Monday, 11 July 2016

12. ।।पूजोपासना की विधियां।।

।।पूजोपासना की विधियां।।

शास्त्रों के कथनानुसार शक्ति उपासना की सफलता के लिए सत्गुरू से दीक्षा प्राप्त करना परमावश्यक होता है। श्री गुरू द्वारा ही शिष्य को न केवल जीव-जगत, आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान दिया जाता है वरन् यह भी बोध करा दिया जाता है कि वह (जीवात्मा) स्वयं में सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापी परमात्मा ही है तथा उसमें परमात्मा के सभी लक्षण विद्यमान है। पंचकंचुकों तथा अष्टपाशों से आवद्ध होने के कारण वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर सांसारिक सुख-दुखों तथा जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। अपने खोये हुए परमेश्वरत्व की प्राप्ति हेतु शिष्य पूजोपासना की विभिन्न विधियों का अनुसरण करके साधना मार्ग में अग्रसर होता है।

शास्त्रों में पूजोपासना की विभिन्न विधियों को विभिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है। यथा अपरापूजा, परापूजा, बहिर्याग, अन्तर्याग, साधारपूजा, निराधार पूजा, पाशवकल्प की उपासना, वीरभाव तथा दिव्यभाव की उपासना। बहिर्याग को अपरापूजा कहते हैं जो उपासना की प्रारंभिक अवस्था है। अन्तर्याग को आभ्यन्तर पूजा या मानसिक पूजा भी कहते हैं। यह पूजा दो प्रकार की होती है-
पूजायाभ्यन्तरा सापि-द्विविधा परिकीर्तिता
साधारा च निराधारा-निराधारा महत्तरः
(सूतसंहिता)

(आभ्यन्तर पूजा दो प्रकार की होती है। आधार तथा निराधार इनमें से निराधारपूजा उच्चकोटि की है।)
साधार पूजा में साधक इष्टदेवता की मूर्ति अथवा यंत्र में पूजन-अर्चन करता है जबकि  निराधार पूजा में अपने हृदय में ही इष्ट अथवा उसके मंत्र का ध्यान करके मानसिक पूजन-अर्चन करता है।

।आगमशास्त्र में पूजोपासना का रहस्य।
बाह्यपूजा, स्तोत्रपाठ, जप, ध्यान, धारणा, ब्रह्मसद्भाव, ब्रह्मात्मैक्य तथा सहजावस्था के महत्व तथा इनकी पारस्परिक श्रेष्ठता के सम्बन्ध में आगमशास्त्र का उद्घोष है-
(1) ‘‘पूजाकोटि समं स्तोत्रं-स्तोत्रकोटि समो जपः
जपकोटि समो ध्यानं-ध्यानकोटि समो लयः’’
(2) ‘‘उत्तमो ब्रह्मसद्भावो-ध्यानभावस्तु मध्यम
जप-पूजा अधमांप्रोक्ता-बाह्यपूजाधमाधमा’’

(3) ‘‘उत्तमा सहजावस्था-मध्यमाध्यानधारणा
जप-स्तुति स्याअमा-वाह्यपूजा धमाधमा’’

इन श्लोकों का तात्पर्य यह है कि बाह्यपूजा से श्रेष्ट स्तोत्रपाठ है। स्तोत्रपाठ से श्रेष्ट जप है। जप से श्रेष्ट ध्यान-धारणा है। ध्यान-धारणा से श्रेष्ठ लय ब्रह्मसद्भाव तथा सहजावस्था है। सहजावस्था (ब्रह्मात्मैक्य) की उपलब्धि ही साधक का चरमलक्ष्य होता है।
साधक के आध्यात्मिक स्तर के अनुरूप पूजोपासना को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है यथा अधम उपासना, मध्यम उपासना तथा उत्तम उपासना। प्रत्येक श्रेणी की पूजोपासना का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है।

(1) अधम उपासना
यह उपासना की प्रारांभिक अवस्था है परन्तु इसे सफलतापूर्वक सम्पन्न करके ही साधक मध्यम उपासना में प्रवेश पाने का अधिकारी बन सकता है। इस विधि से उपासना करने वाला साधक द्वैभाव (स्वयं को इष्टदेवी से अलग समझकर) तथा देहाभिमान के साथ उपासना करता है। इसे भक्ति-योग या पाशवकल्य की उपासना भी कहा जाता है। साधक इष्ट देवी को अपनी माता अथवा स्वामिनी एवं स्वयं को पुत्र अथवा दास मानकर पूजन करता है। साधक अपनी इष्ट देवी की मूर्ति को पूजास्थल में प्रतिष्ठित करके विभिन्न उपचारों से पूजन-अर्चन करता है। नवधाभक्ति के अनुसार स्तोत्रादि का पाठ करता हुआ वह उसकी महिमा का गुणगान करता रहता है। अपनी इच्छा को उसकी इच्छा में मिलाकर ‘तेरा तुझको अर्पण’ की भावना के साथ उसकी कृपा पर निर्भर रहता है। निरन्तर अभ्यास करने से इष्ट के प्रति उसकी श्रद्धा तथा विश्वास में वृद्धि होती है। इन सब लक्षणों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह पड़ता है कि साधक को स्वप्न अथवा अर्द्धजागृत अवस्था में आभास होने लगता है कि इष्ट-देवी ने उसे दर्शन दिए हैं। वास्तव में यह अनुभूति उसे अपने आत्म-बल से होती है जिसका उसे पता ही नहीं रहता है। वह अपनी साधना को सफल मानकर अपने को धन्य समझता है।
इस प्रकार पूर्ण मनोयोग तथा मन, वचन, कर्म से की गई अधम उपासना के वरदान स्वरूप साधक में अनन्य इष्ट प्रेम, दृढ़ विश्वास तथा आत्मबल की वृद्धि हो जाती है जिनका सहारा लेकर वह साधना के परमोच्च् सोपान (ब्रह्मात्मैक्य) तक पहुंच जाता है।

(2) मध्यम उपासना
भक्तियोग की साकार उपासना (अधम उपासना) को सफलतापूर्वक सम्पन्न करके द्वैतभावना एवं देहाभिमान का त्याग कर चुका साधक अब ब्रह्मात्मैक्य प्राप्त करने की सर्वोच्च अभिलाषा की पूर्ति हेतु मध्यम एवं उच्चतम उपासना के प्रकाशमय क्षेत्र में प्रवेश करता है। दीर्घकाल तक की गई अधम-उपासना का वह उसी प्रकार त्याग कर देता है जिस प्रकार फल लग जाने पर बृक्ष पुष्पों का त्याग स्वतः ही कर देता है।
‘फलं प्राप्त यथा बृक्ष-पुष्पं त्यजति निस्प्रहः।’

मध्यम उपासना का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1- मध्यम उपासना हेतु मूर्ति, चित्र, कर्मकान्ड एवं बाह्यउपचारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। अधम उपासना के समय पूजा की जिन सामग्रियों तथा उपचारों (पंचोपचार, षोडशोपचार) का प्रयोग साधक करता था उनके स्थान पर उनके तत्वात्मक स्वरूपों को भावना के द्वारा इष्ट को समिर्पित करता है। यथा ‘पृथ्वीतत्वात्मकं गन्धं’ ‘बह्नि तत्वात्मकं दीपं’ आदि। साधक को यह भी आभास होने लगता है कि जो त्रिभुवन-मोहिनी है उनका श्रंगार करने तथा जिनके प्रकाश से अनेकों ब्रह्मान्ड प्रकाशित होते हैं उनको दीपक का प्रकाश दिखाने का कोई औचित्य नही है। 

2- साधक बहिर्मुखी वृत्तियों का त्याग करके अपनी दृष्टि, इन्द्रियों तथा विचारों को अन्तर्मुखी बनाकर इष्ट के मंत्र-मय तथा यंत्र-मय रूप पर ध्यान केन्द्रित करता है। अपने मेरूदन्ड में स्थित षट्चक्रों तथा मूलाधार से सहस्रार पर्यन्त प्रकाशमय सूक्ष्मदन्ड के रूप में विद्यमान उस कुन्डलिनी शक्ति का ध्यान करता है जो कमलनाल के समान अत्यन्त सूक्ष्म, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान शीतल है।
3- मध्यम उपासना के अन्तर्गत वीरभावी साधक द्वारा पिन्ड-ब्रह्मान्ड के प्रतीक श्रीयंत्र का पूजन-अर्चन किया जाता है। वह स्वयं में विद्यमान उस द्वैतभावना को नष्ट करने हेतु प्रार्थना करता है जिसके कारण वह स्वयं को परमात्मा से अलग समझता है। वह अपने निदिध्यासन से जीव, जगत तथा ब्रह्म की अखन्ड एकता के सम्पादन का प्रयास करता है।

4- शक्ति का बीरभावी उपासक एक गोपनीय तथा विशिष्ट विधि से श्रीयंत्र की पूजा करता है। इस क्रिया को ‘कुलपूजा’ अथवा ‘कुलार्चन’ कहते हैं। साधक श्रीयंत्र में अपने आत्मचैतन्य की प्रतिष्ठा करके उसका पूजन-अर्चन करके पुनः उसे अपने हृदय में स्थापित कर लेता है। इस विधि में वह आनन्दभैरव तथा आनन्दभैरवी का विधिवत अर्चन करके ब्रह्म के आनन्दमय स्वरूप का साक्षात्कार तथा आत्मा में ही परमात्मा की विद्यमानता का अनुभव कर लेता है।

5- मध्यम उपासना के अन्तर्गत वीरभावी शक्ति उपासकों द्वारा सामूहिक रूप से भी पूजन-अर्चन करने का विधान है। इस क्रिया में पुरूष साधक (वीर) तथा स्त्री-साधिका (योगिनी) भाग लेते हैं। प्रारम्भ में एक वीर तथा एक योगिनी को ‘चक्रार्चन’ का अभ्यास करके कालान्तर में वीर-चक्र तथा दिव्य-चक्र में सम्मिलित होने का अवसर मिलता है जहां अनेकों वीर तथा योगिनियां सामूहिक रूप से चक्रार्चन करते हैं। यद्यपि इन साधकों की निश्चित संख्या का उल्लेख नहीं मिलता परन्तु यह अवश्य सुनिश्चित कर लिया जाता है कि सभी साधकों का आध्यात्मिक स्तर तथा चित्त-वृत्ति एक समान होनी चाहिए। चक्रार्चन की इस क्रिया को ‘राजाधिराज योग’ भी कहा जाता है। चक्रार्चन का मुख्य उद्देश्य आत्म-तत्व, विद्या-तत्व, शिव-तत्व, सर्वतत्वादि एवं स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण देह की शुद्धि करते हुए ‘तत्वमसि’ (तुम वही हो) की भावना को सुदृढ़ करके परमानन्द की प्राप्ति करना होता है।

6- मॉं काली तथा मॉं तारा का उपासक वीराचार (वामाचार) का सहारा लेकर चिता, मुन्ड तथा शवसाधना करता है। इस विषय पर ‘भाव, आचार तथा पंचमकार‘ शीर्षक के अन्तर्गत प्रथक से लिखा गया है।
उत्तम उपासना
उत्तम उपासना के स्तर तक विरले सौभाग्यशाली साधक ही पहुंच पाते हैं। यह पूर्णतया निदिध्यासन की अवस्था है। ऐसे ही आत्मान्वेशी साधक के लिए उपनिषद कहता है-
‘आत्मा वा अरे दृष्टव्य, मन्तव्य, श्रोतव्य निदिध्यासितव्यः’। ऐसे साधक (महायोगी) की साधना प्रणाली, अध्यात्मिक भावनाऐं तथा प्रमुख विशेषताऐं इस प्रकार है-
1- उत्तम साधना करने वाला साधक अपनी आत्मा में परमात्मा, अपनी देह में देवालय, स्वयं को समस्त जगत में ब्याप्त तथा समस्त जगत को अपने में व्याप्त देखता है। उच्चतर भावनाओं से ओत-प्रोत होकर वह सुख-दुख, भय-विय, मान-अपमान, घृणा-लज्जा तथा आशा-तृष्णा रूपी अष्टपाशों से विमुक्त होकर अद्वैतावस्था में विचरण करता है जिसके लिए शास्त्र कहता है-
‘जीवन्मुक्तः स एवात्मा-भोगार्थ रमते महीम्’
(उसकी आत्मा जीवन्मुक्त रहती है। वह केवल भोग के लिए संसार में रमण करता है)
‘अंह ब्रह्मा, अहं बिष्णु, अहं देवो महेश्वरः
सर्वभूत निवासोहं-लोके श्रीशक्ति चिन्तकः’
(मैं ही त्रिदेव हूं तथा समस्त प्राणियों का निवास स्थान हूं)
‘देहो देवालय प्रोक्त-जीवो देव सदाशिव
तजेत् अज्ञान निर्माल्यं-सोभावेन पूजयेत्’
(ऐसे साधक का शरीर मन्दिर है। उसकी जीवात्मा ही श्रीशिव है। वह अज्ञान का त्याग करके ‘मैं वही हूं’ की भावना से पूजन करता है)
‘जीवःशिवः शिवो जीवः-सजीवःकेवल शिवः
तुषेण बद्धो ब्रीहिस्यात्-तुषा भावेतु तंडुलः’
(ऐसा साधक विश्वास करता है कि जीव ही शिव है तथा शिव ही जीव है। जिस प्रकार छिलका निकलने पर धान ही चावल बन जाता है उसी प्रकार पाशमुक्त होकर जीवात्मा भी परमात्मा बन जाता है)
2- ऐसा साधक मन, बचन, कर्म तथा शरीर से अहर्निश जो भी क्रिया-कलाप करता है उन सबको परमात्मा को समर्पित ही नहीं करता वरन् समस्त गतिविधियों को इष्ट की सपर्या (पूजा) ही समझता है। उसकी इस भावना का उल्लेख शास्त्र इस प्रकार करते हैं-
‘आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचरा प्राणा शरीरं गृंह
पूजा ते ........... समाधिस्थिति
संचारः पदयो ........... सर्वागिरौ
यद्यत् कर्म .............. तवाराधनम्’
(ऐसे साधक की आत्मा शिव तथा बुद्धि पार्वती है। समस्त सांसारिक विषयोपभोग पूजा है। निद्रा ही समाधि है। उसका चलना-फिरना ब्रह्म की प्रदक्षिणा है। उसका बोलना ही प्रार्थना के स्तोत्र है। वह जो भी कर्म करता है सब शिव (ब्रह्म) की राधना ही है)
यही भावनाऐं इस श्लोक में भी निहित हैं-
‘‘जपो जल्प: शिल्पं सकल मपि मुद्रा विरचना
गति प्रादक्षिण्यां ....... आहुति विधिः
प्रणांम संवेश ....... दृशा
सपर्या पर्याय ....... विलसितं’’
3- उत्तम साधक ‘भावनोपनिषद्’ के वाक्यों का पालन करता हुआ अपने मन के समस्त उद्वेगों, मन तथा इन्द्रियों के ब्यापारों तथा पाप-पुण्य को श्रीयंत्र में स्थित देवियों को पूजा के उपचारों के रूप में समर्पित करके निर्लिप्त अवस्था में विचरण करता है। ऐसी पूजोपासना के सम्बन्ध में भावनोपनिषद् के कतिपय वाक्य स्मरणीय है-
परापश्यन्ती आदि शब्दानां-स्तवीमि’
(परा, पश्यन्ती आदि शब्दों से स्तुति करता है)
‘विषयेषु धावमानानां चित्तवृत्तीनां-प्रदक्षिणा’
(विषय-भोगों की तरफ दौड़ने वाली चित्तवृत्तियों का समर्पण ही प्रदक्षिणा है)
‘अहं, त्वं, अस्ति, नास्ति, कर्तव्य, अकर्तव्य-होमः’
(मैं, तुम, है, नहीं है, कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य क्या है इन सब विचारों का समर्पण ही होम है)
4-उत्तम उपासक समस्त बाह्य उपासनाओं का त्याग करके वेदों के चार महावाक्यों का ही मनन-चिन्तन करता हुआ ब्रह्मानन्द में निमग्न रहता है- यथा ‘प्रज्ञांन ब्रह्म’-(ज्ञान ही ब्रह्म है) अहं ब्रह्मास्मि’-(मैं ही ब्रह्म हूं) ‘तत् त्वं असि’-(तुम वही हो) तथा ‘अयमात्मा ब्रह्म-(मेरी आत्मा ही ब्रह्म है)
इस प्रकार उत्तम उपासना करके साधक ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म ही बन जाता है तथा जिसे जानकर वह सर्वज्ञानी बनकर मुक्त हो जाता है-
‘ब्रह्मविद्  ब्रह्मैवभवति’ तथा ‘यस्मिन्ज्ञाते सर्वं विज्ञात् मुच्यते वेदैः’
                                                   (वरिवस्या रहस्य)

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