शाक्त-दर्शन एक वन्दनीय विश्व दर्शन है। यह अत्यन्त सजीव, व्यापक, प्रामाणिक एवं प्रयोगात्मक दर्शन है। इस दर्शन ने प्राचीन काल
से ही न केवल विश्व के विभिन्न आध्यात्मिक दर्शनों, उपासना पद्धतियों, मान्यताओं वरन्
विभिन्न दार्शनिकों के सिद्धान्तों को भी प्रभावित किया है। मान्यता है कि श्रीयत्रान्तर्गत
नव-चक्रों के ज्यामितीय आकारों से प्रेरित होकर मिस्र देश के चतुर शिल्पियों द्वारा
विभिन्न पिरामिडों के आकारों तथा कलाकृतियों की संरचना की गई थी। यह भी मान्यता है
कि शाक्त-दर्शन में निहित यंत्र-पूजा पद्धति से प्रेरणा लेकर यूनान के दार्शनिक अरस्तू
तथा पाइथागोरस ने भी दीर्घकाल तक ‘ईशी’ नामक देवी के यंत्र की पूजोपासना की थी। शाक्त-दर्शन
के महावाक्यों ‘अयमात्माब्रह्म’ अर्थात् ‘आत्मा ही ब्रह्म है’ तथा ‘जीवो-ब्रह्मैव नापरः’
अर्थात् ‘जीव तथा ब्रह्म एक ही है’ आदि से महान दार्शनिक सुकरात इतना प्रभावित था कि
वह अपने शिष्यों को ‘नो दाइसेल्फ’ अर्थात् ‘अपने को पहचानो’ का उपदेश दिया करता था।
यह सर्वविदित है कि बौद्धधर्म की उपास्या
श्री तारा ही दश-महाविद्याओं के अन्तर्गत ‘द्वितीया’ महाविद्या है। चीन, जापान, तिब्बत
तथा अन्य बौद्ध-धर्मावलम्बी देशों में शक्ति उपासना प्राचीन काल से ही प्रचलित रही
है। जैनधर्म की पूजापद्धति तो शाक्तधर्म की पूजा-पद्धति विशेषकर श्रीयंत्र के पूजन-अर्चन
की विधि से मिलती जुलती है। जैन-धर्मावलम्बी जिस श्रीयंत्र की पूजा करते हैं वह भी
शाक्तों द्वारा प्रयुक्त श्रीयंत्र से लगभग मिलता-जुलता है। श्रीयंत्र के अन्तर्गत
नवावरणों की पूजा में शाक्तों द्वारा जो मंत्र प्रयुक्त होते हैं उनमें तनिक परिवर्तन
करके तथा कुछ नए शब्द अपने धर्मानुसार जोड़ कर जैनधर्मावलम्बी श्रीयंत्र का पूजन-अर्चन
करते हैं।
विश्व का इतिहास साक्षी है कि जिन राजा-महाराजाओं
तथा राष्ट्राध्यक्षों ने नारी को केवल भोग-विलास की वस्तु मानकर उनका अपमान तथा तिरस्कार
किया एवं उनके साथ अनाचार एवं अत्याचार किए उनका समूल विनाश हो गया था। नारी जाति के
अपमान तथा तिरस्कार की घटनाएं ही महान् धर्म-युद्धों के लिए उत्तरदाई रही है। रामायण
काल में श्रीलक्ष्मण द्वारा सूर्पनखा का नासिका-छेदन तथा राक्षसराज रावण द्वारा देवी
सीता का अपहरण ही समस्त राक्षसकुल के विनाश का कारण बना था। इसी प्रकार महाभारत काल
में भरी सभा में मॉ द्रोपदी के चीरहरण की अपमानजनक घटना ही समस्त कौरव वंश के विनाश
का कारण बनी थी।
शाक्त-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में नारी
जाति के सम्मान की विवेचना करने से पूर्व यह जानना भी प्रासंगिक होगा कि हमारे अन्य
धर्मग्रन्थों (वैदिक दर्शन) में भी नारी जाति को पूर्ण सम्मान देने हेतु निर्देशित
किया गया है। कतिपय उदाहरण दृष्टव्य है-
1- स्त्री जाति की उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न
मान्यताओं का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के अन्य प्रमुख धर्मशास्त्रों
(बाइबिल तथा कुरान) की धारणाओं के विपरीत हमारे धर्म शास्त्रों द्वारा स्त्री जाति
को उनकी उत्पत्ति काल से ही पुरूष जाति से कम नहीं आंका गया है।
श्रीमद्भागवत्
के अनुसार-
‘‘कस्य काय कायमभूद्वेधा’’
ईश्वर ने, जिस प्रथम मनु की रचना की थी
उसके शरीर का दाहिना भाग स्वायंम्भुव मनुरूपी पुरूष था और वाम भाग शतरूपा नाम की स्त्री
थी। स्पष्ट है कि स्त्री तथा पुरूष मिलकर ही एक शरीर बनाते हैं। इसलिए स्त्री को अद्र्धागिनी
और भगवान शिव को ’अर्द्धनारीश्वर’ कहा जाता है।
2- सनातन धर्म के अनुसार वैवाहिक कर्म-काण्ड
के अन्तर्गत प्रयुक्त मंत्रों पर विचार किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि विवाह
के समय ही पति के द्वारा पत्नी को अपने घर में उच्चतम पद दे दिया जाता है। पति अपनी
पत्नी से कहता है ‘‘साम्राज्ञी भव’’ अर्थात अन्य नारियों की भॉति तुम केवल मेरी रानी
मात्र नहीं हो वरन् ‘साम्राज्ञी’ भी हो। तुम मेरे घर में वक्रवर्तिनी तथा प्रशासिका
बन कर रहो।
3- ग्रहस्थ जीवन में नारी को केवल पुरूष
की अद्र्धागिनी ही नहीं माना गया है वरन् घर -परिवार की सृजन-पालन करने वाली मानते
हुए ‘गृहिणी’ उपाधि से सम्मानित किया गया है-
‘‘गृहिणी गृहमुच्यते’’
4- शास्त्रों का निर्देश है कि जो पुरूष
बिना अपनी पत्नी का सहयोग प्राप्त किए कोई धार्मिक कार्य, तीर्थाटन, दान-पुण्य एवं
यज्ञादि अनुष्ठान करता है तो उसे उसका पुण्य प्राप्त नहीं होता है। इस सन्दर्भ में
कहा गया है-
‘‘यजमान सपत्नीकः’’
इसी
प्रकार का उल्लेख अन्यत्र भी मिलता है-
‘‘धर्म कर्म जो
कीजिए-सकल तरूणि के साथ
वा बिन जो कुछ
कीजिए-निष्फल सो सब नाथ।’’
(सभी
धर्म-कर्मों को सपत्नीक ही करना चाहिए। अन्यथा सब निष्फल हो जाता है।)
5-
मनुस्मृति का उद्घोष है-
‘‘यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते-रमन्ते तत्र देवता’
(यहॉ
नारी की पूजा होती है वहॉ देवताओं का वास होता है)
इसी
सन्दर्भ में यह उल्लेख भी मिलता है-
‘यत्र नार्यो
न पूज्यन्ते-श्मशानं तत्र वै गृहम्’’
(जिस
घर में नारी की पूजा नहीं होती वह घर श्मशानवत् है।)
6-
कुछ शास्त्र तो यहॉ तक निर्देश देते हैं-
‘‘जगदम्बामयं
पश्य-स्त्री मात्र मविशेषतः’’
(संसार
की प्रत्येक स्त्री जाति को श्री जगदम्बा का ही स्वरूप समझो)
7-
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मेरी योनि ही ब्रह्म है-
‘‘मम योनि महद्ब्रह्म-तस्मिन्गर्भ
दधाम्यह्म’’
8-
रिग्वेद में कहा गया है कि योनि को ही श्री बिष्णु समझो-
‘बिष्णुर्योनिः
कल्पयतु-त्वष्टा रूपाणि पिंशतु’’
9-यजुर्वेद
पुकार कर कहता है-
‘‘यस्य योनि परिपश्यन्तिधीरा
तस्मिन् हतस्यु
भुवनानि विश्वा’’
(जिस योनि को कामुक पुरूष अधीर होकर देखता
है उसी योनि को दिव्यभावानुरागी कौल साधक समस्त ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाले ब्रह्म
के स्वरूप में देखता है।)
10- दुर्गासप्तशती में उल्लेख मिलता है
कि सभी देवता श्री जगदम्बा से प्रार्थना करते हुए कहते है कि हे देवि। समस्त विद्याऐं
तथा विश्व की समस्त स्त्रियां आपका ही स्वरूप हैं-
‘‘विद्या समस्ता
तब देवि भेदाः-स्त्रियः समस्ता सकला जगत्सु’’
11- स्त्री-जाति को पूर्ण सम्मान देने
वाले सभी शास्त्रों का सारतत्व यही है-
‘स्त्रीणां निन्दा
प्रहारं च-कौटिल्यं चाप्रियं वच
आत्मनो हितमन्विच्छन्-देवी
भक्तो विवर्जयेत्’’
(आत्मलाभ के इच्छुक श्री जगदम्बा के उपासक
को कभी भी स्त्री-जाति की निन्दा नहीं करनी चाहिए। उनके प्रति अप्रिय शब्दों का प्रयोग
नहीं करना चाहिए तथा कुटिलता का भाव नहीं रखना चाहिए।)
शाक्तागम ग्रन्थों का अभिमत है कि मॉ भगवती
के स्थूल एवं साकार रूप की आंशिक तुलना अथवा ऐक्य यदि इस सृष्टि के किसी प्राणी से
हो सकता है तो वह एक मात्र नारी ही है। इसीलिए विभिन्न शाक्तागम ग्रन्थों में नारी-पूजा
का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। ‘शक्ति संगम’ नामक आगम ग्रन्थ में इस विषय
का अत्यन्त विस्तृत तथा सूक्ष्म विवेचन करते हुए स्पष्ट कर दिया गया है कि बिना नारी-पूजा
किए कोई भी शाक्त साधक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता है। इसीलिए शाक्तसाधक के नित्यार्चन
के विभिन्न अंगो (विधान) में नारी-पूजन को भी प्रमुख विधान के रूप में सम्मिलित किया
गया है। साधक किसी भी धर्म तथा जाति की कुमारी कन्याओं, सुवासिनियों तथा प्रौढाओं का
पूजन-अर्चन करके श्रेय प्राप्त कर सकता है।
सुप्रसिद्ध शाक्तागम ग्रन्थ ‘महाकाल संहिता’
में बताया गया है कि यदि कोई सन्यासी भी शक्ति का उपासक है तो उसे भी शक्ति का पूजन-अर्चन
करना चाहिए। वह अपनी बहिन, माता, मौसी तथा मामी की पूजा कर सकता है चाहे वह उससे उम्र
में बड़ी हों या छोटी। अर्चन-पूजन के पश्चात उसे उनको वस्त्राभूषण तथा दक्षिणादि भी
प्रदान करनी चाहिए। यदि किसी अपरिहार्य कारण से नित्य पूजा करने में असमर्थ हो तो विशेष
पर्वों तथा तिथियों में अवश्य नारी पूजन करना चाहिए। ऐसा नहीं करने वाले साधक को सौ
कल्प तक भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। नारी के प्रति पूज्यभाव उत्पन्न हो जाने
से साधक का अन्तःकरण निर्मल हो जाता है तथा वह इस उच्चभूमिका में पहुंच जाता है-
परद्रव्येषु यो
अन्धः-परस्त्रीषु नपुसंकः
परापवादे यो मूकः
- सर्वदा विजितेन्द्रियः’’
(ऐसा साधक पराये धन के प्रति अन्धा, परस्त्री के
लिए नपुसंक तथा दूसरे की निन्दा में मूक रहते हुए अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त
कर लेता है।)
श्रीभगवगती मॉ कहती हैः-
‘‘अहं हि जगता
धात्री-जननी जन्म कारणात्
--- ---
--- --- ---
--- --- ---
--- ---
--- --- ---
--- --- ---
अहं च रोग सम्पन्ना-नाशयाभि
तमीश्वरं।
(मैं जगत की रचयिता, पालक तथा संहारक भी हूँ)
‘मयाहतोपि पापात्मा-प्राप्नोति
नरंक महत्
--- ---
--- --- ---
--- --- ---
--- ---
--- --- ---
--- --- ---
निरंन्तरं रोग
पीड़ा-जायते तस्य पापिनः
कदाचनः शिरः पीड़ा-कदाचितु
गुरूज्वरं
करच्छेदः पादच्छेदः
शिरस्छेदोपि जायते
अन्यापि विविधा
रोगाकुष्ठाद्या प्रभवन्ति हि’
(जो पापी मेरे नारीरूप को पीड़ा देता है
वह नरकगामी होता है। उसे नाना प्रकार के शारीरिक रोगों से कष्ट प्राप्त होता है)
नारी जाति को सर्वोच्च सम्मान देते हुए
श्री मॉ बताती है-
‘‘नारी त्रैलोक्य
जननी-नारी त्रैलोक्य पूजिता
नारी त्रिभुवनाधारा-नारी
देहस्वरूपिणी
सकृदपि न वक्तव्यो-निन्दये
मनसापिच’’
(नारी तीनों लोकों की जननी है। वह तीनों
लोकों में पूजिता है। वह देहस्वरूपिणी होकर भी तीनों लोकों का आधार है। ऐसी महान नारी
की कभी भी मन-वचन तथा कर्मों से निन्दा नहीं करनी चाहिए।)
श्री मॉ बारम्बार
उद्घोष करती है-
‘वनिता मम विग्रहा’’
(समस्त नारियॉ
मेरा ही स्वरूप है।)
तथा
‘न च नारी समा
सौख्यं
न च नारी समा
गतिः’
(नारी के समान सौख्यवान तथा उत्कृष्ट जन्म
अन्य किसी प्राणी का नहीं है।)
पुनश्च-
‘‘साधकेन वरं
कार्यं-वनिता नैव निन्दयेत्
वरं पूजा न कुर्वीत-वरं
बलि परित्यजेत्
कुलाचारं कुलद्रव्यं-कुल
पक्तिं वरं त्यजेत्
तथापि नैव योषाणाम्-निन्दायां
मानंस चरेत’’
(शक्ति उपासक का श्रेष्ट एवं परम कर्तव्य
है कि स्त्री-जाति की कभी निन्दा न करे। साधक चाहे नित्यपूजा तथा नित्यबलि का त्याग
कर दे, उसे कुलाचार, कुलद्रव्य तथा कुलपक्तिं को भी त्यागना पड़ जाये, परन्तु किसी भी
स्थिति में उसके मन में नारी की निन्दा का विचार नहीं आना चाहिए। )
इतना ही नहीं-
‘किमिहोक्तेनबहुना-वरं
त्याज्यो भवेन्मनुः
तथापि नैव कर्तव्य-वनिता
निन्दनादिकम्’’
(स्त्री
निन्दा करना मंत्र त्याग करने से भी बड़ा अपराध है।)
‘मातृवत्पूज्येनित्यं-मातृवत्भावये
सदा
………...................................
स्त्री द्वेषो
नैवकर्तव्य-विशेषात् पूजनं स्त्रियं
नारी सम्पूजयेनित्यं-उपभोंग
न कारयेत्
………...................................
स्वयं देहं समुत्सृज्य-मोक्षमाप्नोति
शाश्वतम्’’
(स्त्री को सदा मॉ की भावना करते हुए पूजना
चाहिए। स्त्री की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए। नारी को केवल भोग की वस्तु नहीं समझना
चाहिए। नारी की प्रसन्नता तथा सुरक्षा के लिए प्राणों का त्याग करने वाले साधक को मोक्ष
प्राप्त होता है।)
शक्ति संगम तंत्र में यह भी उल्लेख किया
गया है कि जिस साधक के मन में नारी को देखकर विकार उत्पन्न हो जाता है उसका विनाश हो
जाता है-
‘‘नारी निवीक्ष्य
यत्नेंन-अविकारी नरो यदि
विकारे जायमानेतु-साधको
नश्यति द्रुतम्’’
साधक
को पुरश्चरण (मंत्र-सिद्धिहेतु) काल में परस्त्री का भी पूजन करना चाहिए-
‘‘पुश्चरण कालेतु-परयोषां
प्रपूजयेत्’
शक्ति-उपासक द्वारा सम्पादित नित्यार्चन
में आवाहन से लेकर विसर्जन तक की क्रियाओं में स्त्री-सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। नित्य-पूजा
के अन्त में जब तक साधक सुवासिनी की पूजा नहीं करता उसे पूजा का सुफल प्राप्त नहीं
होता है। इस क्रिया में साधक एक पात्र में सुवासिनी को कुलद्रव्य (कुलामृत) प्रदान
करते हुए निवेदन करता है-
‘अलिपात्र इंद
तुभ्यं-दीयते पिशितान्वितम्
स्वीकृत्य सुभगे
देवि-यशोदेहि रिपून्जहि’
(हे सुभगे देवि! मैं यह शुद्धियुक्त अमृतपात्र
आपको समर्पित करता हूँ। आप इसे स्वीकार कीजिए। आप मेरे
शत्रुओं का संहार करें तथा मुझे यशस्वी बना दें।)
सुवासिनी
कुलामृत का पान करती है। कुछ अमृत उसी पात्र में बचाकर (अपना उच्छिष्ट द्रव्य) साधक
को वापस देते हुए अशीर्वाद देती है-
‘वत्स! तुभ्यं
मयादत्तं-पीत-शेषं कुलामृतम्
तब शत्रून् संहरिष्यामि-तवामीष्टं
ददाम्यह्म’
(हे वत्स! तुम मेरे उच्छिष्ट कुलामृत का
पान करो। मैं तुम्हारे शत्रुओं का संहार करूंगी तथा अभीष्ट फल प्रदान करूंगी।)
यहॉ पर शत्रुओं का तात्पर्य मानवीय शत्रुओं
से नहीं वरन् काम-क्रोधादि मनोविकारों से है जिनका संहार हुए बिना साधक सिद्धि प्राप्त
नहीं कर सकता है।
साधक को यह भी निर्देश दिया गया है कि
वह नित्यपूजार्चन के अन्त में ‘काम-कला’ का ध्यान अवश्य करे। काम-कला सम्बन्धी विषय
अत्यन्त गूढ़, विस्तृत तथा परमगोपनीय है। श्री गुरूदेव के सान्निध्य में रहकर ही इसे
समझा एवं सीखा जा सकता है। इस विषय पर आदि शंकराचार्य महाराज द्वारा अपने ‘सौन्दर्य
लहरी’ नामक ग्रन्थ में सांकेतिक रूप से प्रकाश डाला गया है-
‘मुखं बिन्दुंकृत्वा-कुचयुगमधस्तस्य
तदधो,
हरार्द्ध ध्यायेत्
हर-महिषि! ते मन्मथकलाम्’
यहॉ पर कामकला के विषय में अधिक विवेचना
करना प्रासंगिक नहीं होगा क्योंकि इस प्रकार ध्यान करना केवल पूर्णाभिषिक्त कौलसाधक
के लिए ही सम्भव है। काम-कला ध्यान से साधक के मन में शिव तथा शक्ति का सामरस्य भाव
उत्पन्न होता है तथा वह जीव एवं ब्रह्म के ऐक्य भाव का अनुभव करने लगता है। यही वेदान्त
का सार तत्व भी है।
पूर्व पृष्टों में इस विषय पर जितना भी
लिखा गया है उसकी सम्यक् विवेचना करके यह निष्कर्ष निकलता है कि शाक्त-दर्शन में नारी
के प्रति जिस परमोच्छ सम्मान का उल्लेख किया गया है ऐसा विश्व के किसी भी धर्म-ग्रन्थ
तथा आध्यात्मिक-दर्शन में उपलब्ध नहीं होता है। शाक्तदर्शन में सभी धर्मों, जातियों
तथा व्यवसायों की नारियों के प्रति, चाहे वह शारीरिक रूप से अस्वस्थ तथा कुरूप ही क्यों
न हो, के प्रति मातृभाव रखते हुए तथा उन्हें जगदम्बा का ही प्रतिरूप समझते हुए उनकी
निन्दा तथा तिरस्कार नहीं करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर उनके शरीर तथा मान-सम्मान की
रक्षा हेतु अपने प्राणों का भी उत्सर्ग करने के लिए तत्पर रहने का निर्देश दिया गया
है।
No comments:
Post a Comment