Monday, 11 July 2016

11. ।।भाव, आचार तथा पंचमकार।।

।।भाव, आचार तथा पंचमकार।।

भाव तथा आचार के सम्बन्ध में शास्त्र बचन है-
‘‘भावो हि मानसों धर्मो-क्रमः आचार उच्यते ’’

(साधक के मन में जो विचार उत्पन्न होता है उसे ‘भाव’ एवं उसी भाव विचार के अनुरूप वह जो क्रिया-कर्म करता है उसे ‘आचार’ कहते हैं)

तंत्र-शास्त्र में शक्ति-उपासना हेतु तीन भाव तथा सात आचार निर्धारित किए गए हैं। तीन भाव हैं- शुभाव, बीरभाव तथा दिव्यभाव एवं सात आचार हैं-वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार सिद्धान्ताचार, वामाचार तथा कौलाचा उपासक को इन्हीं भावों तथा आचारों के अनुरूप उपासना करके ब्रह्मप्राप्ति करनी पड़ती है।

शक्ति उपासक द्वारा पशुभाव, बीरभाव तथा दिव्य भावपूर्वक की जाने वाली उपासनाऐं क्रमशः अधम उपासना, मध्यम उपासना तथा उत्तम उपासना की श्रेणी में आती है जिनके सम्बन्ध मेंपूजोपासना की विधियांशीर्षक के अन्तर्गत लिखा जा चुका है।

शाक्तागम ग्रन्थों यथा विश्वसारतंत्र, महाचीनाचार तंत्र, कुलार्णव तंत्र, महानिर्वाण तंत्र समयाचार तंत्र तथा सर्वोल्लास तंत्र में विभिन्न भावों तथा आचारों के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखा गया है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार -
‘‘सर्वेम्यश्चोत्तमा वेदा-वेदेम्यो बैष्ण्ंवं परम
वैष्णवादुत्तमं शैवं-शैवादक्षिण मुत्तमंम्
दक्षिणात् उत्तमं वामं-वामात् सिद्धान्त उत्तमम्
सिद्धान्तात् उत्तमं कौलं-कौलात् परतरं नहिं।।’’
(वेदाचार से श्रेष्ट वैष्णवाचार है। वैष्णवाचार से श्रेष्ट शैवाचार है। शैवाचार से उत्तम दक्षिणाचार है। दक्षिणाचार से श्रेष्ट वामाचार है। वामाचार से उत्तम सिद्धान्ताचार तथा सिद्धान्ताचार से श्रेष्ट कौलाचार है।)
इन आचारों को तीन भावों के अन्तर्गत माना गया है। विश्वचार तंत्र के अनुसार-
‘‘चत्वारो देवि वेदाद्याः-पशुभावे प्रतिष्ठिता
वामाद्यास्रय आचारा-दिव्ये वीरे प्रकीर्तिता’’
(प्रथम चार आचार पशुभाव, वाम तथा सिद्धान्ताचार वीरभाव एवं कौलाचार को दिव्यभाव के अन्तर्गत माना गया है)
उपरोक्त सातों आचारो का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
(1) वेदाचार-
वेदाचारी उपासक वेदाध्ययन करके वेदमाता गायत्री की उपासना करता है। अष्टांगयोग तथा ‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह’ का पालन करके एक ग्रहस्थ सन्त की भांति आचरण करता हुआ श्रद्धा-विश्वासर्पूवक सदैव ब्रह्मप्राप्ति हेतु मन, वचन, कर्म से प्रयास करता है। वेदाचार का पालन करके साधक की बाह्यशुद्धि हो जाती है।

(2) बैष्णवाचार-
ईश्वरीय शक्तियों में पूर्ण विश्वास रखने वाला भक्तियोग का अनुयायी, परोपकारी, निराभिमानी तथा सात्विक वृत्ति वाला व्यक्ति जब नवधाभक्ति पूर्वक श्रीबिष्णु के विभिन्न नामों तथा उनके अवतारों (राम, कृष्ण) तथा राधा-कृष्ण का नाम जप एवं संकीर्तन करता है तो उसे बैष्णवाचारी कहते हैं। साधक हरिप्रिया तुलसी का पूजन करता है। तुलसीमाला से जप तथा उसे धारण भी करता है। बैष्णवाचार का पालन करने से साधक की चित्तशुद्धि हो जाती है तथा वह गुरूभक्त बन जाता है।

(3) शैवाचार-
शिव तथा शक्ति की ऐक्यता पर विश्वास रखने वाला, भक्ति करने की क्षमता रखने वाला, स्वधर्म पालन तथा स्वधर्म की रक्षा करने वाला विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत व्यक्ति जब शिव-शक्ति की पूजोपासना करता है तो उसे शैवाचारी कहते हैं। ऐसा साधक भस्म तथा रूद्राक्ष धारण करता है। वह सदैव विशुद्ध ज्ञानार्जन हेतु तत्पर रहता है।

(4) दक्षिणाचार-
दक्षिणाचार उपासना पद्धति में साधक न केवल पुरूष तत्व (शिव) वरन् प्रकृति तत्व (शक्ति) की महत्ता को भी स्वीकार करता है। शक्ति की इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक तीन स्वरूपों पर विश्वास रखते हुए द्वैतभावना तथा देहाभिमान पूर्वक शिव-शक्ति की पूजोपासना में तत्पर रहता है। प्रथम तीन आचारों का पालन करके उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसके निदिध्यासन का अभ्यास करता रहता है।
उपरोक्त चारों आचार पशु आचार तथा अधम उपासना के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन सभी आचारों में भक्तियोग योग का दास्यभाव, साधक का द्वैतभाव तथा देहाभिमान विद्यमान रहता है। ऐसा साधक उन पंच-कंचुकों तथा अष्टपाशों से आबद्ध रहता है जिनसे मुक्त हुए बिना ब्रहमप्राप्ति सम्भव नहीं है। ऐसे साधक में उस प्रबल इच्छा शक्ति तथा आत्मबल का अभाव रहता है जिसके बल पर एक बीर साधक अपने प्राणों को घोर संकट में डालकर भी परमलक्ष्य (ब्रह्मप्राप्ति) की प्राप्ति कर लेता है।

(5) सिद्धान्ताचार-
वामाचार की समस्त साधनाओं को पूर्णकरके तथा उस साधना से अर्जित ज्ञान का सहारा लेकर साधक सिद्धान्ताचार में प्रवेश करता है। ऐसा साधक अपने मन तथा इन्द्रियों को पूर्णतया वश में करके समस्त शंकाओं से रहित होकर उस स्थितप्रज्ञअवस्था में पहुंच जाता है जिसका विवरण भगवत् गीतामें दिया गया है। वह सदैव भैरव वेश धारण कर ब्रहमानन्द का अनुभव करता रहता है।
सम्प्रदाय भेद के कारण कहीं पर सिद्धान्ताचार को वामाचार साधना से पूर्व तथा कहीं पर वामाचार के पश्चात स्थान दिया गया है। वास्तव में वामाचार तथा सिद्धान्ताचार दोनों ही वीराचार के अन्तर्गत माने जाते हैं।

(6) वामाचार (वाममार्ग)-
विभिन्न आगम ग्रन्थों में वाममार्ग की श्रेष्टता, गोपनीयता तथा इस प्रकाशमान आध्यात्मिक महापथ पर चलकर परमेश्वरत्व प्राप्त करने वाले साधक के लक्षणों का जो वर्णन किया गया है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
भगवान श्री शिव द्वारा वाममार्ग को अत्यन्त दुर्गम तथा योगियों के लिए भी अगम्य माना गया है-
‘‘वामो मार्गः परम गहनो-योगिनामप्यगम्यः’’
पुरश्चर्यार्णव नामक तंत्र ग्रन्थ में वाममार्ग को सर्वोतम, सर्वसिद्धिप्रद तथा केवल जितेन्द्रिय व्यक्ति के लिए ही सुलभ माना गया है-
‘‘अयं सर्वोत्तमं धर्मः-शिवोक्त सर्वसिद्धिदः
जितेन्द्रियस्य सुलभो-नान्यथा नन्त जन्मभिः’’
अर्थात् इन्द्रिय-लोलुपव्यक्ति अनन्त जन्मों में भी इस साधना का अधिकारी नहीं बन सकता है।
भगवान श्री शिव मॉं पार्वती से कहते हैं कि कि हे देवि! इस उत्कृष्ट वाममार्ग की साधना को सदैव परम गोपनीय रखना चाहिए-
‘‘अतो वामपथं देवि! गोपये मातृजारवत्’’
प्रसिद्ध आगमग्रन्थ मेरूतंत्रका कथन है कि केवल वही साधक वाममार्ग की साधना का अधिकारी हो सकता है जो दूसरों के धन को दखकर अन्धा, परस्त्री को देखकर नपुंसक तथा दूसरों की निंदा करते समय गूंगा बनने की क्षमता रखता हो-
‘‘परद्रव्येषु यो अन्धः-परस्त्रीषु नपुंसकः
परापवादे यो मूकः-सर्वथा विजितेन्द्रियः
तस्यैव ब्राह्मणस्यात्र-वामस्य अधिकारिता’’
वामाचार का उल्लेख करने से पूर्व उन पंचमकारों का ज्ञान होना आवश्यक है जिनका प्रयोग वामाचारी साधक द्वारा किया जाता है। पंचमकार (पंच+मकार)= 5 मकार। अर्थात् ‘म’ से प्रारम्भ होने वाले 5-द्रव्य। इनके नामो का उल्लेख कुलार्णव तंत्र में इस प्रकार किया गया है-
‘‘मद्यं, मासं च मत्स्यं च-मुद्रा मैथुन एव च
मकार पंचकं प्रोक्तं-देवता प्रीतिकारकम्’’
(मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन नामक 5-मकार देवताओं के लिए प्रीतिकारक है)

यह सर्वविदित है कि पचंमकारों का उपयोग आदिकाल से ही होता रहा है। आदिमानव जंगलों में रहता था। वह जंगली जानवरों तथा मछली का मांस खाता था। पेड़ की छालों तथा विभिन्न जड़ी बूटियों से विशेष रसों (आसवों) को तैयार करके पीता था। वैदिक काल में यज्ञों की प्रधानता थी। अश्वमेधादि यज्ञों में पशुबलि तथा मद्य-मांस का प्रयोग होता था। समस्त कर्मकान्डों तथा यज्ञ-अनुष्ठानों के आयोजन में नारी (पत्नी) की सहभागिता तथा सहयोग अवश्यम्भावी था।

वेदों में श्रीभागवत् महापुराण में तथा मनुस्मृति में भी मद्य एवं मांस को देवी-देवताओं की पूजा, पितृकार्यो तथा विभिन्न अनुष्ठानों हेतु उपयोगी तथा यज्ञों की हवन सामग्री के रूप में भी मान्यता प्रदान की गई थी। रामायण तथा रामचरितमानस भी प्रमाणित करते हैं कि उस काल में मद्य-मांस का भरपूर प्रयोग होता था। देखिए-

(1) यजुर्वेद में बताया गया है कि जिस भूमि में यज्ञादि में मद्य का प्रयोग होता है उस भूमि में घी की नदी बहती है-
‘‘यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञों
घृतस्य धाराभिः तत्पवन्ते’’
(2) श्री भागवत् महापुराण में बताया गया है कि मांस भक्षण तथा स्त्री-संग करने में कोई दोष नहीं है-
‘‘लोके ब्यवायामिस-मद्यसेवा
नित्यास्ति जन्तो हि तत्र चोदना’’
(3) महाराज मनु ने भी मद्य, मांस तथा मैथुन को प्राकृतिक आहार-व्यवहार मानते हुए स्वीकार्य बताया है-
‘‘ मांस भक्षणे दोषो- मद्ये मैथुने’’
(4) श्री बाल्मीकि रामायण-
 रामायण काल में मद्य-मांस के प्रयोग सम्बन्धी दो विशेष प्रसंग उल्लेखनीय है। प्रथम प्रसंग उस समय का है जब मॉं  सीता पति श्री राम तथा देवर श्री लक्ष्मण के साथ गंगा पार करती हैं तथा मॉं गंगा से प्रार्थना करती है कि हे माता! जब मैं अपने पति तथा देवर के साथ वनवास की अवधि समाप्त करके सकुशल अयोध्या वापस लौटूगीं तो आपको हजारों घट सुरा तथा भरपूर मांस अर्पित करूंगी।
‘‘सुराघट सहस्रेण’’
द्वितीय प्रसंग उस समय का है जब श्री राम बन में पर्णकुटी बनाने से पूर्व वास्तु पूजा हेतु मांस की ब्यवस्था करने के लिए श्री लक्ष्मण को निर्देश देते हैं तब श्री लक्ष्मण काले मृग का वध करके मांस की व्यवस्था कर देते हैं-
‘‘ऐणेयं मांस माहृत्य-शालां वक्ष्याम्यहे वयम्
कर्तव्यं वास्तुशमनं-सौमित्रे चिरजीविभिः
(5) रामचरितमानस
इस ग्रन्थ का वह प्रसंग विशेष रूप से उल्लेखनीय है जब श्री भरत श्री राम से मिलने अयोध्या की विशालसेना, जनता तथा परिवार के साथ चित्रकू गए थे। उस विशाल भीड़ के खान-पान की ब्यवस्था हेतु मद्य तथा मांस का भरपूर प्रयोग किया गया था-
‘‘मीन पीन पाठीन पुराने-भरि भरि थार कहारन आने’’

।।शाक्तागम ग्रन्थों में पंचमकार।।

जिस प्रकार परमाणु शक्ति का उपयोग विकास तथा विनाश दोनों कार्यों के लिए हो सकता है उसी प्रकार पंचमकारों का प्रयोग भी वीर साधक के लिए उत्थान तथा पशुबुद्धि वाले ब्यक्ति के लिए घोरपतन का कारण बनता है। इस तथ्य की पुष्टि शास्त्र भी करता है-
‘‘येनै विखन्डेन-म्रियते सर्वजन्तवः
तेनैव विखन्डेन-भिषक् नाशयते रूजम्’’
(जिस विष को पीने से सभी जन्तु मर जाते हैं उसी विष से औषधि बनाकर वैद्य-चिकित्सक समस्त रोगों का उपचार करते हैं।)
इसी धारणा के अनुरूप तंत्र-शास्त्रों द्वारा भी शक्ति उपासना हेतु पंचमकारों के उपयोग की सहमति प्रदान की गई है। शाक्तागम ग्रन्थों विशेष रूप से कुलार्णव तंत्र में उपलब्ध पचंमकारों के सहस्यपूर्ण अर्थों, उपयोगिताओं, मान्यताओं, शुद्धिकरण की विधियों, प्रयोग की सीमाओं, प्रयोगकर्ता की योग्यताओं के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण इस प्रकार है-

(1) शक्ति उपासना हेतु प्रयोग किए जाने वाले पंचमकारों को शक्ति-साधक द्वारा उसी रूप में प्रयोग नहीं किया जाता है जिस रूप में वह प्राकृतिक रूप से सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध रहते हें। इन पांच मकारों में मद्य ऐसा द्रव्य है जिसमें तामसिक शक्तियों का वास होता है। यदि बिना शोधित किए हुए मद्य का प्रयोग किया जायेगा तो साधक की चित्त-वृत्ति अस्थिर हो जायेगी तथा उसका आध्यात्मिक पतन हो जायेगा। अतः उपयोग में लाने से पूर्व पंचमकारों का शास्त्रीय विधानों से शुद्धिकरण करना परमावश्यक होता है। इन द्रव्यों का शुद्धिकरण विभिन्न तांत्रिक तथा वैदिक मंत्रों से किया जाता है। शुद्धिकरण के पश्चात् सामान्य मद्य ही अमृत बन जाता है जो देवताओं को अत्यन्त प्रिय है। तंत्र शास्त्र बताते हैं-
‘‘अग्नि सूर्येन्दु ब्रह्मेन्द्रो-विष्णु रूद्र सदाशिवैः
चतुर्विशंति मंत्रै स्या-मद्यं चैव परामृतम्’’
(अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, ब्रहमा, इन्द्र, विष्णु, रूद्र तथा सदाशिव की 24 कलाओं तथा मंत्रों से मद्य को शुद्ध करके अमृत रूप प्रदान किया जाता है।)
द्वितीय पंचमकार मांस हेतु पशुबलि का विधान है। जिस पशु (विशेषकर छाग) की बलि दी जाती है उसके शिर पर विशेष मंत्रों से प्रोक्षण किया जाता है तथा उसके कान में मंत्र-उच्चरित किए जाते हैं। महाकाल संहिता का निर्देश है -
‘‘अग्नि वायु रवि चन्द्रो-यमोवरूण एव
रूद्र देव्योष्टमी मंत्रैः-प्रोक्षणं पशु मस्तकैः
प्रोक्षितं क्षयेन्मासं-ब्राह्मणानां काम्यया।’’
(आठ देवताओं यथा अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, मराज, वरूण, रूद्र तथा देवी के मंत्रों से पशुबलि के शिर पर प्रोक्षण करके बलिदान से प्राप्त शुद्ध एवं परिस्कृत मांस को देवता को अर्पित करके ब्राह्मण को प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए।)
इसी प्रकार अन्य तीन मकारों का भी विभिन्न तांत्रिक तथा वैदिक मंत्रों से शुद्धिकरण करके देवताओं के लिए परमप्रीतिकारक तथा ग्रहणीय बना लिया जाता है।

(2) तंत्र-शास्त्र पंचमकारों को ब्रह्मरूप आनन्द का अभिब्यंजक बताते हैं। यथा-
‘‘आनन्दं ब्रह्मणोरूपं-तच्च देहे ब्यवस्थितम्
तस्याभिब्यंजका-पंचमकारा परिकीर्तिता’’

(आनन्द ही ब्रह्म का स्वरूप है जो मानव की देह में विद्यमान रहता है परन्तु सामान्य व्यक्ति उसका अनुभव नहीं कर पाता। शोधित मद्य पान से उसका अनुभव किया जा सकता है।)

(3) कुलार्णवतंत्र में बताया गया है कि जो साधक असंस्कृत (बिना शोधन) सुरा का पान करता है उसकी कीर्ति, विद्या, सुख तथा धर्म का बिनाश हो जाता है तथा वह सदैव दुखी रहता है।
‘‘असंस्कृतं सुशपानं कलहं ब्याधि दुखदम्।
कीर्ति आयुश्च सौख्यं च-धर्मो विद्या च नश्यति।’’
यह भी बताया गया है कि जो वामाचारी वीर साधक निर्द्वन्दो, निर्भय, ममतारहित, शंकारहित तथा वेदागम के रहस्यपूर्ण अर्थो को समझ चुका हो वही वरदाइनी वारूणी-पान का अधिकारी है-
‘‘निर्द्वन्दो निर्भयो वीर-निर्ममो निष्कुतूहल।
निर्णीत वेद शास्त्रार्थी-वरदां वारूणी पिवेत्।’’
पुनश्चः निद्र्वन्दो
‘‘मद्यं मासं च मत्स्ंय च-मुद्रा मैथुन एव
च-इदमाचरणं देवि पशोर्नो दिव्यवीरयो।’’

(पंचमकारों के उपयोग का अधिकार केवल दिव्य तथा वीर साधक को दिया गया है न कि पशुआचारी अदीक्षित व्यक्ति को)
(4) तंत्र शास्त्र बताते हैं कि मंत्र की सिद्धि, देवी-देवताओं की तृप्ति, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति, संसार बन्धन से मुक्त होने के लिए तथा आनन्द रूप ब्रह्म की प्राप्ति के लिए साधक को केवल पूजोपासना के समय सुरापान करना चाहिए।
‘‘तृप्यर्थं सर्व देवानां-ब्रहमज्ञानं विधाय च
मंत्रार्थ स्मरंण चैव-मानसः स्थिर हेतवे।’’
(कुलार्णव)
(5) शास्त्रों में मद्यपान की अनुमति केवल दीक्षायुक्त, विद्धान, धैर्यवान, सुशील, निर्विकारी तथा मनोजयी वीर साधक को ही दी गई है। जो व्यक्ति असंस्कृत सुरा पान करके अपनी बुद्धि-विवेक गंवाकर अभद्र, अमर्यादित तथा असामाजिक आचरण करता है उसे घोर पशु माना गया है।
‘‘पशुपान विधौपीत्वा-वीरोपि नरकं ब्रजेत्।’’
(6) वामाचार के अन्तर्गत वीर साधक अपने मन-चित्त को स्थिर करने के लिए मद्यपान करता है। वह कुलाचार के अनुसार पूजन-अर्चन करके देवी को समर्पित करके प्रसाद रूप में ग्रहण करता है। महानिर्वाण तंत्र कहता है-
‘‘सम्यग् विधि विधानेन-सुसमाहित चेतसा
पिवन्ति मदिरां मत्र्या-अमत्र्या एव ते क्षितौ’’

(जो साधक विधि-विधान के साथ स्थिर चित्त होकर सुरापान करता है वह पृथ्वी पर देवतुल्य होता है)

(7) उस श्मशान भूमि में जहां दिन के प्रकाश में ही सामान्य व्यक्ति भयभीत हो जाता है वहां अमावास्या की घोर अंधेरी रात्रि में वीर साधक मॉं काली तथा मॉं तारा की साधना करता है। चिता, मुन्ड तथा शवसाधना करने से पूर्व पूर्णतया भयमुक्त होने, समस्त चेतना को चरमलक्ष्य की तरफ केन्द्रित करने तथा श्मशान में विद्यमान विघ्नकारक तामसी शक्तियों को संतुष्ट करने हेतु वह शोधित सुरा का पान करता है ताकि उसकी साधना निर्विघ्नतया सम्पन्न हो सके।
‘‘चितिं वापि शवं वापि-कामिनीं वा न साधयेत्
काली तारासु विघासु-नैवान्तर्यजनं चरेत्’’

(8) कुलार्णव तंत्र में बताया गया है कि जिस पूजोपासना में मद्य, मांस तथा शक्ति का साहचर्य नहीं होता है वह पूजा निष्फल हो जाती है-
बिना मद्येन या पूजा-बिना मांसेन तर्पणम्
विनाशक्त्या च यत्पानं-तत्सर्वं निष्फलं भवेत्’’
इसके अतिरिक्त तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए भी मद्यपान को आवश्यक बताया गया है-
‘मद्यपांन बिना देवि! तत्वज्ञानं न लभ्यते’’

(9) मद्यपान करते समय वामाचारी साधक को अनुभव करना चाहिए कि वह सुरा को हवनद्रव्य की तरह मूलाधार से जिह्वा के अन्त तक विद्यमान चैतन्यरूपा कुन्डलिनी के मुख में अर्पित कर रहा है-

मूलाधारादि जिह्वान्तां-चिद्रूपा कुलकुन्डलीम्
विभाव्य तन्मुखाम्भोजे-मूलमंत्रं समुच्चरन्
परस्पराज्ञामादाय-जुहुयात् कुन्डली मुखे’’
(10) शास्त्र यह भी बताते हैं कि बिना मांस ग्रहण किए मद्यपान करना हानिकारक होता है। इन दोनों द्रव्यों को एक दूसरे का पूरक बताते हुए मदिरा को शक्ति तथा मांस को शिवरूप मानकर इसके भोक्ता को भैरव की संज्ञा दी गई है।

सुराशक्तिः शिवो मांसः-तद्भोक्ता भैरव स्वयंम्’’
(11) अतिपान वर्जित है-
तंत्र-शास्त्रों में यह कठोर निर्देश दिया गया है कि केवल पूजोपासना के समय अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में मद्यपान विहित है। कुलार्णव तंत्र का कथन है-
यावन्न चलते वुद्धि-यावन्न चलते मनम्
तावत्पान प्रकुर्वीत-पशुपान मतः परम्’’
(जब तक दृष्टि, मन, वुद्धि एवं शरीर विचलित न हो तभी तक साधक को सुसंस्कृत सुरा का पान करना चाहिए। इससे अधिक मद्यपान पशुपान के अन्तर्गत आता है।)

पुनश्च, कुलार्णव तंत्र का बचन है-
शताभिषिक्त कौलश्चेत्-अति पानात् कुलेश्वरि!
पशुरेव स मन्तव्य-कुलधर्म बहिस्कृतः’’
(दिव्य एवं कौलमार्गी पूणीभिषिक्त साधक भी यदि अतिपान करता है तो वह पशुतुल्य है तथा वह कुलधर्म से बहिस्कृत हो जाता है।)

पूजोपासना में भी अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में ही मद्य-मांस के प्रयोग का निर्देश है-
‘‘पिशितं तिलु मात्रं तु-तिलार्धमपि विन्दुना’’
(तिल के बाराबर मांस तथा आधे तिल के बराबर मद्य से ही करोडों भैरवों की तृप्ति हो जाती है)
तंत्र शास्त्रों में जिस प्रकार मद्य के उपयोग की सीमाऐं निर्धारित की गई हैं उसी प्रकार मांस का भी केवल पूजोपासना में ही प्रयोग करने का निर्देश दिया गया है। सामान्य व्यक्ति की भांति अपनी जिह्वा तथा इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए जो बलिदान तथा मांसभक्षण करता है वह नरगामी होता है।
आत्मार्थं प्राणिना हिंसा-कदाचिन्नोदिता प्रिये
स्वनिमितं तृणंवापि-छेदयेन्न कदाचन’’

(अपने भोग के लिए कभी हिंसा नहीं करनी चाहिए। अपने लिए तो एक तिनके को भी नहीं तोड़ना चाहिए।)
मांस को तीन श्रेणियों में विभाजित करते हुए बताया गया है कि-
मांस तु त्रिविधं प्रोक्तं ख भूजलचर प्रिये।’’
(जलचर के अन्तर्गत मत्स्य, भूचर के अन्तर्गत छाग तथा खेचर के अन्तर्गत मुर्गे के मांस को ग्रहणीय बताया गया है।)
विभिन्न मांसों में छाग (बकरा) के मांस को सर्वोत्तम तथा भोग-मोक्ष दायक मानते हुए बिना छाग-मांस का प्रयोग किए गए यज्ञादि को निष्फल घोषित किया गया है-
‘सर्वेशां उत्तमं छागं-अधमं ......
.......................................
‘‘भुक्ति-मुक्ति प्रदोछाग-कोटियज्ञ स्वरूपदृ
बिना तस्या शुभक्रिया-निष्फला सकला मखा’’

(7) कौलाचार
तंत्र शास्त्र में पशुभाव, वीरभाव तथा दिव्यभाव के अतिरिक्त एक अन्य परमोच्चभाव की अवधारणा भी विद्यमान है जिसे ‘कौलभाव’ कहा गया है। ऐसे उपासक को ‘कौलयोगी’ तथा उसकी उपासना विधि को ‘कौलाचार’ कहते हैं। कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है। देखिए-
न गुरौसदृशं वस्तु-न देवः शंकरोपम
नतु कौला परमो योगे-न विद्या त्रैपुरीसमा’’
(श्री गुरू के समान कोई मनुष्य नहीं, भगवान शंकर के समान कोई देवता नही, कौलयोग के समान कोई योग नहीं तथा श्री त्रिपुरा के समान कोई महाविद्या नहीं है।)

भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं-
‘‘भोगो योगायते साक्षात्-पातंक सुकृतायते
मोक्षायते च संसार-कौलिकानां कुलेश्वरी’’
(हे कौलिकों की कुलेश्वरी! कौलसाधक द्वारा किया हुआ भोग भी योग में बदल जाता है। उसके द्वारा किया हुआ पाप सत्कर्म (पुण्य) में बदल जाता है। वह इसी संसार में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।)
पुनश्चः
‘‘कर्दमे चन्दने मित्रे-मित्रे शत्रौ तथा प्रिये
श्मशाने भवने देवि-तथैव कांचने तृणे
न भेदायस्य देवेशि! स कौलः परिकीर्तितः’’
(हे देवि! कौलसाधक परमेश्वर की सृष्टि में विद्यमान समस्त वस्तुओं को समान दृष्टि से देता है। उसके लिए घृणित तथा त्याज्य कुछ भी नहीं होता। कौलसाधक कीचड़ तथा चन्दन, मित्र तथा शत्रु, श्मशान तथा भवन एवं स्वर्ण तथा तृण को एक ही समान समझता है।)

पुनश्चः
‘‘कौलो मार्गः परमगहनो-योगिनामप्यगम्यः’’
(कौलमार्ग परमगहन तथा योगियों के लिए भी अगम्य है)
ऐसे महायोगी की प्रसंशा करते हुए भगवान शंकर मॉं पार्वती से कहते हैं-
‘‘तत्कुलं पावंन देवि! धन्या तज्जननी स्मृता
तत्पिता च कृतार्थस्यात्-मुक्ता स्ततपितरः प्रिये’’

(ऐसे कौलयोगी का कुल पवित्र हो जाता है । ऐसे पुत्र को पाकर उसकी मॉं धन्य हो जाती है। उसके पिता कृतार्थ हो जाते हैं एवं उसके पितर (वंश की मृतात्माऐं) मुक्त हो जाते हैं)

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