।।न्यासानुसन्धान-न्यास
क्रिया।।
जिस
प्रकार उपासना शास्त्रों में विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना के अन्तर्गत
सम्बन्धित देवी-देवता के कवच पाठ को उपासक की सुरक्षा के लिए आवश्यक बताया गया है
उसी प्रकार तंत्रशास्त्र में महाविद्याओं की उपासना के अन्तर्गत न्यासानुसन्धान
(न्यास)को अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा परमउपयोगी उपासना अंग निर्धारित किया गया है।
न्यास का अभिप्रायः
ब्रह्मान्ड
में विविध स्वरूपों में विद्यमान प्रमुख नियामक एवं नियंत्रक दैवी शक्तियों को
अपने शरीर में प्रतिष्ठापित करने की क्रिया (अभ्यास) को ही न्यासक्रिया कहा जाता
है। इस प्रकार यह साधक द्वारा पिन्ड-ब्रह्मान्ड की अखन्ड एकता की भावना को सुदृढ़
करने हेतु किया जाने वाला प्रयास है। यह एक मनोवैज्ञानिक एवं भावप्रधान क्रिया है
जिसके निरंतर अभ्यास से उपासक की यह भावना सृदृढ़ हो जाती है कि उसके शरीर के समस्त
अंगों में देवी-देवताओं का वास हो गया है। न्यास करते समय विभिन्न देवी-देवताओं के
नामों तथा मंत्रों का उच्चारण करते हुए विभिन्न मुद्राओं की सहायता से अपने शरीर
के विभिन्न चक्रों तथा अंगों का स्पर्श करके उन अंगों पर सम्बन्धित देवी-देवताओं
को प्रतिष्ठापित (न्यस्त) किया जाता है।
न्यासानुसन्धान
के उद्देश्य एवं महत्व -
न्यास क्रिया के
प्रमुख उद्देश्य एवं लाभ इस प्रकार हैं-
(1)
पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता तथा शिवत्व
प्राप्त करना -
जब
साधक अपने शिर से चरण पर्यन्त शरीर के विभिन्न अंगों (प्रमुख अंग 51 हैं) पर समस्त
मातृकावर्णों, विभिन्न देवी-देवताओं, महायोगिनियों, अष्ट-भैरवों, समस्त शक्तिपीठों,
महासागरों, पवित्र नदियों, विभिन्न पर्वतों, पवित्र
धामों, सप्तद्वीपों, चतुर्दशभुवनों, ग्रहों, नक्षत्रों तथा राशियों को
प्रतिष्ठापित कर लेता है तो उसका शरीर ही देवता का निवास स्थान बन जाता है और साधक
के मन में स्वतः ही देवत्व का भाव उत्पन्न हो जाता है। इन न्यासों से वह ब्रहमान्ड
में विद्यमान समस्त नियंत्रक शक्तियों को अपने पिन्ड में ही अवस्थित देखता हुआ
‘यथा पिन्डे तथा ब्रह्मान्डे’ का आभास करता है। इन न्यासों से वह शिव बनकर शिवा की
पूजा करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। ‘शिवों भूत्वा शिवां यजेत्’ तथा ‘देहों
देवालयः साक्षात्’।
(2)
वीर-साधना के लिए सुरक्षित देह का
निर्माण करना-
तंत्र-शास्त्र
में मॉं काली तथा मॉं तारा की सिद्धि हेतु वीर साधना (चिता, मुन्ड
तथा शवसाधना) को त्वरित फलदाई बताया गया है। वीर साधक इस साधना की सफलता के लिए यह
संकल्प लेकर चलता है-
‘मंत्रं
साधयामि-शरीरं
वा पातयामि’
(या
तो मंत्र सिद्ध करूंगा या प्राण ही त्याग दूंगा ।)
वीर
साधना अत्यन्त भयावह होती है। साधनाकाल में तनिक चूक हो जाने पर प्राण संकट में पड़ सकते हैं तथा
साधक का मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है। दीर्घकाल तक न्यासों का अभ्यास करके
न्यास-जाल रूपी अभेद्य
कवच धारण किया हुआ साधक ही ऐसी साधना करने का साहस कर सकता है।
(3)
महाशक्ति का तेज सहने की क्षमता प्राप्त करना-
साधक
जिस महाशक्ति के दर्शन करना चाहता है उसका स्वरूप इस प्रकार है-
‘कोटि
सूर्य प्रतीकाशां-चन्द्र कोटि सुशीतलां’
‘उद्यत्कोटि
दिवाकर द्युतिनिभां’
(वह
करोड़ों सूर्यो के समान प्रकाशमान तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान शीतल है)
महाशक्ति
के ऐसे परमतेजोमय स्वरूप के दर्शन वही साधक कर सकता है जिसने न्यासानुसन्धान करके अपने
शरीर को बज्रमय बनाया होता है क्योंकि सामान्य शरीर तो करोड़ों मील दूर स्थित सूर्य
के ताप से क्षण भर में ही झुलस जाता है। इसका प्रमाण श्री भगवद्गीता के उस प्रसंग से
भी मिल जाता है जब शिवोपासक, कपिध्वज तथा श्रीकृष्ण सखा अर्जुन श्रीकृष्ण के विराट्
स्वरूप को देखते ही अपनी सुध-बुध गंवा बैठे थे।
(4)
महाविद्याओं से सम्बन्धित न्यास-
तंत्र-शास्त्र
में दश महाविद्याओं को तीन वर्गों में विभाजित
किया गया है। यथा कादिविद्या, हादिविद्या तथा कहादिविद्या।
कादिविद्या का अभिप्राय श्री महाकाली, हादिविद्या का तात्पर्य श्री त्रिपुरा (श्रीविद्या) तथा कहादि विद्या का तात्पर्य मॉं
तारा से है। इन दशमहाविद्याओं के मंत्र यंत्र, पूजोपासना की विधियों
तथा न्यास आदि का विवरण जिन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है उनमें से शाक्तप्रमोद, तंत्रसार, मंत्र-महार्णव, मंत्रमहौदधि
तथा शारदातिलक प्रमुख हैं। इन ग्रन्थों में प्रत्येक महाविद्या से सम्बन्धित न्यास
करने की विभिन्न विधियां
तथा क्रम निर्धारित हैं परन्तु सभी
न्यासों में मातृकावर्णों (अ से अः तक तथा
क से क्ष तक = 51 वर्ण) का विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता
है। विभिन्न मातृकावर्णो में कहीं पर विसर्ग, कहीं पर अनुस्वार तथा कहीं पर इन दोनों का एक साथ प्रयोग करके न्यास करने का विधान है।
विभिन्न क्रमों से न्यास करके साधक की मनोकामनाऐं पूर्ण होती है तथा वह देवताओं के लिए भी पूजनीय बन जाता है।
प्रत्येक
महाविद्या के मंत्र का रिषि, छन्द,
देवता, बीज, शक्ति तथा कीलक होता है जिनका उपयोग करके रिष्यादिन्यास, करन्यास तथा षडंगन्यास की क्रियाऐं सम्पादित की जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ
महाविद्याओं के उपासकों के लिए अनेकों विशिष्ट न्यास भी निर्धारित किए गए हैं। इन विशिष्ट
न्यासों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
(1)
श्रीकाली विद्या के न्यास-
इस
विद्या का उपासक मातृकान्यास, वर्णन्यास, षोढान्यास,
ब्यापकन्यास तथा तत्वन्यास करता है।
(2)
श्री ताराविद्या के न्यास-
इस
विद्या का उपासक शिव-शक्ति न्यास, रूद्रन्यास, ग्रहन्यास, दिग्पालन्यास तथा पीठ-न्यास करता है।
(3)
श्री त्रिपुरभैरवी के न्यास-
इस
विद्या की उपासना में रत्यादि-न्यास,
नवयोनि-न्यास, भूषण-न्यास, सुभगादि-न्यास
तथा बाण-न्यास किए जाते हैं।
(4)
श्री मांतगी के न्यास-
भगवती
मांतगी का उपासक शक्ति-न्यास, मातृका-न्यास,
अप्सरा-न्यास, मंत्र-वर्ण न्यास तथा अष्टकन्या-न्यास करता है।
(5) श्री महात्रिपुरसुन्दरी के न्यास-
आगम
बचन है-
‘‘न्यासप्रिया
तु श्रीविद्या’’
श्रीविद्या
की उपासना में न्यासों का महत्वपूर्ण स्थान है तथा अन्य महाविद्याओं के न्यासों की
तुलना में सर्वाधिक न्यास इसी विद्या के उपासक द्वारा किए जाते हैं। इस विद्या के
प्रमुख न्यास हैं-
मातृका-न्यास
(अन्तरमातृका तथा बहिरमातृका), वशिन्यादि-न्यास, पंचदशी-न्यास,
नवयोन्यात्मक-न्यास, तत्व-न्यास, मूलमंत्र-न्यास, योगिनी-न्यास, त्रिपुरा-न्यास, नित्या-न्यास, चक्र-न्यास, काम-रति न्यास तथा
आयुध-न्यास।
श्री
विद्या का पूर्णाभिषिक्त साधक अपनी देह
को बज्रवत् बनाने (दिव्यतेज सहन करने योग्य) तथा स्वयं देवतुल्य बनने के लिए जिन
अन्य विशिष्ट न्यासों का अभ्यास करता है उनके नाम हैं -
लघुषोढा-न्यास,
महाषोढा-न्यास तथा महाशक्ति-न्यास।
(अ)
लघुषोढ़ा न्यास-
इस
न्यास के अन्तर्ग छः न्यास सम्मिलित हैं। यथा गणेश-न्यास, ग्रह-न्यास,
नक्षत्र-न्यास, योगिनी-न्यास, राशि-न्यास तथा पीठ-न्यास शरीर के 51 अंगों को
स्पर्श करके तथा अन्य-न्यास शरीर के उन अंगों को स्पर्श करते हुए विभिन्न मुद्राओं के साथ किए जाते हें जहां पर ग्रहों,
नक्षत्रों आदि की स्थिति मानी गई है।
(आ)
महाषोढ़ा-न्यास-
महाषोढ़ा-न्यास की महिमा का वर्णन करते हुए शास्त्र
कहते हैं-
‘‘यः
करोति महान्यांस-षोढा-न्यासादिकं विभो!
स
जीवन शक्तिरूपों वै-त्रैलोक्योन्मूलनं क्षमः’’
(जो
साधक इस न्यास को करता है उसे तीनों लोकों का उन्मूलन करने की शक्ति प्राप्त हो
जाती है)
‘‘महाषोढा
ह्वयं न्यासं-यः करोति
दिने दिने
देवाः
सर्वे नमस्यन्ति..........’’
(जो
साधक प्रतिदिन षोढान्यास करता है उसे देवता भी नमन करते हैं।)
महाषोढान्यास
के अन्तर्गत छः न्यास किए जाते हैं। यथा प्रपंच-न्यास, भुवन-न्यास, मूर्ति-न्यास,
मंत्र-न्यास, देवता-न्यास तथा मातृ-न्यास। प्रपंच-न्यास में पृथ्वी के समस्त
द्वीप, महासागर, पर्वत, शक्तिपीठ, वन, गुहाऐं, नदियां, विभिन्न योनियों के
प्राणियों, काल परिमाणों, पंचभूत, पंच तन्मात्रा तथा त्रिगुणों की अधिष्ठात्री
देवियों को स्व-शरीर में प्रतिष्ठापित
किया जाता हैं। इसी प्रकार भुवन न्यास में चौदह-भुवनों,
मूर्ति-न्यास में त्रिदेवों, मंत्र-न्यास में प्रणवाद्य एकाक्षरात्मक से
त्रिपुरादि षोडशाक्षरात्मक मंत्रों का, दैवत-न्यास में रिषिकुल से लेकर चराचर-कुल
सेबित शक्तियों का, तथा मातृका-न्यास में भूचरकुल से लेकर जलचर-कुल तक की
अधिष्ठात्री देवियों तथा अष्टभैरवों का स्वशरीर में प्रतिष्ठापन करके देवत्व
प्राप्ति एवं पिन्ड-ब्रह्मान्ड की ऐक्यता की स्थिति प्राप्त की जाती है।
(इ)
महाशक्ति-न्यास-
महाशक्ति-न्यास
की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान शिव मॉं
पार्वती को बताते हैं-
‘अथातः
संप्रवक्ष्यामि-शक्ति-न्यासं सुरेश्वरि
येन
देहेन युक्तेन-शक्ति तुल्यो भवेन्नरः।
येनांग
न्यास मात्रेण-देवी दहति तेन च
कोपं यत्कुरूते योगी- त्रैलोकस्यापि पातनम्।
शक्ति-न्यास
युतो योगी-नमस्कारेण शंकरः
स्फोटनं
कुरूते साक्षात्-पाषाण प्रतिमादिषु।’
(हे
पार्वती! शक्ति-न्यास करने वाले साधक की देह परमशक्तिशाली हो जाती है। यह साधक यदि
क्रोधित हो जाये तो तीनों लोकों का पातन कर सकता है। शक्ति-न्यास सम्पन्न महायोगी
को भगवान शंकर भी नमस्कार करते हैं। ऐसा साधक पाषाण-प्रतिमाओं का भी विखन्डन कर
सकता है।)
भगवान
शिव पुनः कहते है-
‘न
क्षान्ति परमंज्ञानं-न शान्ति परमं सुखं
नच
शक्ति समों न्यासों-न विद्या त्रैपुरी समा’
(हे
पार्वती! क्षान्ति के समान महाज्ञान नहीं। शान्ति के समान परमसुख नहीं।
शक्ति-न्यास के समान कोई न्यास नहीं तथा त्रिपुरसुन्दरी के समान कोई महाविद्या
नहीं है)
पुनश्च-
‘शक्ति
न्यासे कृते जीवेत्-यः कश्चिच्छेदको भवेत्
कर्मणा
मनसा वाचा-तस्य घातो भविष्यति।’
(पे
पार्वती! यदि कोई शत्रु शक्ति-न्यास करने वाले साधक को क्षति पहुचांने का प्रयास करता है तो उसका विनाश हो जाता
है)
महाशक्ति-न्यास
का अभ्यास करते समय साधक ऐं कार का चिन्तन करते हुए महाकामकला को ब्रह्मरंध्र में
लय करके अ से क्ष तक के मातृकावर्णों से अपने शरीर के 51 अंगों में न्यास करता है।
विभिन्न मंत्रों का स्मरण-पाठ करके तथा महामंत्र एवं महादेवी की महिमा का गुणगान
करते हुए वह अपने शरीर को बज्रमय बनाने एवं
अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु
महाशक्ति से प्रार्थना करता है। पुनः त्रिपुरा की त्रयोदश विद्याओं का पूजन करने
के पश्चात् साधक पंचोपचारों से स्वशरीर की पूजा करके कंठ में रक्तपुष्पों की मालाधारण करके उत्तराभिमुख होकर तथा महायोगी का रूप धारण कर
भगवान शंकर तुल्य हो जाता है यथा-
‘देहं
स्वपूजये देवि-रक्तचन्दन कुंकुमे
पूजयेन्मस्तके
देवी-कृत्वा विग्रहधूपकम्
उत्तराभिमुखो
भूत्वा-स्वस्थ चित्तासने स्थिंतः
महाकामकलाध्याये-दिव्याम्वर
विभूषितः’
ऐसी
दिव्य त्रिपुरामय देह में वह वनिताक्षोभकरी महाकामकला का ध्यान करके
न्यासानुसन्धान पूर्व ‘शक्तिरूद्रमयं देंह’ से प्रारम्भ कर ‘गेहे कुर्वन्तु में
वपुः’ तक के 102 श्लोकों को पढ़ता हुआ विभिन्न शक्तियों तथा योगिनियों से अपने शरीर के विभिन्न अंगों तथा मस्तक
में स्थित हो जाने तथा अभीष्ट वरदान देने के लिए प्रार्थना करता है ताकि उसकी देह
शक्ति-रूद्रमय बन जाये यथा।-
‘शक्ति-रूद्रमयं
देंह- मदीयं त्रिपुरेकुरू
देहि
मे देव देवेशि!
बरंनित्य अभीप्सितम्’।।