में विद्यमान विघ्नकारक तामसी शक्तियों को संतुष्ट करने हेतु वह शोधित सुरा का पान करता है ताकि उसकी साधना निर्विघ्नतया सम्पन्न हो सके।
‘‘चितिं वापि शवं वापि-कामिनीं वा न साधयेत्
काली तारासु विघासु-नैवान्तर्यजनं चरेत्’’

(8) कुलार्णव तंत्र में बताया गया है कि जिस पूजोपासना में मद्य, मांस तथा शक्ति का साहचर्य नहीं होता है वह पूजा निष्फल हो जाती है-
बिना मद्येन या पूजा-बिना मांसेन तर्पणम्
विनाशक्त्या च यत्पानं-तत्सर्वं निष्फलं भवेत्’’
इसके अतिरिक्त तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए भी मद्यपान को आवश्यक बताया गया है-
‘मद्यपांन बिना देवि! तत्वज्ञानं न लभ्यते’’

(9) मद्यपान करते समय वामाचारी साधक को अनुभव करना चाहिए कि वह सुरा को हवनद्रव्य की तरह मूलाधार से जिह्वा के अन्त तक विद्यमान चैतन्यरूपा कुन्डलिनी के मुख में अर्पित कर रहा है-

मूलाधारादि जिह्वान्तां-चिद्रूपा कुलकुन्डलीम्
विभाव्य तन्मुखाम्भोजे-मूलमंत्रं समुच्चरन्
परस्पराज्ञामादाय-जुहुयात् कुन्डली मुखे’’
(10) शास्त्र यह भी बताते हैं कि बिना मांस ग्रहण किए मद्यपान करना हानिकारक होता है। इन दोनों द्रव्यों को एक दूसरे का पूरक बताते हुए मदिरा को शक्ति तथा मांस को शिवरूप मानकर इसके भोक्ता को भैरव की संज्ञा दी गई है।

सुराशक्तिः शिवो मांसः-तद्भोक्ता भैरव स्वयंम्’’
(11) अतिपान वर्जित है-
तंत्र-शास्त्रों में यह कठोर निर्देश दिया गया है कि केवल पूजोपासना के समय अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में मद्यपान विहित है। कुलार्णव तंत्र का कथन है-
यावन्न चलते वुद्धि-यावन्न चलते मनम्
तावत्पान प्रकुर्वीत-पशुपान मतः परम्’’
(जब तक दृष्टि, मन, वुद्धि एवं शरीर विचलित न हो तभी तक साधक को सुसंस्कृत सुरा का पान करना चाहिए। इससे अधिक मद्यपान पशुपान के अन्तर्गत आता है।)

पुनश्च, कुलार्णव तंत्र का बचन है-
शताभिषिक्त कौलश्चेत्-अति पानात् कुलेश्वरि!
पशुरेव स मन्तव्य-कुलधर्म बहिस्कृतः’’
(दिव्य एवं कौलमार्गी पूणीभिषिक्त साधक भी यदि अतिपान करता है तो वह पशुतुल्य है तथा वह कुलधर्म से बहिस्कृत हो जाता है।)

पूजोपासना में भी अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में ही मद्य-मांस के प्रयोग का निर्देश है-
‘‘पिशितं तिलु मात्रं तु-तिलार्धमपि विन्दुना’’
(तिल के बाराबर मांस तथा आधे तिल के बराबर मद्य से ही करोडों भैरवों की तृप्ति हो जाती है)
तंत्र शास्त्रों में जिस प्रकार मद्य के उपयोग की सीमाऐं निर्धारित की गई हैं उसी प्रकार मांस का भी केवल पूजोपासना में ही प्रयोग करने का निर्देश दिया गया है। सामान्य व्यक्ति की भांति अपनी जिह्वा तथा इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए जो बलिदान तथा मांसभक्षण करता है वह नरगामी होता है।
आत्मार्थं प्राणिना हिंसा-कदाचिन्नोदिता प्रिये
स्वनिमितं तृणंवापि-छेदयेन्न कदाचन’’

(अपने भोग के लिए कभी हिंसा नहीं करनी चाहिए। अपने लिए तो एक तिनके को भी नहीं तोड़ना चाहिए।)
मांस को तीन श्रेणियों में विभाजित करते हुए बताया गया है कि-
मांस तु त्रिविधं प्रोक्तं ख भूजलचर प्रिये।’’
(जलचर के अन्तर्गत मत्स्य, भूचर के अन्तर्गत छाग तथा खेचर के अन्तर्गत मुर्गे के मांस को ग्रहणीय बताया गया है।)
विभिन्न मांसों में छाग (बकरा) के मांस को सर्वोत्तम तथा भोग-मोक्ष दायक मानते हुए बिना छाग-मांस का प्रयोग किए गए यज्ञादि को निष्फल घोषित किया गया है-
‘सर्वेशां उत्तमं छागं-अधमं ......
.......................................
‘‘भुक्ति-मुक्ति प्रदोछाग-कोटियज्ञ स्वरूपदृ
बिना तस्या शुभक्रिया-निष्फला सकला मखा’’

(7) कौलाचार
तंत्र शास्त्र में पशुभाव, वीरभाव तथा दिव्यभाव के अतिरिक्त एक अन्य परमोच्चभाव की अवधारणा भी विद्यमान है जिसे ‘कौलभाव’ कहा गया है। ऐसे उपासक को ‘कौलयोगी’ तथा उसकी उपासना विधि को ‘कौलाचार’ कहते हैं। कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है। देखिए-
न गुरौसदृशं वस्तु-न देवः शंकरोपम
नतु कौला परमो योगे-न विद्या त्रैपुरीसमा’’
(श्री गुरू के समान कोई मनुष्य नहीं, भगवान शंकर के समान कोई देवता नही, कौलयोग के समान कोई योग नहीं तथा श्री त्रिपुरा के समान कोई महाविद्या नहीं है।)

भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं-
‘‘भोगो योगायते साक्षात्-पातंक सुकृतायते
मोक्षायते च संसार-कौलिकानां कुलेश्वरी’’
(हे कौलिकों की कुलेश्वरी! कौलसाधक द्वारा किया हुआ भोग भी योग में बदल जाता है। उसके द्वारा किया हुआ पाप सत्कर्म (पुण्य) में बदल जाता है। वह इसी संसार में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।)
पुनश्चः
‘‘कर्दमे चन्दने मित्रे-मित्रे शत्रौ तथा प्रिये
श्मशाने भवने देवि-तथैव कांचने तृणे
न भेदायस्य देवेशि! स कौलः परिकीर्तितः’’
(हे देवि! कौलसाधक परमेश्वर की सृष्टि में विद्यमान समस्त वस्तुओं को समान दृष्टि से देता है। उसके लिए घृणित तथा त्याज्य कुछ भी नहीं होता। कौलसाधक कीचड़ तथा चन्दन, मित्र तथा शत्रु, श्मशान तथा भवन एवं स्वर्ण तथा तृण को एक ही समान समझता है।)

पुनश्चः
‘‘कौलो मार्गः परमगहनो-योगिनामप्यगम्यः’’
(कौलमार्ग परमगहन तथा योगियों के लिए भी अगम्य है)
ऐसे महायोगी की प्रसंशा करते हुए भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं-
‘‘तत्कुलं पावंन देवि! धन्या तज्जननी स्मृता
तत्पिता च कृतार्थस्यात्-मुक्ता स्ततपितरः प्रिये’’

(ऐसे कौलयोगी का कुल पवित्र हो जाता है । ऐसे पुत्र को पाकर उसकी मॉं धन्य हो जाती है। उसके पिता कृतार्थ हो जाते हैं एवं उसके पितर (वंश की मृतात्माऐं) मुक्त हो जाते हैं)